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Thursday, 9 May, 2024
होममत-विमत'पश्चिम की कथनी-करनी में अंतर है' अब भारत की विदेश नीति है, पर दिल्ली भी इससे अछूता नहीं है

‘पश्चिम की कथनी-करनी में अंतर है’ अब भारत की विदेश नीति है, पर दिल्ली भी इससे अछूता नहीं है

सीधी-सच्ची बात यह है कि उभरते देशों के लिए भारत द्वारा समर्थन किए जाने के मूल में, बीजिंग से आगे निकलने की इच्छा है. इसे नैतिक दावों की आड़ में छिपाना भी कम पाखंड नहीं है.

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भारतीय विदेश नीति प्रबंधक पश्चिमी पाखंड और दोहरे मानकों पर जो आक्रोश दिखाते हैं, वह अधिक कठोर यथार्थवादी दृष्टिकोण की ओर बदलाव के उनके कुछ दावों को झुठलाता है. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने खुद हाल ही में कहा था कि यह “बहुत हद तक दोहरे मानकों (डबल स्टैंडर्ड) की दुनिया” है. पश्चिम पर पाखंड करने का आरोप लगाना घरेलू स्तर पर लोकप्रिय हो सकता है, लेकिन अन्य प्रश्न भी हैं जिन पर विचार किया जाना चाहिए. दूसरों को पाखंडी कहना आम तौर पर खुद को नैतिक दिखाने का एक तरीका है और कमजोर इसका सहारा लेते हैं, यही कारण है कि मजबूत शक्तियां शायद ही कभी इसका सहारा लेती हैं.

मुद्दा यह नहीं है कि कथनी-करनी में अंतर वाला व्यवहार अनुभवजन्य रूप से उचित नहीं हैं. ऐसा अक्सर होता है. राज्य अक्सर उन सिद्धांतों की घोषणा करते हैं जिन पर वे खरे नहीं उतरते. लेकिन अधिक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या दूसरों पर “दोहरे बर्ताव (डबल स्टैंडर्ड)” का आरोप लगाना एक उपयोगी रणनीति है.

भारतीय विदेश नीति का अभिशाप

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में कथनी-करनी में अंतर होता ही है, जिससे भारतीय विदेश नीति के कथित यथार्थवादी मैनेजर्स का यह आक्रोश कुछ हद तक आश्चर्यजनक लगता है. यह या तो अत्यधिक भोलेपन या समझदार नीति विकल्पों की कमी का संकेत देता है, जो दोनों ही परेशान करने वाले हैं. हालांकि भोलेपन को अभी भी नज़रअंदाज किया जा सकता है, लेकिन समझदार नीति विकल्पों की कमी बताती है कि भारत की विदेश नीति बार-बार खुद को ऐसे बिंदु पर पा रही है जहां से सारे रास्ते बंद हैं. और इसलिए इस तरह के नैतिकता-प्रेरित आरोप लगाने का सहारा ले रही है.

निःसंदेह, कथनी-करनी में अंतर के आरोप का रणनीतिक रूप से उपयोग करने में कुछ भी गलत नहीं है. यह दूसरे पक्ष को बचाव की मुद्रा में ला सकता है और मौजूदा मुद्दे से ध्यान भटका सकता है. लेकिन आरोप विवेकपूर्ण ढंग से लगाया जाना चाहिए. यदि इसका उपयोग हर बार किया जाता है तो इसका महत्त्व कम हो जाता है. पिछले साल में, भारतीय अधिकारियों ने यूक्रेन युद्ध, तथाकथित ‘ग्लोबल साउथ’ के साथ अधूरे वादे और हाल ही में कनाडा के साथ टकराव जैसे असमान मुद्दों पर इस आरोप को कई बार दोहराया है.

कथनी-करनी में अंतर के बार-बार लगाए जाने वाले आरोप थका देने वाले हैं, क्योंकि वे नैतिक श्रेष्ठता के अंतर्निहित दावे पर आधारित हैं. यह लंबे समय से भारतीय विदेश नीति के लिए अभिशाप रहा है, और यह निराशाजनक है कि नई दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी की इस विरासत से उबर नहीं पाई है. किसी को भी आलोचना पसंद नहीं है और इस युक्ति के अत्यधिक उपयोग की स्वाभाविक प्रतिक्रिया यह है कि अन्य लोग आसानी से चुप हो जाते हैं. आज़ादी के बाद पहले कई दशकों में भारतीय विदेश नीति के साथ यही हुआ – भारत ने व्यावहारिक वास्तविकताओं या यहां तक कि अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर नैतिक टिप्पणी करने वाले देश के रूप में प्रतिष्ठा हासिल की. इसका एक बेहतरीन उदाहरण हैं, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा वियतनाम को लेकर अमेरिका पर टिप्पणी करना जिसकी वजह से 1960 के दशक के अंत में भारत में अमेरिकी अनाज का शिपमेंट जोखिम में पड़ गया था.

