scorecardresearch
Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतसब्यसाची दास के लेख से साफ है दाल में कुछ काला है, लेकिन दोषी की शिनाख्त करना रिसर्चर का काम नहीं

सब्यसाची दास के लेख से साफ है दाल में कुछ काला है, लेकिन दोषी की शिनाख्त करना रिसर्चर का काम नहीं

अशोका यूनिवर्सिटी से इस्तीफा देने को मजबूर हुए अर्थशास्त्री सब्यसाची दास का 2019 लोकसभा चुनाव पर लिखा अप्रकाशित लेख ‘डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’ तकनीकी दृष्टि से भारतीय चुनावों पर लिखे सर्वश्रेष्ठ लेखों में गिना जाएगा.

Text Size:

सच कहूं तो उस शोध-लेख को लेकर पहले तो रश्क हुआ और मुंह से निकला कि काश! इस तरह का डेटा-विश्लेषण मैं भी कर पाता. इस प्रतिक्रिया में कुछ ईर्ष्या का भाव भी था. आखिर शोध-लेख किसी राजनीति विज्ञानी का नहीं बल्कि एक अर्थशास्त्री का लिखा हुआ है और ऐसा भी नहीं कि यह अर्थशास्त्री राजनीति के बारे में लिखते हुए बड़ी चतुर युक्तियों का इस्तेमाल करके कोई घिसी-पिटी या अजीब से बात कह रहे हों. इसे पढ़कर मुझे मानना ही पड़ा कि जब कोई अर्थशास्त्री किसी वास्तविक और ठोस चीज़ पर अपनी युक्तियों का इस्तेमाल करता है कि नतीजा आंखें खोल देना वाला निकलता है.

यहां बात “डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी” नाम के शोध-लेख की हो रही है, जिसे अशोका यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले अर्थशास्त्री सब्यसाची दास ने लिखा है. लेख अभी प्रकाशित भी नहीं हुआ है और इसने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है और ऐसा होना भी चाहिए. अपने देश में सार्वजनिक बहस-मुबाहिसे की जैसी हालत और जैसा मिजाज़ है उसे देखते हुए अचरज की बात नहीं कि इस लेख को लेकर विवाद भी उठा — कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने लेख के निष्कर्षों के बारे में मनचाहा रुख अख्तियार किया. बीजेपी के एक सांसद निशिकांत दुबे ने तो मांग की कि हमें बताया जाए, आखिर, यूनिवर्सिटी ने ऐसे “अधकचरे शोध की मंजूरी ही क्यों दी जिसने भारत की जीवंत चुनाव-प्रक्रिया की साख पर बट्टा लगाने का काम किया है”.

सांख्यकीय पद्धत्ति के बारे में व्याप्त अनपढ़ता को देखते हुए यह हैरानी की बात नहीं है कि मीडिया-जगत के कुछ टिप्पणीकारों ने लेखक (सब्यसाची दास) पर आरोप लगाया कि उनका लेख नज़र-ललचाऊ सुर्खियां बटोरने की एक जुगत भर है, ठोस प्रमाण के नाम पर लेख में कुछ खास नहीं है. देश में अकादमिक स्वतंत्रता की स्थिति को देखते हुए आश्चर्य नहीं कि अशोका यूनिवर्सिटी ने बेमतलब का वक्तव्य भी जारी किया और लेख को लेकर अपनी निराशा का इज़हार करते हुए इसकी जिम्मेदारी से भी इनकार कर दिया. देश की राजनीति को देखते हुए हैरानी नहीं हुई कि अंततः लेखक को अशोक यूनिवर्सिटी से इस्तीफ़ा देना पड़ा.


यह भी पढ़ें: बीजेपी की चाल के डर से सेक्लुयर राजनीति को समान नागरिक संहिता का मैदान नहीं छोड़ना चाहिए


