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Sunday, 22 December, 2024
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कांग्रेस के लिए अपना खुद का नरेंद्र मोदी ढूंढने का यह आखिरी मौका है

कांग्रेस को एक ईमानदार आंतरिक चुनाव की आवश्यकता है न कि गांधी परिवार निर्देशित नाटक की जिसमें कि बाकी नेताओं की महज सजावटी भूमिका होती है.

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जून तक ‘किसी भी कीमत पर‘ एक नया अध्यक्ष चुनने का कांग्रेस वर्किंग कमेटी का निर्णय पार्टी के लिए खुद का नरेंद्र मोदी ढूंढने का भी आखिरी मौका हो सकता है. वो भी तब, जबकि कांग्रेस में चुनाव, विशेष रूप से पार्टी अध्यक्ष का चुनाव, केवल दिखावे के लिए नहीं हो– जिसे केवल गांधी परिवार के किसी सदस्य को भारी समर्थन की पुष्टि करने और सहारा देने के लिए इस्तेमाल किया जाता हो.

मैं इसे आखिरी मौका इसलिए कह रही हूं क्योंकि जितनी तेज़ी से कांग्रेस डूब रही है, उसका मतलब ये भी हो सकता है कि पार्टी के अंतत: वास्तविक फेरबदल के लिए तैयार होने तक कहीं नेतृत्व की प्रतिभा वाले सारे लोग उसे छोड़ न जाएं.
लोकतंत्र के लिए प्रतिबद्धता के अपने तमाम दावों के बावजूद, कांग्रेस लंबे समय से सर्वाधिक अलोकतांत्रिक पार्टी रही है, और अनेक लोगों ने बारंबार इसकी चर्चा की है. हां, भारतीय जनता पार्टी- कम से कम मोदी काल से पहले की पार्टी- से भी अधिक अलोकतांत्रिक जो एक राज्य विशेष के दो नेताओं को अपनी सबसे शक्तिशाली राष्ट्रीय जोड़ी बनाने में कामयाब रही.

पिछली बार वो अवसर कब आया था जब कांग्रेस ने पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव का आभास तक ही दिया हो? 1998 में, जब तत्कालीन पार्टी प्रमुख सीताराम केसरी ने पार्टी की कुर्सी के लिए सोनिया गांधी से प्रतिस्पर्धा करनी चाही थी, तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) ने एक प्रस्ताव पारित करके उन्हें पद छोड़ने के लिए कह दिया. तब से, पार्टी पूरी तरह से गांधी परिवार के वश में है- सोनिया से राहुल और वापस सोनिया तक. और, वफादारों के ‘अध्यक्ष बनेंगी प्रियंका (गांधी वाड्रा)’ के नारे के साथ.

आज, कांग्रेस में ईमानदारी के साथ चुनाव कराए जाने की आवश्यकता है- वास्तविक उम्मीदवारों तथा अध्यक्ष बनने के योग्य किसी भी व्यक्ति को चुनाव लड़ने का मौका दिए जाने के साथ. पार्टी को अपना खुद का मोदी या अमित शाह ढूंढने की जरूरत है और वह इसकी हकदार है.


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लगातार जारी ढकोसला

पार्टी पर गांधी परिवार की मज़बूत पकड़ किसी से छुपी नहीं है. लेकिन उसकी छत्रछाया में, चुनाव और चयन के नाम पर सब कुछ महज ढकोसला बनकर रह गया है.

कांग्रेस में, सब कुछ गांधी परिवार के अनुसार होता है. और पार्टी में अधिकांश लोगों को इस पर आपत्ति भी नहीं है. इसलिए लगभग दो दर्जन नेताओं का पत्र लिखकर शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठाना और संगठनात्मक सुधारों की मांग करना एक असामान्य घटना मानी जा सकती है.

जब सोनिया ने सीताराम केसरी को ‘विस्थापित’ किया, तो कांग्रेस- गंभीर मतभेद और पूर्वाग्रह वाले नेताओं की पार्टी- के भीतर विरोध के कुछ स्वर सुनाई दिए थे. हालांकि उसके बाद से पार्टी लगभग निरंकुशता के साथ शीर्ष से नियंत्रित रही है और पार्टी की चुनावी संभावनाओं में भारी गिरावट आई है.

आखिरी बार 1997 (कोलकाता अधिवेशन) और उससे पहले 1992 (तिरुपति अधिवेशन) में सीडब्ल्यूसी में कुछ वास्तविक प्रतिस्पर्धा देखी गई थी. 1997 के पार्टी अधिवेशन के बाद से सीडब्ल्यूसी के लिए कोई चुनाव नहीं हुआ है.
2004 में, जब कांग्रेस यूपीए गठबंधन के तहत सत्ता में आई, तो सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद को अस्वीकार कर दिया, लेकिन अपनी पसंद के एक नेता- मनमोहन सिंह को नियुक्त करने के बाद ही. उस दौरान भी किसी चुनाव प्रक्रिया को अपनाने की ज़रूरत नहीं समझी गई.

दूसरे कार्यकाल में यूपीए की घटती लोकप्रियता के साथ ही, समकालीन राजनीति पर गांधी परिवार की कमज़ोर पकड़ स्पष्ट हो गई थी. फिर भी, पार्टी सोनिया और राहुल गांधी के बीच ‘पासिंग द पार्सल’ का खेल बनी रही. राहुल को 2013 में पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया था और 2017 में उन्होंने अध्यक्ष के रूप में अपनी मां की जगह ली- और ये सब सुगमता से, आमतौर पर एक निर्विवाद परंपरा के तौर पर किया गया जैसा कि प्राचीन रजवाड़ों के काल में होता था.
उसके बाद, एक पार्टी पदाधिकारी शहज़ाद पूनावाला ने 2017 में राहुल की ताजपोशी पर ज़रूर सवाल उठाया था, लेकिन उनके इस कदम को बेहद हल्के में लिया गया, न कि पार्टी के मर्ज़ की ताकीद के रूप में.