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भारत इससे अछूता नहीं है

दूसरों पर दोहरे मापदंड का आरोप लगाना विशेष रूप से समस्याग्रस्त है, क्योंकि उसी तरह के आरोप लगाकर जवाब देना आसान है. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में दोहरे मापदंड अपनाया जाना आम बात है और भारत इस प्रवृत्ति से शायद ही अछूता है. उदाहरण के लिए जब उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मदद करने या अनाज और तेल की कीमतों पर ध्यान देने की बात आती है तो पश्चिम के खिलाफ भारत के आरोपों को लें. सीधी सच्ची बात यह है कि इन देशों के लिए भारत के समर्थन के कैंपेन के मूल में कोई उच्च नैतिक प्रतिबद्धता वाली बात नहीं है, बल्कि दिल्ली की बीजिंग से आगे निकलने की इच्छा है. यह प्रभाव और पावर के लिए सीधी प्रतिस्पर्धा है जो कि समझ में आती है. इसे नैतिक दावों का आड़ में छिपाना भी कम पाखंड नहीं है.

या यूक्रेन पर रूसी आक्रमण पर भारत की प्रतिक्रिया के बारे में सोचें, जिसे दिल्ली ने अभी तक “आक्रमण” के रूप में वर्णित भी नहीं किया है. भारत को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय संप्रभुता का ढोल पीटने का शौक है, लेकिन वह इस बात को नजरअंदाज कर देता है कि रूस ने उसके छोटे, कमजोर पड़ोसी की स्थापित सीमाओं पर आक्रमण किया है. भारत ने अपनी आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए आक्रमण के प्रति अपनी प्रतिक्रिया को यथार्थवादी, “बहुत गहरे हितों का परिणाम” बताया. भले ही भारत की प्रतिक्रिया उचित थी या नहीं, अधिक बुनियादी बात यह है कि यह स्पष्ट रूप से दोहरे मानदंड वाली थी क्योंकि इसने क्षेत्रीय संप्रभुता के मूल मूल्यों का उल्लंघन किया था जिसे दिल्ली जोर-शोर से और अक्सर महत्त्वपूर्ण मानने का दावा करती है.

भारतीय विदेश नीति के सबसे पवित्र उद्देश्यों में से एक को लें – आतंकवाद के खिलाफ सामूहिक अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई की आवश्यकता और विशेष रूप से, आतंकवाद के समर्थक देशों को अलग-थलग करना. एक सिद्धांत के रूप में, उद्देश्य शायद ही आपत्तिजनक है. लेकिन आखिरी बार भारत ने ईरान की कब आलोचना की थी, जो शायद दुनिया का सबसे बड़ा राज्य समर्थित आतंकवाद को बढ़ाने वाला और साथ ही हिज़बुल्लाह जैसे आतंकवादी समूहों का समर्थक है.

संयुक्त राष्ट्र समर्थित जांच में हिजबुल्लाह पर काफी विश्वास के साथ लेबनान के पूर्व प्रधानमंत्री रफीक हरीरी (21 अन्य निर्दोषों के साथ) की हत्या और कई अन्य आतंकवादी गतिविधियों में हाथ होने का आरोप लगाया गया है. ईरान की आलोचना करने की बात तो दूर, भारत लगातार तेहरान के एक रणनीतिक साझेदारी करने में लगा है. राजनीति या कूटनीति का हवाला देकर दिल्ली के कारण उचित हो भी सकते हैं और नहीं भी, लेकिन अपने खुद के सिद्धांतों को दरकिनार करने की वजह से, भारत के ऊपर खुद भी वही आरोप लग सकते हैं जो यह दूसरों पर लगाता है.

भारत के साथ यह एक अन्य समस्या है जो कि नैतिक मूल्य के दावों और व्यावहारिक औचित्यों के बीच झूलती रहती है, क्योंकि सामयिक नैतिकता से अधिक बडा पाखंड कुछ भी नहीं है, जिसे ही पाखंड कहा जाता है.

दिल्ली को पश्चिमी दोहरे-मापदंड की ज़रूरत है

व्यावहारिक स्तर पर, दोहरे मापदंडों के आरोप इस तथ्य को दरकिनार कर देते हैं कि भारत को पश्चिमी पाखंड की आवश्यकता है. इसके बिना पश्चिम के उदारवादी समाजों के भारत के साथ साझेदारी करने की संभावना नहीं है. जैसा कि पश्चिमी उदारवादी आलोचक तेजी से इंगित कर रहे हैं, भारत के साथ पश्चिम की साझेदारी उन कई मूलभूत मूल्यों का उल्लंघन करती है जिन्हें वे प्रिय मानते हैं. यदि पश्चिम वास्तव में अपने घोषित मूल्यों पर खरा उतर रहा होता, तो भारत के साथ कोई साझेदारी नहीं होती.

बेशक, यह दूसरे तरीके से भी काम करता है. यदि भारत अपने पश्चिम-विरोधी, उत्तर-उपनिवेशवादी, “वैश्विक दक्षिण” मूल्यों पर कायम रहता, तो वह पश्चिम के साथ भी साझेदारी नहीं करता. सभी अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों की तरह, भारत-पश्चिम साझेदारी सुविधा की साझेदारी है, साझा मूल्यों की नहीं. इस साझा पाखंड को हमेशा के लिए स्वीकार करना बेहतर हो सकता है.

इससे यह भी पता चलता है कि जितनी यह सुविधा की साझेदारी है, उतनी ही यह एक आवश्यकता भी है. पश्चिम के खिलाफ भारत के लगातार आरोप सही साबित हो रहे हैं और चीन को आरामदायक स्थिति प्रदान करना भी इस साझेदारी के लिए चिंता का विषय होना चाहिए.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. उनका एक्स हैंडल @RRajagopalanJNU है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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