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Wednesday, 4 December, 2024
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अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने वाले मिडिल-क्लास की आवाज बुलंद करने की ज़रूरत

ऐसा लगता है कि सरकार के राजनीतिक गणित में समृद्ध और वंचित तबकों के हित ही शामिल हैं, मिडिल-क्लास को लगभग दरकिनार किया गया है. बढ़ती राजनीतिक उपेक्षा ने इस तबके में मोहभंग की भावना भर दी है.

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भारत के वर्तमान आर्थिक परिदृश्य में मिडिल-क्लास को एक ऐसा प्रमुख तबका समझा जाता है जिसकी अक्सर अनदेखी की गई है और जिसे अब महज़ उपभोक्ता वर्ग के रूप देखा जाता है. भारत को वैश्विक आर्थिक ताकत के रूप में पेश करने का जो शोर मचाया जा रहा है उसमें सारा ज़ोर फलते-फूलते कुलीन तबके और नई खोज करते तकनीकी केंद्रों पर है, जबकि देश के मिडिल-क्लास की लगभग कोई चर्चा नहीं की जाती.

हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़, मिडिल-क्लास उपभोग, आर्थिक वृद्धि, और सामाजिक स्थिरता में अहम योगदान देता है.

फिर भी, ऐसी केंद्रीय भूमिका निभाने वाला मिडिल-क्लास बढ़ती महंगाई, बेहतरीन ज़रूरी सेवाओं के अपनी पहुंच से दूर होते जाने और अपनी आकांक्षाओं के प्रति इस आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के प्रतिकूल रुख के कारण परेशान है.

भारतीय मिडिल-क्लास के सपने

भारतीय मिडिल-क्लास को एजुकेशन, मेडिकल सर्विस, ज़मीन के मालिकाना हक और कानून व्यवस्था आदि के मामलों में कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. एक समय था जब एजुकेशन और मेडिकल सेक्टर में प्राइवेट सेवाएं एक ऑप्शन हुआ करती थी मगर वर्तमान में आगे बढ़ने और बेहतरीन ज़िंदगी जीने के लिए यह अब एक ज़रूरत बन गई है, लेकिन कईं मिडिल-क्लास परिवारों के लिए ये सेवाएं आर्थिक रूप से पहुंच से बाहर हैं. पैरेंट्स अपने बच्चों को अच्छी एजुकेशन दिलाने के लिए कर्ज़ लेते हैं या संपत्ति बेचते हैं क्योंकि प्रतिष्ठित संस्थानों की फीस उनके बजट से बाहर होती है. इसी तरह मेडिकल सेवाओं को देखें तो मामूली इलाज भी इतना महंगा हो गया है कि उसका बोझ उठाना परिवारों को भारी पड़ रहा है, खासकर उन परिवारों के लिए जिन्होंने बीमा नहीं कराया है.

पुलिस से वास्ता तो मिडिल-क्लास को तकलीफों को केवल बढ़ाता है. कभी अगर पुलिस थाने जाना पड़ा तो यह जबरन वसूली, गैर-कानूनी हिरासत, दुर्व्यवहार और मानसिक कष्ट का सबब बनता है. जो लोग घूस नहीं दे सकते उनके लिए पुलिस थाना भयानक गुफा जैसा साबित होता है. इससे भी बुरी बात यह है कि जायज़ शिकायतों को भी अक्सर खारिज कर दिया जाता है और इस तरह पुलिस थाने आम नागरिकों के लिए लगभग बेकार, अप्रासंगिक ही साबित होते हैं.

