चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को सात चरणों में पश्चिम से शुरू करके पूरब तक करवाने का कार्यक्रम क्यों बनाया? बीजेपी के कई नेता और कई राजनीतिक जानकार यह सोच रहे थे कि शासक दल विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लेने के बावजूद यही चाहेगा कि उसे कुछ और समय मिल जाए ताकि जाट किसानों का गुस्सा और शांत हो. आखिर, उत्तर प्रदेश के ‘जाटलैंड’ के लोग गन्ने के रस का गिलास लेकर बीजेपी नेताओं के स्वागत के लिए खड़े नहीं नजर आ रहे हैं. तो, मतदान की शुरुआत उस क्षेत्र से क्यों की जाए जहां की हवा बीजेपी के लिए माफिक न हो? इसकी शुरुआत पूरब से क्यों न की जाए ताकि ऐसी गति हासिल हो कि जब अंत में पश्चिम में पहुंचे तब तक अगर कोई नामाफिक हवा हो भी तो उसका सामना किया जा सके?
चुनाव आयोग ने जब तारीखों की घोषणा कर दी है तब ऐसे सवाल बेमानी लग सकते हैं. वह इसकी चिंता क्यों करे कि बीजेपी के लिए क्या मुफीद होगा और क्या नहीं? क्या चुनाव आयोग एक स्वायत्त संस्था नहीं है? और केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के अध्यक्ष रह चुके मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्र बेहतर जानते होंगे कि राजनीतिक दबावों से कैसे निबटा जा सकता है. चुनाव आयोग के बचाव में कहा जा सकता है कि उसने पिछले चुनावों के, पश्चिम से पूरब की ओर बढ़ने के क्रम को बनाए रखते हुए ऐसा किया. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनाव में इसी क्रम को अपनाया गया था. अब इसे संजोग कह सकते हैं कि यह तब बीजेपी के लिए अनुकूल साबित हुआ. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद पश्चिम यूपी के जाट बीजेपी के पक्ष में हो गए थे और उन्होंने चुनाव के शुरुआती चरणों में ही उसे बड़ी बढ़त दिला दी थी.
लेकिन 2022 के चुनाव की पृष्ठभूमि अलग है.
गन्ने की कीमतों और बकाए के अलावा बिजली बिल को लेकर किसानों में सुलगते गुस्से का इस्तेमाल करते हुए राकेश टिकैत जैसे नेताओं ने उन्हें केंद्र सरकार के तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों के खिलाफ आंदोलित किया. मोदी सरकार ने उन्हें वापस तो ले लिया मगर किसानों के असंतोष को पूरी तरह से शांत नहीं कर पाई. इसने आरएलडी नेता जयंत चौधरी को अपने दादा चौधरी चरण सिंह और पिता अजित सिंह की राजनीतिक विरासत को फिर से मजबूत करने का मौका दिया. पश्चिम यूपी के ब्रज और रोहिलखंड क्षेत्रों के 26 जिलों में विधानसभा की 136 सीटें पड़ती हैं. चुनाव आयोग ने इन क्षेत्रों में शुरू के तीन चरणों में चुनाव कराने की घोषणा की है. किसानों के आंदोलन की गूंज इस क्षेत्र के बड़े हिस्से में सुनाई देती रही है इसलिए यूपी में बीजेपी के कुछ नेता चाहते थे कि मतदान की शुरुआत पूर्वी उत्तर प्रदेश से हो. यह और बात है कि केंद्रीय नेतृत्व उनसे सहमत नहीं था.
अब, बीजेपी के नेता इसकी कई सकारात्मक बातें बता रहे हैं. एक ने कहा, ‘किसानों के गुस्से का चुनाव के शुरू में ही सामना कर लेना बेहतर होगा.’ दूसरे नेता ने कहा, ‘हमने अपने उम्मीदवारों की सूची तैयार कर ली है जबकि वे (जयंत चौधरी और एसपी नेता अखिलेश यादव) अभी इसी में उलझे हैं कि कौन किस सीट पर लड़ेगा. इसलिए हमने बढ़त ले ली है.’ तीसरे नेता का, जो योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री हैं, कहना था कि ‘अगर हमने पूरब से शुरुआत की होती तो इससे संकेत जाता कि हममें आत्मविश्वास की कमी है. हकीकत यह है कि हम चुनाव में सबका सफाया कर देंगे. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम पश्चिम से शुरू कर रहे हैं या पूरब से.’