शोध-लेख अधकचरा तो कत्तई नहीं

चूंकि मैं चुनाव-अध्ययन की विधा से परिचित हूं सो इस विधा की अपनी अब तक की तमाम जानकारी को साक्षी मानकर ये बात कह सकता हूं कि सब्यसाची दास का यह शोध-लेख अधकचरा तो कत्तई नहीं है. नुक्ताचीनी की बात अलग है, लेकिन इससे परे जाकर देखें तो भारत के चुनावों के बारे में यह शोध-लेख अनुगम्य साक्ष्यों पर आधारित अत्यंत गझिन और बारीक रिसर्च का नमूना है और ऐसा लेख मेरे सामने लंबे समय बाद आया है. ईमानदारी से कहें तो इस एक शोध-लेख में उच्च कोटि के आठ शोध-लेख शामिल हैं और इन आठ शोध-लेखों में कोई भी संबंधित विषय के प्रतिष्ठित जर्नल में छपने के काबिल है. यह एकमात्र शोध-लेख लेखक को किसी भी टॉप यूनिवर्सिटी में नौकरी दिलाने के लिए पर्याप्त है.

ठीक-ठीक कहें तो इस शोध-लेख में पहली बार देश के लोकसभा चुनावों में होने वाली हेराफेरी के ठोस सांख्यिकीय प्रमाण दिए गए हैं. इसे लेखक का साहस ही कहा जाएगा कि उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव में चुनावी छल-छद्म की आशंका जैसे संवेदनशील मुद्दे को अपने अध्ययन के विषय के रूप में चुना और सवालों के चयन में पूरी सावधानी बरतते हुए सतर्कता के साथ एक-एक करके उनके उत्तर दिए. जवाब देने के क्रम में लेखक एक व्यापक फलक के आंकड़ों का समुच्चय पाठक के सामने पेश करते हैं. आंकड़े हैरान करते हैं, इतना ही नहीं, लेखक अपने निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए आंकड़ों की बड़ी महीन जांच-परख भी करते चलते हैं.

लेखक ने किसी हड़बड़ी से काम नहीं लिया बल्कि खूब सतर्कता बरतते हुए बारीक सा यह निष्कर्ष सुनाया है: “मुझे ऐसे प्रमाण मिले हैं जिससे मतदाताओं के पंजीयन, मतदान के वक्त तथा मत-गणना के स्तर पर हुए चुनावी छल-छद्म की बात पुष्ट होती है. दोनों ही मामलों में नतीजे इस बात की तरफ संकेत कर रहे हैं मुसलमानों को लक्ष्य करके उनके साथ रणनीतिक ढंग से भेदभाव किया गया जैसे कि मतदाता-सूची से उनके नाम हटा देना और चुनाव के समय उनके वोट न डलने देना और ऐसा एक हद तक चुनाव-पर्यवेक्षक की लचर निगरानी के कारण हुआ”.

अपने निष्कर्षों के साथ लेखक यह भी याद दिलाना नहीं भूलते: “बहरहाल, जांच से इस बात के प्रमाण नहीं मिलते कि कोई फर्ज़ीवाड़ा हुआ है और न ही ये संकेत मिलते हैं कि छल-छद्म व्यापक स्तर पर हुआ”. शायद, इस लेख को लेकर हो-हल्ला इसी कारण किया जा रहा है क्योंकि इसमें कुछ भी गैर-वाजिब नहीं कहा गया और न ही इसमें राजनीतिक नारेबाजी का कोई पुट है.

शोध-लेख घिसी-पिटी लीक पर नहीं चलता, इसे पढ़ते हुए ताज़गी का एहसास होता है. चुनावी छल-छद्म के रूप में अब तक सबसे ज्यादा नाम इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) की हैकिंग का लिया जाता रहा है, लेकिन शोध-लेख इस मसले को एक किनारे करके लिखा गया है. मैंने बार-बार कहा है (और इससे मेरे मित्रों को निराशा हुई है) कि हमारे पास इस बात के अभी तक कोई पुख्ता सबूत नहीं हैं कि ईवीएम में छेड़छाड़ करके चुनाव के परिणाम हासिल किए जा रहे हैं.

बेशक, हमारे मन में कुछ धारणाएं हैं, जैसे यह कि: ईवीएम सरीखी चुनाव कराने की मशीन में छेड़छाड़ संभव है, सत्ता-पक्ष को ऐसी छेड़छाड़ करने से कोई गुरेज़ नहीं है और यह भी कि ऐसे छेड़छाड़ को रोकने के लिए चुनाव आयोग कमर कसकर उठ खड़ा होगा, ऐसा भरोसा नहीं किया जा सकता. इन धारणाओं से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि हमें एहतियात बरतने की ज़रूरत है क्योंकि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ मुमकिन है, लेकिन इन धारणाओं के सहारे ये साबित नहीं होता कि पिछले कुछ चुनावों में मनचीता चुनाव-परिणाम हासिल करने के लिए वास्तव में ईवीएम में छेड़छाड़ की गई है.

