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Friday, 1 November, 2024
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इस चुनाव में बहुत से लोग एक कमज़ोर मोदी की कामना कर रहे हैं

भारत 2014 में एक मज़बूत नेता चाहता था. वह कुछ ज़्यादा ही मज़बूत निकला, तो अब 2019 में उसे एक कमज़ोर नेता चाहिए.

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यदि 2014 में भारत एक मज़बूत नेता चाहता था, तो 2019 में उसे एक कमज़ोर नेता चाहिए. इस लोकसभा चुनाव में बहुत से लोग एक कमज़ोर नरेंद्र मोदी की कामना कर रहे हैं– मज़बूत मोदी और ताश के पत्तों की तरह ढह जाने वाले अव्यवस्थित गठजोड़ के बीच की हैसियत वाला.

यदि हमें एक अव्यवस्थित तीसरा मोर्चा मिलता है तो वह सरकार शायद पांच साल नहीं चल पाएगी. इस तरह बनी अस्थिरता से मोदी को ये कहने का मौका मिल जाएगा कि देखो मैंने कहा था न! उसके बाद मोदी 282 से भी अधिक सीटों के साथ वापस आ सकते हैं.

ऐसी ही स्थिति बनेगी यदि कांग्रेस मात्र 150 के आसपास की संख्या में सीटों के साथ सरकार बनाती हो. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) वैसी किसी सरकार को काम करने नहीं देगी. वह संसद के हर सत्र में उसे गिराने की कोशिश करेगी. फिर से नीतिगत दुर्बलता की स्थिति बन जाएगी, और इससे वापस मज़बूत नेता को लाने की मांग को बल मिलेगा.


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यदि भाजपा एक बार फिर स्पष्ट बहुमत प्राप्त करती है, तो वैसी स्थिति में मोदी 2014 के मुक़ाबले अधिक मज़बूत बन कर उभरेंगे. यदि मोदी अपनी पार्टी के मुख्य वादे – आर्थिक संपन्नता – को पूरा करने में बुरी तरह नाकाम रहने के बाद भी साधारण बहुमत प्राप्त करते हैं, तो उन्हें लगेगा कि वह कुछ भी करके बच सकते हैं.

ऐसा हुआ तो हमें कहीं अधिक विनाशकारी एकतरफा फैसलों की अपेक्षा करनी होगी, अब ये नोटबंदी जैसे तुगलकी फरमान हों या राज्यों में जनादेश चुराने के प्रयास हों या फिर स्वतंत्र संस्थाओं को खत्म करने की प्रक्रिया. वह असम और बंगाल से लेकर कश्मीर और केरल तक सामाजिक अशांति का माहौल बनाने को लेकर कुछ नहीं सोचेंगे. चूंकि तेज़ आर्थिक विकास संभव नहीं होगा, इसलिए मज़बूत मोदी के हिंदुत्व और कट्टर राष्ट्रवाद की तरफ और अधिक झुकने की ही संभावना रहेगी.

उपरोक्त दोनों चरम परिस्थितियों के बीच एक माध्य वाली स्थिति भी है: एक कमज़ोर मोदी.

एक कमज़ोर मोदी की कामना सबसे अधिक व्यवसाय जगत के वे लोग करते हैं जो कि एक सर्वशक्तिमान नेता के खिलाफ सार्वजनिक रूप से कुछ कहने का साहस नहीं कर सकते. दबी ज़ुबान में, वो अपना हवाई किला बनाते हैं: ‘एक कमज़ोर मोदी उतने भी बुरे नहीं होंगे,’ और ‘यदि उन्हें 200 से अधिक सीटें मिलीं, तो वह अपने लोगों की भी नहीं सुनेंगे.’

यह सुनने में अजीब नहीं लगता कि कोई अपने ही देश के लिए एक कमज़ोर प्रधानमंत्री की कामना करे. आप सोचते होंगे कि ऐसी इच्छा तो दुश्मन देशों को शाप देने के लिए की जा सकती है. पर सच तो ये है कि पिछले पांच वर्षों में बहुत से लोग एक मज़बूत नेता के खतरे से रूबरू हो चुके हैं.

अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद, इंदिरा गांधी को आज सर्वाधिक जाना जाता है आपातकाल के लिए. और, राजीव गांधी को अपने जीते हुए पांच-में-से-चार के भारी बहुमत को गंवाने के लिए. मज़बूत नेताओं में देवताओं वाली मनोग्रंथि पालने की प्रवृति होती है. उन्हें लगता है कि कुछ भी करके वे बच सकते हैं, क्योंकि उनके पास जनादेश है.

सत्ता भ्रष्ट करती है, और परम सत्ता पूरी तरह भ्रष्ट करती है. इस बार के चुनाव में, भारत को एक कमज़ोर नेता चाहिए जो क्षेत्रीय सहयोगी पार्टियों के समूह पर इस हद तक आश्रित हो कि उसे हमेशा सावधान रहना पड़े. ऐसा नेता हमेशा चौकस रहेगा क्योंकि उसे इस बात का अहसास होगा कि उसे किसी भी चीज़ की अति नहीं करनी है.

एक कमज़ोर नेता को पता होगा कि वह ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता कि मानों किसानों का अस्तित्व ही नहीं है, या वह खुलेआम आर्थिक आंकड़ों में हेराफेरी नहीं कर सकता. एक कमज़ोर नेता को ये भी पता होगा कि सांप्रदायिक हिंसा की निंदा मात्र के लिए भी वह अपना समय नहीं चुन सकता. कमज़ोर नेता के लिए भारत को एकदलीय राष्ट्र बनाने का खुला ऐलान करना भी संभव नहीं होगा, क्योंकि सहयोगी दल उसे अलविदा कहते हुए अपना समर्थन वापस ले लेंगे.

भारत ने 2014 में एक ‘बाहुबली’ को चुना था न कि ‘चौकीदार’ को. ‘चौकीदार’ चुनने वालों को सोते वक्त उसका डर नहीं सताता. 2019 में भारतवासियों को ऐसा ‘चौकीदार’ चाहिए जो कि उनसे डरे. ऐसा ‘चौकीदार’ जिसे अच्छे से पता हो कि गड़बड़ी करने पर उसे किसी भी पल दफा किया जा सकता है.

किसी भी नेता को 1.3 अरब लोगों पर अपनी मर्ज़ी चलाने के लिए पांच वर्षों का लंबा वक्त नहीं दिया जा सकता. हमारा जीवन सिर्फ इसलिए किसी एक व्यक्ति की इच्छाओं और सनक के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता कि हमने उसे चुना है. उसे सीमाओं में रखने वाली संस्थाओं का महत्व है, या कम-से-कम ऐसा होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट, राज्य सभा, चुनाव आयोग, लोकपाल आदि-आदि.


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अगली बार, जब सत्तारूढ़ दल सीबीआई को राजनीतिक हथियार बनाता हो, कोई-न-कोई नाखुश सहयोगी दल ज़रूर होगा जो खुलकर कहेगा कि ऐसा करना ठीक नहीं है. अगली बार, यदि कोई बड़ी कंपनी कहना चाहती हो कि आप हमें बहुत ज़्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं और रोज़गार पैदा करने की हमारी क्षमताओं में बाधक बन रहे हैं, तो किसी-न-किसी सहयोगी दल को उसकी बात उठानी होगी.

बेशक, अनेक सहयोगी दल आकर्षक मंत्रालयों को लेकर या राज्यों में प्रतिस्पर्द्धा नहीं करने के ऊपर सौदे करेंगे, शायद येदियुरप्पा की डायरियों में अंकित सूचनाओं जैसी बातें होंगी. और फिर, सीबीआई के मामले भी होंगे. पर कम-से-कम वे उस तरह दबाए नहीं जा सकेंगे जैसा कि पिछले पांच वर्षों में भाजपा के खुद के नेताओं को दबाया गया है. कम-से-कम साहस के साथ बोलने को तैयार लोग अभी से अधिक संख्या में होंगे.

एक कमज़ोर नेता का विचार बहुत ही मज़बूत है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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