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बीजेपी का चुनावी नारा: 80 फीसदी बनाम 20 फीसदी
शनिवार को चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तारीखों की घोषणा से पहले योगी ने जो बयान दिया उससे संकेत मिलता है कि पश्चिम से शुरू करके पूरब तक चुनाव कराना बीजेपी के एजेंडा के लिए क्यों मुफीद है. मुख्यमंत्री ने कहा कि यूपी के चुनाव ’80 फीसदी बनाम 20 फीसदी के बीच’ होंगे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 जनवरी को मेरठ में जो भाषण दिया उसने भी खुलासा किया. ‘हिंदू’ अखबार की खबर के अनुसार उन्होंने कहा, ‘महिलाओं पर अश्लील फब्तियां कसी जाती थीं; दंगों के दौरान लोगों के घर जलाए जाते थे और लोगों को अपना घर-बार छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता था. बीजेपी की सरकार अब वैसे अपराधियों के साथ जेल-जेल खेल रही है.’ वे अप्रत्यक्ष रूप से 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों और कैराना समेत आसपास के लोगों के पलायन का जिक्र कर रहे थे. गृह मंत्री अमित शाह भी कैराना से लोगों के पलायन का जिक्र अपनी चुनावी सभाओं में करते रहे हैं.
आगामी सप्ताहों में इस तरह की राजनीतिक बयानबाजी और तीखी होने वाली है क्योंकि पश्चिमी यूपी की आबादी का स्वरूप इसके लिए सहज मंच उपलब्ध कराता है. इस क्षेत्र की करीब 25 फीसदी आबादी मुसलमानों की है. रोहिलखंड क्षेत्र के रामपुर और मोरादाबाद जैसे कुछ इलाकों में तो करीब 50 फीसदी आबादी मुसलमानों की है. असदुद्दीन ओवैसी जैसे तेजतर्रार मुस्लिम नेता जिनकी ‘ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन’ (एआइएएमआइएम) यहां करीब 100 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है, जो बीजेपी नेताओं की आंखों में चमक ला सकते हैं.
ध्रुवीकरण की राजनीति योगीत्व के लिए खतरा
मतदान पश्चिम से शुरू करके पूरब की ओर जाना कुल मिलकर बीजेपी के हिंदुत्ववादी एजेंडा के मुफीद बैठता है. योगी के विकासवादी एजेंडा का अब कोई जिक्र नहीं है. न ही उस सोशल इंजीनीयरिंग की बात की जाती है जिसे अमित शाह ने बड़ी मेहनत से अलग जातियों और उप-जातियों के नेताओं को एनडीए की छतरी के नीचे लाकर, पिछड़े वर्गों और दलितों के कुछ तबकों की ओर हाथ बढ़ाकर 2014 में लागू किया था. अब चुनाव के लिए हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को पश्चिम से शुरू करके दूसरे क्षेत्रों में ले जाने का एजेंडा है.