सौभाग्य कहिए कि सब्यसाची दास अपने लेख में “ईवीएम में छेड़छाड़” की इस थकाऊ और एक हद तक बेकार की बहस में नहीं उलझे. वे अपने लेख में ज़मीनी स्तर पर होने वाली चुनावी गड़बड़ियों के प्रमाण जुटाने की भी कोशिश नहीं करते. ऐसी गड़बड़ियों के बारे में सुनी-सुनाई बातें और स्थानीय स्तर के सबूत मौजूद हैं, लेकिन उनके सहारे ये साबित कर पाना मुश्किल है कि बड़े स्तर की चुनावी गड़बड़ियां हुई हैं. सब्यसाची दास के लेख के सहारे भी यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि चुनावों में बड़े पैमाने पर फर्ज़ीवाड़ा किया गया. उनका लेख केवल कुछ सुराग दे सकता है, ऐसे सबूतों की परीक्षा का काम खोजी पत्रकार और भावी इतिहासकारों पर छोड़ देना ठीक होगा.


यह भी पढ़ें: 2024 की लड़ाई सेमीफाइनल छोड़, सीधे फाइनल में पहुंची और BJP के सामने 3 चुनौतियां


चुनावी फोरेंसिक का सार-संक्षेप

सब्यसाची दास ने अपने शोध-लेख में चुनाव-प्रक्रिया को नहीं बल्कि चुनाव-परिणाम को आधार बनाया है. ये मानते हुए कि चुनाव में किसी किस्म का कोई कदाचार हुआ होगा तो उसका पता देता कोई न कोई सुराग मौजूद होगा ही, सब्यसाची दास ने निर्वाचन-क्षेत्र तथा मतदान-केंद्र स्तर के चुनावी नतीजों के बीच उभरती तस्वीर का विश्लेषण किया है और गड़बड़ियों की निशानदेही की है. उनकी इस कोशिश को चुनावी फोरेंसिक कहना उचित होगा. इस जांच का एक फायदा तो ये है कि इसमें परीक्षण की सामग्री के रूप में चुनाव के आधिकारिक आंकड़ों को लिया गया है न कि किसी विवादित डेटा-सेट को. दूसरे, आधिकारिक आंकड़ों का बूथ (मतदान-केंद्र) स्तर पर विश्लेषण किया जा सकता है, तीसरी बात कि ऐसे विश्लेषण का समाकलन करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर उभरती तस्वीर खींची जा सकती है, लेकिन, ऐसे शोध की सीमा यह है कि यह कदाचार का खाका तो खिंचता है और तरकीब की पहचान में मदद भी कर सकता है, लेकिन संभाव्यता के गणित और तर्क युक्तियों के सहारे. पुख्ता सबूत नहीं दिए जा सकता जो साबित कर सके कि हां, बिल्कुल ऐसी ही हुआ. यह कुछ वैसा ही है जैसे कि किसी वित्तीय फर्ज़ीवाड़े की जांच में होता है: सांख्यिकी के सहारे आप ये जान पाते हैं कि दाल में कुछ काला है, लेकिन ऐसी जांच के आधार पर किसी पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. इसके लिए आपको पुलिसिया जांच करवानी होती है.

इतनी बातें कह लेने के बाद, चलिए, ज़रा सब्यसाची दास के शोध-लेख में आए तर्कों को सरल भाषा में समझने की कोशिश करें. (जहां-तहां कुछ तकनीकी शब्द भी आपको मिलेंगे ताकि मूल लेख को पढ़ने सा स्वाद आए):

1. साल 2019 में हुई बीजेपी की जीत एक मायने में विचित्र कही जाएगी: पार्टी ने ऐसी सीटें बड़ी तादाद में जीतीं जहां हार-जीत का फैसला वोटों के बड़े कम अंतर से हुआ.(चुनाव के नतीजों में मौजूद ऐसी विचित्रता को खोजने के लिए लेखक ने एक सांख्यिकीय तकनीक का इस्तेमाल किया है जिसे “McCrary test” कहा जाता है.)