घर बनाना भी एक ऐसी ख़्वाहिश है जिसे पूरा करना मिडिल-क्लास की पहुंच से बाहर है. भारत में ज़मीन-जायदाद के दाम इतने बढ़ गए हैं कि एक आम मिडिल-क्लास आदमी के लिए घर बनाना लगभग नामुमकिन हो गया है, बशर्ते वह उसे वसीयत में न मिला हो. घर खरीने के लिए जो लोग कर्ज़ लेते हैं वो ज़िंदगी भर उसका ब्याज भरते रहते हैं और अक्सर मकान का मालिकाना हासिल करने में उम्र बीत जाती है. जो लोग किसी तरह जायदाद बना भी लेते हैं उन्हें प्रदूषित हवा-पानी और कचरे के ढेर के साथ जीना पड़ता है. परमिट की मुश्किलें, लैंड-माफिया, नौकरशाही अड़चनें उनकी तकलीफों को बढ़ाती हैं. शहरों में मकान इतने महंगे हैं कि लोगों को शहर के बाहरी इलाकों को चुनना पड़ता है, जहां से आने-जाने में काफी समय तो लगता ही है, इसके लिए रोज़ उन्हें पहले से ही बोझ से लदे सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पर निर्भर रहना पड़ता है.

वहीं, भारत की परिवहन व्यवस्था भी उनकी परेशानियां बढ़ाती हैं. शहरों और गांवों की सड़कों का रख-रखाव इतना खराब है और उन पर ट्रैफिक का बोझ बढ़ता जा रहा है. तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण में मोटर वाहनों की बढ़ती संख्या की रफ्तार ने सुविधाओं के विकास की गति को पीछे छोड़ दिया है जिसके कारण ट्रैफिक जाम की समस्या बढ़ गई है. शहरों में प्रवासियों के बढ़ती भीड़ ने सार्वजनिक परिवहन पर बोझ को बढ़ाया है. उदाहरण के लिए मुंबई में लोकल ट्रेनों में बढ़ती भीड़ के कारण जन स्वास्थ्य के लिए खतरे बढ़ गए हैं, जिनके चलते पिछले दो दशकों में 52,000 लोगों की मौत हुई है.

भारत में कामकाज की संस्कृति वैश्विक पैमाने के हिसाब से काम के ज्यादा घंटे और कम सैलरी की वजह से शोषणकारी बनी हुई है. मिडिल-क्लास के कई युवा बेहतर मौकों की तलाश में विदेश जाने के ख्वाब देखते हैं, लेकिन वित्तीय सीमाएं उनके सपनों को ध्वस्त कर देती हैं. पासपोर्ट बनवाने की प्रक्रिया, पुलिस वेरिफिकेशन उनकी परेशानी बढ़ाती है. 2011 के बाद से करीब 20 लाख भारतीयों ने अपनी नागरिकता खत्म कर दी है. जो लोग देश में रह रहे हैं वो बेहतर भविष्य की उम्मीद लगाए रहते हैं, जबकि राष्ट्रीय विमर्श में उनकी आकांक्षाओं और सरोकारों को अक्सर जगह नहीं मिलती.


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सामाजिक असंतोष, राजनीति से अलगाव

भारत का विस्तार करता मिडिल-क्लास अपनी बढ़ती आर्थिक प्रमुखता के बावजूद राजनीति से लापता है. एक समय उसे हाशिये पर पड़ा, राजनीतिक रूप से महत्वहीन तबका माना जाता था, जो आज़ादी के बाद राजनीति से लगभग कट गया था, लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद के दौर में इसका नाटकीय विस्तार हुआ और यह तबका एक ताकतवर चुनावी ताकत के रूप में उभरा.

फिर भी, अपने बढ़ते राजनीतिक महत्व के बावजूद मध्यवर्ग राजनीतिक विमर्श में खुद को अक्सर हाशिये पर पड़ा महसूस करता रहा है. महंगाई, रोज़गार सुरक्षा, उत्तम सार्वजनिक सेवाओं आदि से जुड़े उसके आर्थिक सरोकारों को तो अधूरा छोड़ ही दिया गया है, राजनीतिक पार्टियां आर्थिक मसलों की अनदेखी करते हुए अक्सर सांकेतिक एवं पहचान संबंधी मसलों को ही प्राथमिकता देती रही हैं.