यह एजेंडा यूपी के चुनाव के नतीजे को तो प्रभावित करेगा ही, योगीत्व को कमजोर भी करेगा जो कि मोदीत्व से उपजा है, जिसे हिंदुत्व का आधार लिए विकास के एजेंडा का प्रतीक माना जाता है. 2002 के गोधरा दंगों के बाद मोदी के लिए जिस घिसे-पिटे जुमले ‘हिंदू हृदयसम्राट’ का इस्तेमाल किया जाने लगा था उसने 2013 तक, जब तक गुजरात के मुख्यमंत्री ने खुद को राष्ट्रीय भूमिका के लिए प्रस्तुत किया, एक बृहत शख्सियत का स्वरूप ग्रहण कर लिया था. इस शख्सियत को निःस्वार्थ परोपकार और जनकल्याणवाद से परिभाषित किया जाने लगा था. योगी खुद को मोदी के सांचे में ढाल रहे थे और चार साल में ही वह कर लेना चाहते थे, जो मोदी ने दस साल किया— अपनी छवि बदल डालना. योगी ने रोमियो विरोधी दल के गठन और कसाईखानों को बंद कराने की मुहिम से शुरुआत भले की हो मगर वे जल्दी ही वे दूसरा मोदी बनने में जुट गए और इस धुन में अपने पिता की अन्त्येष्टि में भी न जाने का फैसला किया क्योंकि जैसा कि उन्होंने अपनी माताजी को लिखा, उन्हें प्रदेश के 23 करोड़ की सेवा करनी है, जो महामारी का सामना कर रहे हैं. मोदी की तरह वे अपनी निजी छवि पर कोई दाग नहीं लगने दे सकते. वे चाहते हैं कि उनके प्रशासन को इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास से—आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे, पूर्वांचल एक्सप्रेसवे, बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे, गोरखपुर लिंक और गंगा एक्सप्रेसवे के निर्माण से— और अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई और जनकल्याण के उपायों से परिभाषित किया जाए. चुनाव से पहले उनकी सरकार के विज्ञापनों पर गौर कीजिए. उनमें सिर्फ यह बताया गया है कि विकास के मोर्चे पर उनकी सरकार की क्या-क्या उपलब्धियां हैं.
छवि निर्माण की उनकी कोशिशों से आप सहमत हों या नहीं, हकीकत यह है कि वो भावी मोदी बनने की जोरदार कोशिश कर रहे थे लेकिन योगी और उनके वरिष्ठ पार्टी नेताओं के ताजा बयानों से यही संकेत उभरता है कि पश्चिम से पूरब की ओर घूमता पहिया खालिस ध्रुवीकरण की राजनीति की मंशा ही उजागर कर रहा है.
योगी अगर 10 मार्च को चुनाव नतीजे आने के बाद भी सत्ता में बने रहे तो भी उन्हें इसका अपेक्षित श्रेय नहीं मिलने वाला है. नवंबर के बाद से अब तक यूपी में 14 चुनाव सभाओं और रैलियों को संबोधित कर चुके मोदी ही अगर प्रदेश के चुनावी चेहरे हैं और हिंदू-मुस्लिम सियासत ही अगर प्रमुख चुनावी रणनीति है तो फिर योगी और बीजेपी के दूसरे मुख्यमंत्रियों में क्या अंतर है? बीजेपी किसी संजीव बालयान या संगीत सोम या अजय मिश्र टेनी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा सकती है या निरंजन ज्योति या किसी और भगवाधारी नेता को भी. इसका मतलब यह नहीं है कि बीजेपी योगी को फिर से मुख्यमंत्री बनाने पर पुनर्विचार कर रही है. यह सिर्फ इस बात को रेखांकित करने की कोशिश है कि किस तरह योगी यूपी में बीजेपी के व्यापक चुनावी एजेंडा के लिए ‘अहम’ नहीं रह गए हैं. वो दूसरे किसी राज्य के किसी भाजपाई मुख्यमंत्री बनकर रह गए हैं जिसकी सियासी तकदीर मोदी की व्यापक लोकप्रियता और हिंदुत्व को मुख्य आक्रामक मुद्दा बनाए रखने पर निर्भर है.
कभी योगी आदित्यनाथ, उनकी शख्सियत और विकास के उनके एजेंडा के इर्द गिर्द केन्द्रित रहा यूपी चुनाव अब तेजी से मोदी के चुनाव में परिवर्तित होता जा रहा है और यह शाह के लिए यह दिखा देने का मौका बनता जा रहा है कि आखिर मोदी ने उन्हें 2014 में जब वे यूपी के प्रभारी पार्टी महासचिव थे तब ‘मैन ऑफ द मैच’ क्यों कहा था और योगी उनके साथ खेलने के सिवा कुछ नहीं कर सकते.
डी.के. सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त विचार निजी हैं.
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