अपना नियंत्रण छोड़ने की गांधी परिवार की अनिच्छा, साथ ही मोदी-शाह के दौर में बदलाव को लेकर उनकी विफलता के कारण पार्टी एक अंधेरी सुरंग में गिर चुकी है, जिससे निकलने का रास्ता आसान नहीं दिखता है.

वास्तविक चुनाव की ज़रूरत

कहने की ज़रूरत नहीं कि गांधी नेतृत्व हाल के वर्षों में कांग्रेस को संभाले रखने में बुरी तरह विफल रहा है. पार्टी सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस के मुख्य रणनीतिकार और दिग्गज नेता अहमद पटेल के निधन के बाद स्थिति और गंभीर हो गई है. नेतृत्व की डूबती नैया और लाइफबोट के अभाव का मतलब ये है कि सहयोगी दलों और अन्य दलों से वार्ताओं या यहां तक कि पार्टी के अंदरूनी विवादों को हल करने तक के लिए कोई निश्चित व्यक्ति उपलब्ध नहीं है. टीम राहुल के सदस्यों को लग सकता है कि पार्टी में उनका बोलबाला है लेकिन वास्तव में कांग्रेस के खेमे के बाहर वे छोटे राजनीतिक कद के हैं.

अस्तित्व के संकट से जूझ रही कांग्रेस को अपने लिए एक सफल और चुनाव कुशल नेता की तत्काल ज़रूरत है. राहुल या प्रियंका गांधी इस शून्य को नहीं भर सकते. आसन्न संगठनात्मक चुनाव निश्चय ही पार्टी के लिए मौजूदा दुर्दिन से बाहर निकाल सकने में सक्षम नेता की पहचान का मौका साबित हो सकता है.

नरेंद्र मोदी एक राज्य के मुख्यमंत्री मात्र थे. वह तीन बार के लोकप्रिय मुख्यमंत्री भले ही थे लेकिन कई सफल कार्यकाल वाले भाजपा के या किसी भी दल के अकेले नेता नहीं. अटल बिहारी वाजपेयी युग के बाद राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की एक लंबी श्रृंखला- लालकृष्ण आडवाणी से लेकर राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी (जो पार्टी अध्यक्ष रह चुके हैं) तक- मौजूद होने के बावजूद मोदी अपना पक्ष सामने रखने और राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरने में सफल रहे. 2013 में गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में, पार्टी में इस मुद्दे पर गहरा विभाजन था कि 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी का उम्मीदवार कौन हो. लेकिन मोदी अपने प्रतिद्वंदियों की तुलना में अधिक समर्थन हासिल करने में सफल रहे और उन्हें चुनाव अभियान का प्रमुख घोषित किया गया.

भाजपा अब पहले जितनी लोकतांत्रिक भले ही नहीं रह गई हो लेकिन कांग्रेस इसे बहाने के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर सकती है क्योंकि भाजपा मौजूदा नेतृत्व के तहत जीत भी तो रही है. मोदी और शाह अपने भारी जनसमर्थन के बल पर पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं, और चुनाव दर चुनाव उन्होंने इसे साबित भी किया है. इस बीच, कांग्रेस को आंतरिक लोकतंत्र के अभाव पर फिर से विचार करना होगा, इसलिए नहीं कि वंशवादी राजनीति बुरी होती है, बल्कि इसलिए कि उसके नेतृत्वकारी वंश ने उन लोगों के बीच अपना समर्थन खो दिया है जो सबसे ज्यादा मायने रखते हैं- यानि मतदाता.

अटल बिहारी वाजपेयी भले ही लोकप्रिय, करिश्माई और पसंद किए जाने वाले नेता रहे हों लेकिन उनके समय ही 2004 में भाजपा को एक अहम चुनावी हार का सामना करना पड़ा था, जिससे कांग्रेस को राष्ट्रीय राजनीति में वापसी का मौका मिला. उस समय, सोनिया गांधी ने कांग्रेस को फिर से सुर्खियों में लाने का काम किया था. क्या तब आडवाणी भाजपा को मोदी की तरह राष्ट्रीय स्तर पर और राज्य-दर-राज्य सत्ता दिलाने में कामयाब रहते? इसका जवाब देना मुश्किल है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी ने भाजपा को एक नया जीवन दिया.

कांग्रेस को अपने खुद के नरेंद्र मोदी की ज़रूरत है और इसका मतलब ये नहीं है कि उसे प्रधानमंत्री या किसी ऐसे व्यक्ति का प्रतिरूप चाहिए, जो विभाजनकारी और भड़काऊ लाइन अपनाता हो. दरअसल पार्टी को एक वास्तविक राष्ट्रीय नेता की ज़रूरत है, जो चुनाव जिता सके और जिसका अपना खुद का प्रभाव हो. सीडब्ल्यूसी और केंद्रीय चुनाव समिति के चुनाव इसका अवसर बनें, न कि ये चुनाव एक बार फिर गांधी परिवार निर्देशित नाटक बनकर रह जाएं जिसमें कांग्रेस के बाकी नेताओं की बस सजावटी भूमिका होती है.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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