1a. विचित्र जान पड़ती ऐसी जीत मुख्य रूप से NDA शासित राज्यों में हुई.

1b. वैश्विक मानकों के आधार पर कहा जा सकता है कि ये जीत विचित्र ही नहीं बल्कि बहुत ज्यादा विचित्र है. साल 1977 से लेकर 2019 के ऐन पहले तक किसी भी लोकसभा चुनाव में किसी भी बड़ी पार्टी के साथ ऐसा नहीं हुआ और न ही 2019 के आसपास हुए विधानसभा चुनावों से ही ऐसी कोई तस्वीर उभरती है.

2. सबसे विचित्र जान पड़ती इस तस्वीर से शंका तो जागती है, लेकिन इसके सहारे ये साबित नहीं किया जा सकता कि फर्ज़ीवाड़ा हुआ. बीजेपी के खूब स्मार्ट होने की सूरत में भी तस्वीर ऐसी ही रहती. यह भी संभव है कि बीजेपी ने एकदम सटीक अनुमान लगाया कि किन सीटों पर मुकाबला कांटे का है और किन सीटों पर चुनाव-अभियान पर कुछ ज्यादा जोर लगाने से उसे जीत हासिल हो सकती है.

2a. हां, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. चुनावी नतीजों के लिहाज़ से विचित्र जान पड़ते इन निर्वाचन क्षेत्रों में घर-घर जाकर चुनाव-प्रचार करने या सोशल मीडिया पर प्रचार-अभियान चलाने के मामले में बीजेपी को अपने प्रतिद्वंदियों पर कोई बढ़त हासिल नहीं थी. (प्रमाण लोकनीति-सीएसडीएस के नेशनल इलेक्शन स्टडी, 2019 से लिए गए)

3. इसलिए, हमें इस आशंका को गंभीरतापूर्वक लेना होगा कि चुनाव में छल-छद्म का सहारा लिया गया. जीत के लिहाज़ से विचित्र जान पड़ते निर्वाचन-क्षेत्रों के अध्ययन से बहुत असामान्य जान पड़ती तस्वीर उभरती है:

3a. कुल मतदाताओं, खासकर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या में बढ़ोत्तरी का औसत से कम रहना इस बात के संकेत है कि मतदाताओं के नाम रणनीतिक रूप से हटाए गए. (लेखक ने मतदाता-सूची से 2.5 करोड़ नाम नमूने के तौर पर लेकर एक एल्गोरिद्म के सहारे मुस्लिम नामों की पहचान की है)

3b. कुल डाले गए वोट तथा गिनती में आए कुल वोटों की संख्या में मेल नहीं है. (साल 2019 के चुनावों में यह घोटाला मीडिया की नज़रों में आया था. इसके बाद चुनाव आयोग ने मतदान की संख्या बताने वाले आंकड़े अपनी वेबसाइट से हटा लिए और कभी भी ऐसी विसंगति की व्याख्या करने की ज़हमत नहीं उठाई.)

3c. बीजेपी-शासित राज्यों में आनुपातिक रूप से ज्यादा संख्या में प्रदेश-स्तर के नौकरशाह मतगणना-पर्यवेक्षक के रूप में तैनात किए गए. इन पर्यवेक्षकों के शासन का पिट्ठू होने की आशंका ज्यादा है.(आंकड़े चुनाव आयोग की वेबसाइट से लिए गए हैं)

3d. संख्याओं के कुछ ऐसे असंगत समीकरण उभरते हैं जिनसे हेरफेर की आशंका जागती है. ऐसा विशेष रूप से उन मतदान-केंद्रों पर दिखता है जहां 800 से ज्यादा वोट डाले गए. (इसे दिखाने के लिए लेखक ने बेनफोर्ड्स लॉ नाम के एक गणितीय सूत्र का इस्तेमाल किया है और ऐसा करके दहाई के अंकों की पैमाइश करते हुए उनके बीच असंगति खोजी है.)

3e. बड़ी संभावना इस बात की बनती है कि जिन जगहों पर मुसलमान मतदाताओं की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है वहां ये विसंगतियां बड़ी तादाद में हुईं.


