भारतीय नौकरशाही के बीच गुजरते हुए मैं अक्सर पुरुषों के समंदर में महिला के रूप में खुद को अकेली पाती हूं. भूरे, नीले और काले रंग के कमरे में रंग-बिरंगी साड़ी पहने हुए मेरे पास इस बात पर विचार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है कि मेरी पीढ़ी की अन्य महिलाएं अनुपस्थित क्यों हैं.
डेटा इस बात की पुष्टि करता है कि बड़े आधिकारिक पदों पर, विशेषकर सिविल सेवाओं में, स्पष्ट रूप से महिलाओं की उपस्थिति कम है. मैं प्रतिष्ठित भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के बारे में पता लगाने के लिए अशोक विश्वविद्यालय में त्रिवेदी सेंटर फॉर पॉलिटिकल डेटा (टीसीपीडी) को खंगालती हूं. यह व्यापक डेटासेट 1950 से 2020 के बीच आईएएस की संख्या के बारे में जानकारी देता है. इसमें उम्र, जेंडर, गृह राज्य, शैक्षिक पृष्ठभूमि और अन्य प्रासंगिक विशेषताओं को शामिल किया गया है.
चूंकि ऐसा कोई ओपन-एक्सेस क्रॉस-सेक्शनल डेटा से उपलब्ध नहीं है जो कि सिविल सेवाओं में सेलेक्ट हुई महिलाओं की पूरी प्रोफ़ाइल के बारे में जानकारी देता है, इसलिए मैंने सिविल सेवाओं में व्यापक रुप से विश्लेषण के लिए टीसीपीडी डेटा का उपयोग किया है. विश्लेषण के अनुसार, आईएएस में सीधे भर्ती होने वाली महिला अधिकारियों का अनुपात बमुश्किल 5 प्रतिशत था. हालांकि, इसमें 1970 के दशक से एक स्पष्ट बढ़त वाली प्रवृत्ति भी दिखाई देनी शुरू होती है जो कि 1970 के दशक में 15 प्रतिशत से बढ़कर 2000 के दशक में 25 प्रतिशत और 2020 तक 27 प्रतिशत थी. कोई यह तर्क दे भी सकता है कि, अब एक तिहाई विधायी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं, और कुल आईएएस अधिकारियों में 27 प्रतिशत महिलाएं हैं, जो कि एक महत्वपूर्ण प्रगति है. हालांकि, कई कारणों से इस अपर्याप्त माना जाएगा.
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कम प्रतिनिधित्व के कारक
सर्वप्रथम तो, वर्तमान प्रतिनिधित्व संभवतः भारत में महिलाओं की जनसांख्यिकी के हिसाब से अपर्याप्त है. फिर, नौकरशाही में आने वाली महिलाएं मुख्य रूप से नई दिल्ली से हैं, जहां से चुने गए कुल आईएएस अधिकारियों में से 35 प्रतिशत से अधिक महिलाएं होती हैं. हालांकि, उत्तर प्रदेश, जिसने 1950 के बाद से सबसे अधिक संख्या में आईएएस अधिकारी दिए हैं, वहां केवल 10 प्रतिशत महिला अधिकारी हैं. इसके विपरीत, बिहार, राजस्थान, ओडिशा और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में यह अनुपात काफी कम है.
दूसरा, जबकि आईएएस जैसे विशिष्ट पदों पर अपेक्षाकृत अधिक प्रतिनिधित्व हो सकता है, हमारे पास निचले प्रशासनिक स्तरों पर कार्यरत महिलाओं की संख्या के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है जो जमीनी स्तर पर शासन और नीतियों के कार्यान्वयन के लिए आवश्यक हैं. समझ में यह अंतर प्रशासनिक प्रणाली के सभी क्षेत्रों में जेंडर रिप्रेजेंटेशन में वास्तविक प्रगति का पता लगाने की हमारी क्षमता को बाधित करता है.