इस उपेक्षा से निराशा का भाव उपजा है, जो चुनावों में कॉर्पोरेट फंडिंग की बढ़ती प्रमुखता के कारण और गहरा हुआ है. इससे यह धारणा और मजबूत हुई है कि राजनीतिक व्यवस्था का झुकाव व्यापक जनता की ओर नहीं बल्कि अमीर कुलीनों के हितों की रक्षा की ओर बढ़ा है. इसके अलावा, भारत के आर्थिक रूप से वंचित समूहों के लिए राजनीतिक रणनीति उनका वोट खींचने के लिए उन्हें नकदी भुगतान, जनकल्याण योजनाओं, और ठोस लाभों के वितरण पर केंद्रित रही है. इन लोकलुभावन उपायों से तात्कालिक चिंताएं तो दूर होती हैं, लेकिन ऐसा दीर्घकालिक समाधान नहीं मिलता जिससे मिडिल-क्लास को उसकी उम्मीद के मुताबिक, आर्थिक स्थिरता और वृद्धि हासिल हो.

ऐसा लगता है कि सरकार के राजनीतिक गणित में समृद्ध और वंचित तबकों के हित ही शामिल हैं, मिडिल-क्लास लगभग उपेक्षित है. बढ़ती राजनीतिक उपेक्षा ने मिडिल-क्लास में अलगाव की भावना भर दी है और उसके मन में उस राजनीतिक व्यवस्था में अपनी भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं जिसे उसके सरोकारों की परवाह नहीं है.

मिडिल-क्लास की वकालत ज़रूरी

भारत जबकि विकास के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है, ऐसे राजनीतिक संगठनों और पैरोकारों की ज़रूरत है जो खासतौर से इस तबके के सरोकारों को सुलझाएं और स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करें. मिडिल-क्लास में पनपते अलगाव को रोकने के लिए आर्थिक नीति, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, रोज़गार सुरक्षा और इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे मसलों को प्राथमिकता देना ज़रूरी है क्योंकि इस समूह में भारत को समृद्ध भविष्य की ओर ले जाने की क्षमता है. इन सरोकारों की उपेक्षा से न केवल देश की आर्थिक प्रगति की रफ्तार धीमी होगी बल्कि इस अहम तबके का मोहभंग भी होगा.

एक संभव समाधान यह हो सकता है कि मिडिल-क्लास के लिए एक प्रेशर ग्रुप का गठन किया जाए. यह वैसा ही हो सकता है जैसे कि किसानों, अल्पसंख्यकों, दलितों, ओबीसी, और आदिवासी समुदायों की पैरवी के लिए गठित नेटवर्क हैं. राजनीतिक मोहभंग और कथित विश्वासघात के इतिहास के मद्देनज़र मिडिल-क्लास पारंपरिक राजनीतिक दलों से जुड़ने में हिचक सकता है. इस संदर्भ में, एक गैर-राजनीतिक संगठन मिडिल-क्लास के सरोकारों को स्पष्ट करने और उनके पक्ष में वातावरण बनाने के मंच का काम कर सकता है. समय बीतने के साथ यह मुहिम भरोसा, उम्मीद और विश्वास जगा सकता है जिसके कारण एक ऐसी राजनीतिक शक्ति उभर सकती है जो इस वर्ग के हितों को आगे बढ़ाए और चुनावी नतीजों को प्रभावित करे.

इस पहल से भारतीय राजनीति में एक बुनियादी बदलाव आएगा जो धर्म, जाति और भाषा के गहरे विभाजनों से आगे बढ़कर आकांक्षाओं और विकास पर केंद्रित राजनीति को आगे बढ़ाएगा. यह मुहिम मिडिल-क्लास की आवाज़ को बुलंद करते हुए जनसंख्या के मामले में भारत की बढ़त का लाभ उठाएगी और इस अहम तबके की ज़रूरतों को अंततः पूरा करेगी. ऐसे ही बदलाव के जरिए भारत अपने मिडिल-क्लास की समृद्धि को सुरक्षा प्रदान कर सकता है और उसे देश के आर्थिक विकास तथा सामाजिक एकता में सार्थक योगदान देने के लिए सक्षम बना सकता है.

(कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका एक्स हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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