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Saturday, 21 December, 2024
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तो आजाद उम्मीदवारों से वंचित रहेगी लोकसभा?

16वीं लोकसभा में सिर्फ तीन आजाद उम्मीदवार चुनकर आए थे. जबकि पहली लोकसभा में 37 और 15वीं लोकसभा में नौ निर्दलीय चुनकर पहुंचे थे.

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तो आगामी लोकसभा में कितने आजाद उम्मीदवार निर्वाचित होंगे? 16वीं लोकसभा में सिर्फ तीन आजाद उम्मीद चुनकर आए थे. नबा कुमार सरानिया (कोकराझाऱ) से, इनोसेंट (चलाकुड़ी,केरल) और एडवोकेट जोएस जॉर्ज (इडुक्की) से चुने गए. बेशक, ये सभी अपने-अपने क्षेत्रों में जनता के बीच जुझारू प्रतिबद्धता के साथ काम कर रहे होंगे. अन्यथा ये सब लोकसभा में नहीं पहुंच पाते. खासतौर पर तब जबकि चुनावों में धन का इस्तेमाल बढ़ता ही जा रहा है. पहली लोकसभा में 37 और 15वीं लोकसभा में नौ निर्दलीय चुनकर पहंचे थे.

एक दौर में वी.के.कृष्णमेनन (मिदनापुर और त्रिवेन्द्रम), आचार्य कृपलानी ( भागलपुर और सीतामढ़ी), एस.एन.बैनर्जी(कानपुर) मीनू मसानी (रांची) लक्ष्मीमल सिंघवी ( जोधपुर), इंद्रजीत सिंह नामधारी ( चतरा), महाराजा करणी सिंह (बीकानेर),जीजी स्वैल (शिलांग) समेत अनेक आजाद उम्मीदवार लोकसभा पहुंचते रहे हैं. ये सभी दिग्गज रहे हैं. सभी मनीषी थे. आम इंसान से जुड़े थे. कृपलानी जी शिखर स्वाधीनता सेनानी थे. कांग्रेस के नेता रहे. सिंघवी जी जैसा सरस्वती पुत्र दुबारा दुनिया देखेगी, इसकी ईश्वर से दुआ ही की जा सकती है. चाहे सांसद रहे हों या किसी और संस्था से जुड़ गए हों, लेकिन वेतन के रूप में हमेशा एक रुपया ही लिया. आप कानपुर में जाकर अब भी दादा बैनर्जी के बारे में पूछ लें. आपको लोग उनके तमाम किस्से सुनाएंगे.


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कोलकाता से आये मजदूर नेता एस.एम.बनर्जी ने 1957 में निर्दलीय चुनाव लड़कर जीत हासिल की तो 1962, 1967 और 1971 तक जीत का सेहरा वही पहनते रहे. शायद कानपुर अकेला शहर होगा, जहां चार बार लगातार कोई निर्दलीय सांसद चुना गया हो. जरा उपर्युक्त सूची को देखिए. इनमें आपको कई नाम इस तरह के नेताओं के मिल जाएंगे जो उस लोकसभा क्षेत्र से विजयी हुए जबकि उनका उस क्षेत्र से सीधा संबंध नहीं था. वहां पर जनता से जुड़कर और उनके सुख-दुःख का हिस्सा बनकर वे वहां के हो गए. कृपलानी जी सिंध से आए थे. वे बिहार से सांसद बने. बैनर्जी दादा कलकता से थे और कनपुरिया हो गए. नामधारी जी का परिवार विभाजन के वक्त पाकिस्तान से बिहार आकर बस गये थे. वे बरसों बिहार के ट्रांसपोर्ट मंत्री भी रहे. बिहार के विभाजन के बाद वे झारखंड में सक्रिय हो गए.

शुरूआती दौर में वे आजाद उम्मीदवार लोकसभा चुनाव में फतेह हासिल करते रहे, जिनकी अपने क्षेत्र या अखिल भारतीय स्तर पर पहचान थी. 1952 में जब पहली लोकसभा का गठन हुआ था तो उसमें 37 निर्दलीय थे, जो सदन की कुल सदस्‍य संख्‍या का करीब सात फीसदी थे. जाहिर है, ये बेहद शानदार आंकड़ा था. हालांकि उनकी तादाद धीरे-धीरे घटने लगी और 15वीं लोकसभा तक आते आते यह महज 9 निर्दलीय सदस्‍यों तक सिमट गई. सन 1952 में पहले लोकसभा चुनाव में 1874उम्‍मीदवारों में से 533 (करीब 28 प्रतिशत) निर्दलीय थे. उनके प्रदर्शन से उत्‍साहित होकर अगले आम चुनावों (1957) में उनकी भागीदारी बढ़कर 31 प्रतिशत हो गई. सफल होने वाले निर्दलीय उम्‍मीदवारों की संख्‍या भी 37 से बढ़कर 42 हो गई.