नौकरशाही में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के लिए जिम्मेदार कारक क्या हैं? वे मांग और आपूर्ति दोनों पक्षों पर निर्भर करते हैं. आपूर्ति पक्ष के कारकों में सिविल सेवाओं के लिए कम महिलाओं का आवेदन करना शामिल है. यूपीएससी द्वारा प्रकाशित 72वीं वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में 7,02,674 पुरुष उम्मीदवारों ने परीक्षा के लिए आवेदन किया था जबकि आवेदन करने वाली महिला उम्मीदवारों की संख्या 3,33,730 थी, जो कि इसकी आधे से भी कम थी. नीचे दिए गए ग्राफ़ से पता चलता है कि पुरुष और महिला उम्मीदवारों के बीच यह अंतर उम्र के साथ बढ़ता जाता है. इसका तात्पर्य यह है कि न केवल कम संख्या में महिलाएं सिविल सेवा परीक्षा के लिए आवेदन करती हैं, बल्कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ वे दौड़ से बाहर होने लगती हैं.
इस परीक्षा की तैयारी एक लंबी प्रक्रिया है. यूपीएससी की रिपोर्ट में कहा गया है कि एक उम्मीदवार को सफल होने के लिए औसतन तीन प्रयासों की आवश्यकता होती है, जिसमें 4.5 साल से अधिक की गहन तैयारी शामिल होती है. इसमें पैसे भी काफी खर्च होते हैं. समय और पैसा लगाने के बाद भी सिविल सेवाओं में अपना स्थान बना पाने की संभावना बेहद कम है.
इसके अतिरिक्त, बेटी की शादी और परिवार में उसकी स्थिति को लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नताओं के कारण, भारतीय माता-पिता अक्सर अपनी बेटी की शिक्षा में खर्च होने वाले पैसे को बेटे की शिक्षा में खर्च होने वाले पैसे की तुलना में अधिक मानते हैं. इसे देखते हुए, वे संभवतः अपनी बेटी के करियर को लेकर इतना पैसा खर्च करने से झिझकते हैं. माता-पिता से बहुत कम या कोई प्रोत्साहन न मिलने पर, महिलाएं, सिविल सेवाओं को करियर विकल्प के रूप में न चुनने का भी निर्णय ले सकती हैं.
एक अन्य महत्वपूर्ण कारक परीक्षा उत्तीर्ण करने को लेकर उनकी खुद की धारणा में निहित है, जो इस बात से भी प्रभावित होती है कि महिला खुद के बारे में क्या विश्वास करती है और सामाजिक अपेक्षाओं की तुलना में वह अपनी योग्यताओं को लेकर क्या सोचती है. रिसर्च से पता चलता है कि किसी की सफलता में उसके द्वारा खुद के ऊपर भरोसा कितना महत्त्वपूर्ण होता है. उदाहरण के लिए, स्पेंसर एट अल द्वारा किया गया एक प्रयोग. 1999 में पाया गया कि जब मजबूत गणितीय कौशल वाले पुरुष और महिला छात्रों को एक चुनौतीपूर्ण परीक्षा का सामना करना पड़ा, तो महिलाओं ने तुलनात्मक रूप से खराब प्रदर्शन किया.
हालांकि, जब पहले से उन्हें यह बताया गया कि महिलाओं की गणितीय क्षमताओं को लेकर जो एक मानसिकता है वह उस खास परीक्षा पर लागू नहीं होगी, तो उन्होंने पुरुषों की तरह ही अच्छा प्रदर्शन किया. इस बात की संभावना है कि यह घटना सिविल सेवा परीक्षाओं में भाग लेने वाली महिलाओं पर भी लागू होती हो, क्योंकि वे अपनी क्षमताओं के प्रति पूर्वाग्रहों से प्रभावित हो सकती हैं. हालांकि, इसका विपरीत भी है: जब महिलाओं को आश्वस्त किया जाता है कि इस तरह के नकारात्मक पूर्वाग्रह निराधार हैं, तो उनके लगे रहने और अंततः सफल होने की अधिक संभावना है.
कार्यस्थल की समावेशी नीतियां
ज़रूरी नहीं है कि मांग-पक्ष कारक (डिमांड-साइड फैक्टर), जैसे कि भर्ती की प्रक्रिया में महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह, संभवतः सिविल सेवाओं में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व में महत्वपूर्ण योगदान देते हों. आंकड़ों से पता चलता है कि सिविल सेवाओं में महिलाओं के प्रवेश में बाधा मुख्य रूप से परीक्षा प्रक्रिया के शुरुआती चरणों में है.
