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Saturday, 2 November, 2024
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उत्तर प्रदेश से लोकसभा चुनाव लड़ रहे कुछेक मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए कारगर है वंशवाद

वंशानुगत कनेक्शन के बगैर, मुस्लिम उम्मीदवारों की सफलता के आंकड़े और भी निराशाजनक होते है.

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उत्तर प्रदेश कभी सर्वाधिक संख्या में मुस्लिम विधायक और सांसद चुनने वाला राज्य हुआ करता था. पर आज लोकसभा में राज्य का प्रतिनिधित्व मात्र एक सांसद के जिम्मे है, और वो भी कैराना सीट पर 2018 में हुए उपचुनाव में उनके जीतने के बाद से.

इस निराशाजनक स्थिति में भी एक कारक जो मुस्लिम उम्मीदवारों और उनकी जीत की संभावना के पक्ष में जाता दिखता है, वो है मौजूदा राजनीतिक विमर्श में बदनाम हो चुका शब्द: वंशवाद.

वंशानुगत मुस्लिम उम्मीदवार

वंशवादी राजनीति की अक्सर आलोचना की जाती है क्योंकि यह बिना पारिवारिक कनेक्शन वाले उम्मीदवारों की राह का अवरोध साबित होता है. ये आलोचना गलत भी नहीं है क्योंकि 2014 में गठित लोकसभा में करीब एक तिहाई सांसद राजनीतिक वंशों से थे.

पर, हमारे चुनावी लोकतंत्र की ये नकारात्मक और अवरोधक विशेषता यदि मुस्लिम नेताओं के लिए सकारात्मक साबित होती हो तो क्या कहेंगे?

लोकसभा के 2004, 2009 और 2014 के चुनावों में उत्तर प्रदेश में (प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा और रालोद के) मुस्लिम उम्मीदवारों का प्रतिशत क्रमश: 14 प्रतिशत, 11 प्रतिशत और 14 प्रतिशत था. सिर्फ 2014 को छोड़कर, जब राज्य के किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को जीत नसीब नहीं हुई थी. निर्वाचित सांसदों में मुसलमानों का प्रतिशत आमतौर पर उम्मीदवारों के अनुपात में ही हुआ करता था – जैसे, 2004 में 14 प्रतिशत और 2009 में 9 प्रतिशत.


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पर, ये निराशाजनक प्रदर्शन भी संभव नहीं होता यदि मुस्लिम उम्मीदवारों में से बहुतों के वंशानुगत राजनीतिक कनेक्शन नहीं होते. उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों द्वारा 2004 में खड़ा किए गए मुस्लिम उम्मीदवारों में से 48 प्रतिशत राजनीतिक वंशवाद से संबंधित थे. वंशानुगत मुस्लिम उम्मीदवारों का ये आंकड़ा 2009 के लिए 53 प्रतिशत और 2014 के लिए 50 प्रतिशत था.

2004 और 2009 क्रमशः 4 और 2 मुस्लिम उम्मीदवार थे, वंशवाद के संबंध में जानकारी की अनुपलब्धता के कारण गणना में शामिल नहीं हैं

पर, ये आंकड़े उत्तर प्रदेश में कुल मुस्लिम उम्मीदवारों में से जीतने वालों के प्रतिशत संबंधी निराशाजनक आंकड़ों (ग्राफ देखें) की तुलना में फिर भी सकारात्मक हैं. राज्य में मुस्लिम उम्मीदवारों की जीत का प्रतिशत सबसे अधिक 1951 में रहा था जब 15 में से 7 मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे. सबसे बुरी स्थिति 2014 की थी जब प्रमुख दलों द्वारा राज्य में 32 मुसलमानों को टिकट दिए जाने के बावजूद उनमें से एक भी नहीं जीत पाया था. याद रहे कि 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश की आबादी में मुसलमान 19 प्रतिशत हैं.

स्रोत: ईसीआई सांख्यिकीय रिपोर्ट

उपरोक्त ग्राफ से एक बात तो बिल्कुल साफ है कि मुस्लिम समुदाय के किसी व्यक्ति को टिकट मिल भी जाए तो उसके जीतने की संभावना बहुत कम रहती है.

असल मुकाबले में उम्मीदवार

अच्छी बात ये है कि लोकसभा की चुनावी दौड़ में एक वंशानुगत मुस्लिम उम्मीदवार के असल मुकाबले में होने (विजेता या रनर-अप) की संभावना अधिक रहती है.