हालांकि 1962 में हुए तीसरे लोकसभा चुनाव में निर्दलीय उम्‍मीदवारों का प्रदर्शन पहले जैसा नहीं रहा. उनकी संख्‍या घटकर (पिछली लोकसभा के 42 से घटकर) 20 रह गई, यह गिरावट 50 प्रतिशत से भी ज्‍यादा थी. हालांकि चौथी लोकसभा में कामयाब होने वाले निर्दलीय उम्‍मीदवारों की संख्‍या में काफी वृद्धि हुई और यह 35 तक पहुंच गई. संभवत: इसी से उत्‍साहित होकर 1971 में हुए 5वें लोकसभा चुनावों में और ज्‍यादा निर्दलीय उम्‍मीदवार चुनाव मैदान में उतरे. 5वें लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले कुल उम्‍मीदवारों में से करीब 40 फीसदी निर्दलीय उम्‍मीदवार थे. हालांकि महज 14 ही चुनाव जीत सके और पर्याप्‍त मत न मिलने की वजह से कुल निर्दलीय उम्‍मीदवारों में से 94 प्रतिशत की जमानत जब्‍त हो गई.

पांचवे आम चुनाव के खराब प्रदर्शन के बावजूद बाद के आम चुनावों में हिस्‍सा लेने वाले निर्दलीय उम्‍मीदवारों की संख्‍या में वृद्धि हुई. मिसाल के तौर पर छठे आम चुनाव में 50 प्रतिशत से ज्‍यादाउम्‍मीदवारों ने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा. सातवें आम चुनाव में इनकीसंख्‍या बढ़कर 61 प्रतिशत हो गई. आठवें आम चुनाव में इसमें और ज्‍यादा वृद्धि हुई तथा 71 प्रतिशत उम्‍मीदवारों ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा. 11वें आम चुनावों में हिस्‍सा लेने वाले उम्मीदवारों में से 76 प्रतिशत निर्दलीय थे.

1998 में जमानत राशि में वृद्धि होने के बाद 12वें आम चुनाव में हिस्‍सा लेने वाले निर्दलीय उम्‍मीदवारों की संख्‍या घटी. पिछले दो आम चुनाव के नतीजे ही बताते हैं कि निर्दलीय उम्मीदवारों की राजनीतिक पटल पर कोई निर्णायक भूमिका नहीं बन पाई है. सैकड़ों निर्दलीय उम्मीदवार को कुल सौ वोट पाने को तरस गए. बीते लोकसभा चुनावों के दौरान देश ने देखा कि किस तरह से कैंपेन में पैसा पानी की तरह बहाया जाने लगा है. कैंपेनिंग इतनी महंगी हो गई है कि कोई भी इंसान आजाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने से पहले कई बार जरूर सोचता होगा. सभी प्रमुख क्षेत्रिय और राष्ट्रीय दल जमकर पैसा फूंकते हैं कैंपेन में.

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कहने वाले यह तर्क भी देते हैं कि निर्दलीयों के लिए चुनाव लड़ने की व्यवस्था ही खत्म कर देनी जानी चाहिए. कतई नहीं. यह उसी तरह का तर्क जैसा कुछ लोग रखते हैं कि देश में सिर्फ दो दलों के बीच ही चुनाव होने चाहिए. जरा सोचिए कि अगर कोई इंसान किसी दल का सदस्य नहीं है तो उसे विधानसभा या लोकसभा का चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं मिले ? निश्चित रूप से इस राय से इत्तेफाक नहीं रखा जा सकता. उम्मीद करनी चाहिए कि कम से कम कुछ निर्दलीय उम्मीदवार तो जीत कर लोकसभा में पहुंचते रहेंगे. यानी कि आचार्य कृपलानी, मीनूमसानी, दादाबैनर्जी जैसी शानदार हस्तियों की परम्परा आगे बढ़ती रहनी चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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