यूपीएससी की रिपोर्ट के अनुसार, परीक्षा के अंतिम चरण यानि कि साक्षात्कार में महिलाओं की सफलता दर 55 प्रतिशत है. यह पुरुषों की सफलता दर से काफी अधिक है, जो कि 38 प्रतिशत है. यह दिखाता है कि एक बार जब एक महिला परीक्षा में बैठने का फैसला करती है और साक्षात्कार चरण में आगे बढ़ती है, तो पुरुष की तुलना में उसके चुने जाने की अधिक संभावना होती है. साक्षात्कार चरण में अधिकतम मानवीय संपर्क और इस प्रकार संभावित पूर्वाग्रह के बावजूद, महिला उम्मीदवार, औसतन, पुरुष उम्मीदवारों से बेहतर प्रदर्शन करती हैं. यह दृढ़ता से डिमांड-साइड में भेदभाव न होने की ओर इशारा करता है.
इसके अलावा, भारत सरकार की कार्यस्थल नीतियां काफी जेंडर सेंसिटिव हैं. इन्हें विशेष रूप से उन महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिए तैयार किया गया है जो काम और घर की दोहरी जिम्मेदारी निभाती हैं. उदाहरण के लिए, भारत में केंद्र सरकार में कार्यरत महिलाएं 26 सप्ताह के पूर्ण मुआवजे वाले मातृत्व अवकाश की हकदार हैं. दुनिया में सबसे लंबी मातृत्व अवकाश अवधि में से एक होने के नाते, यह डेनमार्क और स्विट्जरलैंड जैसे देशों में महिलाओं की छुट्टी के अधिकारों से बेहतर है, जो संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) लिंग असमानता सूचकांक में अपनी उच्च रैंकिंग के लिए विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त हैं.
केंद्र सरकार में काम करने वाली महिलाओं के पास चाइल्ड केयर लीव लेने का भी विकल्प होता है, जो दो साल की होती है. यह छुट्टी उनके रोजगार के दौरान किसी भी समय ली जा सकती है, जब तक कि यह उनके बच्चे या बच्चों के 18 वर्ष की आयु तक पहुंचने से पहले हो. लिंग-समावेशी (Gender-inclusive) नीतियों को आदर्श रूप से महिलाओं को सिविल सेवाओं को एक बेहतर कैरियर विकल्प के रूप में देखने के लिए सशक्त बनाना चाहिए.
यह देखते हुए कि सिविल सेवाओं में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व ज्यादातर सप्लाई-साइड फैक्टर से उत्पन्न होता है, ऐसी नीतियों को लागू करना जरूरी है जो इन मूल कारणों को टारगेट करें. उन्हें रूढ़िवादिता को चुनौती देनी चाहिए, संसाधनों और अवसरों तक अधिक पहुंच प्रदान करनी चाहिए और एक ऐसे माहौल को बढ़ावा देना चाहिए जहां महिलाएं लैंगिक पूर्वाग्रह या भेदभाव के डर के बिना अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सशक्त महसूस करें. तभी हम वास्तव में भारत में शासन और नीति-निर्माण के भविष्य को आकार देने में महिलाओं की पूरी क्षमता का उपयोग कर सकते हैं.
भारतीय महिलाओं की अपार क्षमता को देखते हुए, मुझे उम्मीद है कि जल्द ही, मेरे साथ साड़ी पहनने वाली असंख्य महिलाएं शामिल होंगी, जो बाधाओं को तोड़ कर सत्ता के गलियारों में अपनी पहचान बनाएंगी.
(कनिका दुआ एक आईआरएस (जीएसटी और सीमा शुल्क) हैं और वर्तमान में दिल्ली में उप निदेशक के रूप में कार्यरत हैं. उन्होंने हाल ही में एलएसई से चिवनिंग स्कॉलर के रूप में डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स में MSc पूरी की है. व्यक्त किए गए विचार निजी व्यक्तिगत हैं और किसी संगठन/संस्था का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं.)
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