यह भी पढ़ें: सेक्युलरवाद की राजनीति के लिए जरूरी है दोस्त बनाना लेकिन वो दुश्मनों की फौज खड़ी कर रहा है


शोध-लेख में दर्ज़ सबूत

हड़बड़ी में कोई निष्कर्ष निकालने से पहले हमें याद रखना होगा कि यह शोध-लेख सांख्यकीय पद्धति पर आधारित है, केवल सम्भावना बता सकता है. शोध-लेख हमें ये तो बता सकता है कि कहीं से गड़बड़ी की बू आ रही है, लेकिन वो किस वजह से पैदा हुई है, इसे बता पाना शोध-लेख के बूते की बात नहीं. लेख को वैसा कोई वैधानिक प्रमाण नहीं मान सकते जिसके सहारे अपराधी और इसके लाभार्थी के बीच संबंध बैठाते हुए फर्ज़ीवाड़े की निशानदेही की जा सके. ऐसा भी नहीं कि यह शोध-लेख 2019 के समूचे चुनाव को ही आशंका के घेरे में लेता हो. लेखक ने स्वयं भी इस बात को रेखांकित किया है. लेखक का अनुमान है कि ऐसे छल-छद्म के सहारे बीजेपी को 9 से 18 सीटों का फायदा मिला हो सकता है, लेकिन सीटों की इतनी भर संख्या से संसद में बीजेपी के बहुमत पर कोई असर नहीं पड़ता. मतलब, शोध-लेख कहीं भी ये कहता प्रतीत नहीं होता कि साल 2019 में नरेंद्र मोदी की सरकार चुनावी फर्ज़ीवाड़े से बनी थी.

लेकिन, ये याद रखना होगा कि किन कारणों से इस शोध-लेख को अधकचरा, अटकल-पचीसी या फिर बेसिर-पैर का नहीं बताया जा सकता. ये बात पूरे दावे के साथ कही जा सकती है कि कांटे की टक्कर वाली कुछ सीटों पर निश्चित ही चुनाव-परिणाम में कोई न कोई गड़बड़ी हुई है. शोध-लेख में स्पष्ट रूप से दिखाया गया है कि बड़ी संभावना इस बात की बनती है कि बीजेपी ने अपने शासन वाले राज्यों में अपनी राजनीतिक पकड़ का इस्तेमाल मतदाता-सूची के नाम चुनिंदा ढंग से हटाने में किया (ऐसा खासकर मुस्लिम नामों के साथ किया गया), मतदाताओं को मतदान केंद्र से बिना वोट डाले वापस लौटने को मजबूर किया गया और चंद चुनिंदा निर्वाचन-क्षेत्रों में मतगणना में गड़बड़ हुई. आमतौर पर लोग-बाग ऐसी चुनावी गड़बड़ियों को ‘सूंघ’ लेते हैं और ऐसी सुनी-सुनाई बातों को संज्ञान में लिया जाए तो मुझे लगता है, शोध-लेख के ये निष्कर्ष उसकी पुष्टि ही करते हैं. कुछ टिप्पणीकार ऐसी बातें एक अरसे से कह रहे हैं, भले ही उनके कहने में शोध-लेख जैसी सफाई नहीं हो.

अगर शोध-लेख के निष्कर्ष उतने ही भरोसेमंद हैं जितने कि मुझे लग रहे हैं तो फिर इसके निहितार्थ दूरगामी हैं. तब बात सिर्फ कड़े मुकाबले वाले चंद निर्वाचन-क्षेत्रों तक सीमित नहीं रह जाती जिन्हें शोध-लेख में विश्लेषण का आधार बनाया गया है. बीजेपी के खिलाफ जान पड़ते मतदाताओं के नाम मतदाता-सूची से हटाने और इस तरह मतदाता-सूची के साथ छेड़छाड़ करने की कवायद सिर्फ बीजेपी शासित राज्यों के चंद हाशिए के निर्वाचन-क्षेत्रों तक सीमित कवायद नहीं रह जाती. आशंका ये बनती है कि ऐसा ज्यादातर सीटों पर हुआ होगा और उन राज्यों में भी हुआ होगा, जहां बीजेपी का शासन नहीं है क्योंकि एक तो बीजेपी की चुनावी मशीन तेज़ है और दूसरी बात कि निचले स्तर के अधिकारी सत्ताधारी दल से मिले हो सकते हैं. मेरा ख्याल है कि सिर्फ मुसलमान मतदाताओं के नाम ही मतदाता-सूची से नहीं हटाए गए बल्कि संभव है कि कुछ अन्य सामाजिक समूह के मतदाताओं के नाम भी सूची से हटाए गए होंगे ये सोचकर कि उनके वोट बीजेपी को नहीं पड़ते. इस बात की भी आशंका है कि कुछ फर्ज़ी नाम मतदाता सूची में जोड़े गये हों जबकि शोध-लेख में इसे विषय-वस्तु के रूप में नहीं बरता गया. इन तमाम बातों के लिए अलग से खोज-बीन की ज़रूरत है.