2004 के लोकसभा चुनाव में वंशवादी कनेक्शन वाले मुस्लिम उम्मीदवारों में से 58 प्रतिशत असल मुकाबले में रहे थे. 2009 में ऐसी मजबूत स्थिति में रहने वाले मुस्लिम उम्मीदवार 47 प्रतिशत, जबकि 2014 में 43 प्रतिशत रहे थे.

उपरोक्त तीनों लोकसभा चुनावों में वंशानुगत मुस्लिम उम्मीदवारों में से अधिकतर उन सीटों पर खड़ा हुए थे जहां आबादी में मुसलमानों का अनुपात 20 प्रतिशत से अधिक था. यानि देश की आबादी में उनके हिस्से के मुकाबले ज़्यादा. ये बात समझ में आती है, क्योंकि वंशवादी फायदे के लिए वर्षों तक मुस्लिम मतदाताओं के एक बड़े वर्ग के निरंतर और स्थाई समर्थन की दरकार होती है. राज्य के सहारनपुर, कैराना, मुज़फ्फ़रनगर, बिजनौर और मेरठ जैसी सीटों पर ऐसी परिस्थिति मौजूद है.

उत्तर प्रदेश में पिछले माह अपने फील्डवर्क के दौरान मेरा एक अनुभव शायद वंशानुगत उम्मीदवार होने के फायदे को बेहतर स्पष्ट कर सके. रामपुर में अपने पिता आज़म ख़ान के लिए प्रचार करते हुए स्वार से सपा के युवा विधायक अब्दुल्ला आज़म ख़ान ने लोगों से कहा कि उनके पिता उन्हें सरकारी अधिकारी (नौकरशाह) बनाना चाहते थे, पर उन्होंने इस पर इसलिए ध्यान नहीं दिया क्योंकि वह अपने पिता को एक अधिकारी को डांट पिलाते सुन चुके थे. ‘अब्दुल्ला आज़म, ज़िंदाबाद’ के गूंजते नारे के बीच उन्होंने कहा, ‘उसी दिन तय किया कि (मुझे) आज़म ख़ान बनना है!’

उत्तर प्रदेश में 2019 का मुकाबला

इस बार के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की सीटों से खड़े 18 मुस्लिम उम्मीदवारों में से 9 राजनीतिक वंशों से आते हैं. कांग्रेस ने 8 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं जिनमें से आधे राजनीतिक रसूख वाले परिवारों से हैं. जैसे, बदायूं से लोकसभा उम्मीदवार सलीम इक़बाल शेरवानी के पिता उत्तर प्रदेश से राज्यसभा सांसद थे. सीतापुर से उम्मीदवार कैसर जहां स्थानीय विधायक मो. जासमीर अंसारी की पत्नी हैं.

समाजवादी पार्टी के चार मुस्लिम उम्मीदवारों में से एक का संबंध राजनीतिक परिवार से है – कैराना से लड़ रहीं तबस्सुम हसन दिवंगत सांसद चौधरी मुनव्वर हसन की पत्नी हैं, और उन्होंने रालोद के टिकट पर 2018 में कैराना का उपचुनाव जीता था.


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इसी तरह बसपा के छह मुस्लिम उम्मीदवारों से चार का संबंध राजनीतिक परिवारों से है. अमरोहा से उम्मीदवार कुंवर दानिश अली के रिश्ते के दादा कुंवर महमूद अली 1957 में मेरठ के डासना से कांग्रेसी विधायक थे और उन्होंने 1977 में हापुड़-गाज़ियाबाद से जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा था. वह 1992-93 में मध्यप्रदेश के राज्यपाल भी रहे थे.  धरौहरा के बसपा उम्मीदवार अरशद अहमद सिद्दिकी दो बार के सांसद इलियास आज़मी के पुत्र हैं.

धार्मिक ध्रुवीकरण के मौजूदा दौर में, वंशानुगत संबंध संसद में मुस्लिम प्रतिनिधित्व के पक्ष में दिखते हैं. इन संबंधों के बिना आंकड़े कहीं अधिक निराशाजनक होते. हालांकि, ये देखने के लिए हमें परिणामों का इंतजार करना होगा कि 2019 में संसद में उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को शून्य प्रतिशत से आगे ले जाने में उम्मीदवारों के वंशानुगत राजनीतिक संबंध कितना कारगर साबित होते हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया में पीएचडी के छात्र हैं. उनका ट्विटर हैंडल @mohdosama89 है. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी विचार हैं.)

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