आशंका इस बात की भी बनती है कि मतगणना में हुई गड़बड़ सिर्फ असंगत जान पड़ती उन्हीं सीटों तक सीमित न हो जिनका ज़िक्र शोध-लेख में किया गया है. शोध-लेख में जिन सीटों पर मतगणना संबंधी गड़बड़ की बात पकड़ में आई है वह बाकी सभी सीटों पर कहीं ज्यादा तो कहीं कम कामयाबी के साथ अमल में लाई गई हो सकती है. ऐसा करने से बीजेपी को हासिल कुल सीटों की संख्या पर असर तो नहीं पड़ता, लेकिन पार्टी को हासिल वोट-शेयर पर पड़ता है. ऐसी गड़बड़ में हम उन घटनाओं की गिनती कर सकते हैं जहां वास्तविक मतगणना की शुरुआत से पहले “डमी वोटों” को न हटाया गया हो (शायद यही वजह है जो कुल पड़े वोट और कुल गिने गए वोटों की संख्या बेमेल है), ईवीएम मशीन को अंतिम रूप से सीलबंद करने से पहले कुछ फर्ज़ी वोट डाले गये हों, मतदान केंद्र से उन मतदाताओं को वोट डाले बगैर लौटा दिया गया हो जिनके बारे में आशंका हो कि वे किसी और उम्मीदवार को वोट डालेंगे आदि. कह सकते हैं कि ऐसे उदाहरणों के जरिए हम सिर्फ गड़बड़ी का एक अंशमात्र देख पा रहे हैं न कि पूरी तस्वीर.


यह भी पढ़ें: बिना विचारधारा के भाजपा के युग में नहीं टिक सकती पार्टियां, कांग्रेस को भी नए ढंग से बदलने की ज़रूरत


साल 2024 के लिए सबक

तो फिर, ऊपर की गई इन बातों से साल 2024 के चुनावों के लिए सबक क्या निकलते हैं?

पहली बात तो यही कि विपक्ष को ईवीएम मशीन में गड़बड़ी का पुराना राग अलापने की जगह ध्यान इस बात की तरफ लगाना चाहिए कि वैसा कोई फर्ज़ीवाड़ा न हो जैसा कि पुराने चुनावों में होता था. इस मांग की बजाये कि मतदान पुराने तर्ज पर हो (यानी मतपत्र पर हाथ से मोहर लगाकर) विपक्ष को अपना जोर दोहरे सत्यापन पर लगाना चाहिए यानी ये देखना कि: a) पंजीकृच रजिस्टर्ड में जितने वोट पड़े दिख रहे हैं उनकी संख्या ईवीएम में पड़े वोटों से मेल खा रही है या नहीं और b) ईवीएम में दर्ज़ कुल वोटों की संख्या का मिलान वीवीपीएटी पर्ची की कुल संख्या से करना.

दूसरी बात ये कि किसी किस्म की गड़बड़ से बचने के लिए मतदाता-सूची के पुनर्निरीक्षण पर ज्यादा ध्यान देना ज़रूरी है. तीसरी बात, विपक्षी दलों को सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके पोलिंग और काउंटिंग एजेंट वैसे ही दक्ष, उत्साही और प्रशिक्षित हों जैसे कि बीजेपी के पोलिंग और काउंटिंग एजेंट होते हैं. इस सिलसिले की आखिरी बात ये कि चुनाव आयोग की दयनीय दशा को देखते हुए मतगणना की प्रक्रिया की न्यायिक निगरानी की जाए तो अच्छा रहेगा.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: कभी अछूत रही मगर आज जिसे छू पाना हुआ मुश्किल, 43 सालों में कहां से कहां पहुंची बीजेपी


 

share & View comments