खुद हिसाब लगाकर देखें. भाजपा को 2014 की अपनी सफलता का खामियाज़ा भुगतना होगा.
हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा को राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मिली हार, मध्य प्रदेश में कड़े मुक़ाबले में हुई पराजय और तेलंगाना और मिज़ोरम में उसके प्रभावहीन प्रदर्शन ने विपक्ष में, ख़ास कर कांग्रेस पार्टी में उत्साह का संचार कर दिया है.
विगत में भाजपा के आलोचक तक भाजपा के पक्ष में ‘टिना (देयर इज़ नो अल्टरनेटिव)’ यानि विकल्पहीनता की, या कम से कम कोई विश्वसनीय विकल्प नहीं होने की दलील दे रहे थे. लेकिन अब आम धारणा 2019 के आम चुनाव में विपक्ष की जीत को लेकर है, जिसमें कांग्रेस पार्टी की केंद्रीय भूमिका होगी. अब निराशावाद से कहीं ज़्यादा ख़तरा आत्मसंतुष्टि का हो गया है.
क्या यह महज़ आशावाद है? कई विशेषज्ञ आगाह कर रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी आज वैसी ही गलती कर सकती है, जैसी अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में की थी- उस साल कुछ चुनावों में पार्टी को मिली जीत को लेकर कुछ ज़्यादा ही आश्वस्त होने की गलती. अपनी जीत से उत्साहित होकर 2004 में उन्होंने समय पूर्व चुनाव कराया, जिसमें उसे हार का सामना करना पड़ा. 15 साल बाद उसी तरह गलत आकलन तो नहीं कर रहे?
मुझे नहीं लगता. विभिन्न अंतर्निहित कारकों की बुनियाद पर मुझे यक़ीन है कि भाषणकला और राजनीति संबंधी तमाम कुशलताओं के बावजूद नरेंद्र मोदी मई 2019 के अंत तक भारत के प्रधानमंत्री नहीं रह जाएंगे.
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सर्वप्रथम, मुझे साफ दिख रहा है कि भाजपा 2014 की अपनी खुद की सफलता का शिकार बनेगी. पार्टी ने तब विभिन्न राज्यों में जीत कर कुछ ज़्यादा ही बढ़िया प्रदर्शन किया था, जिसे वह शायद दोहरा नहीं पाएं. उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में उसे 71 सीटों पर जीत (सहयोगी अपना दल को भी दो सीटें) मिली थी. तब मोदी लहर अपने चरम पर थी, और लोग यह मानने को तैयार थे कि गुजरात प्राइवेट लिमिटेड का मेहनती सीईओ उनकी किस्मत भी बदल देगा और कानपुर से वाराणसी तक के बेरोज़गार युवा नौकरियां दिए जाने के वादों पर भरोसा कर रहे थे. उन वादों को पूरा नहीं किया गया. हर तरफ मोहभंग की स्थिति है. नौकरी की उम्मीद में मोदी को वोट देने के बाद अब तक बेरोज़गार बैठे युवाओं में से एक भी भाजपा को दोबारा वोट नहीं देगा. अच्छे दिन नहीं आए. मोदी लहर ख़त्म हो चुकी है.
और 2014 के विपरीत, विपक्ष इस बार अपने वोटों में बिखराव नहीं होने देगा.
मायावती की बसपा तब 19.6 प्रतिशत मत हासिल करने के बावजूद एक भी सीट नहीं बचा सकी थी. उनके समर्थक मतदाता पूरे प्रदेश में एक समान फैले हुए थे. वह जानती हैं कि अपने उस मूल समर्थन आधार में और मतों को जोड़कर ही वह संसद में सीटों से मिलने वाली ताक़त हासिल कर सकती हैं. इसी कारण अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोक दल से उनका गठजोड़, जिसे यूपी के पिछले तीन उपचुनावों में शानदार जीत हासिल हुई. यह इतना टिकाऊ नज़र आता है कि ऐसे किसी गठजोड़ में कांग्रेस के 10 प्रतिशत मतों को जोड़ दें-यदि अन्य पार्टियां देश की सबसे पुरानी पार्टी से जुड़ने की बुद्धिमानी दिखाती हैं – तो इस गणित को नज़रअंदाज़ करना असंभव हो जाता है. ऐसे गठबंधन के होते भाजपा के लिए यूपी में 10 सीटें जीतना भी बड़ी बात होगी.
आप हिंदी पट्टी में चारों ओर नज़र दौड़ाएं तो भाजपा के लिए स्थिति और भी बुरी दिखती है. पार्टी को 2014 में राजस्थान की सभी 25 सीटों, उत्तराखंड की सभी 5 सीटों, दिल्ली की सभी 7 सीटों और हिमाचल प्रदेश की सभी 4 सीटों पर जीत हासिल हुई थी; साथ ही उसने मध्य प्रदेश की 29 में से 27, हरियाणा की 10 में से 7, छत्तीसगढ़ की 11 में से 10 और झारखंड की 14 में से 12 सीटें जीती थी. भाजपा का अत्यंत कट्टर समर्थक भी आज स्वीकार करेगा कि अनुकूल परिस्थितियों में भी पार्टी के लिए इस प्रदर्शन को दोहराना संभव नहीं होगा. जबकि सच्चाई ये है कि इन राज्यों में भाजपा बड़ी मुश्किल में है, जैसा कि हाल के विधानसभा चुनावों में दिखा भी. अधिकांश तटस्थ प्रेक्षकों का मानना है कि संभवत: एक मध्य प्रदेश को छोड़कर, भाजपा इन सभी राज्यों में अधिकांश सीटें गंवाएगी; मध्य प्रदेश में भी उसके कब्ज़े से लगभग आधी सीटें निकल सकती हैं. भाजपा के लिए इन आठ राज्यों की 105 सीटों में से 45 सीटें निकाल लेना भी भाग्य की बात होगी. अधिकांश चुनावी विशेषज्ञ निजी बातचीत में पार्टी को इससे भी कम सीटें मिलने की संभावना जताते हैं.
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भाजपा के लिए बुरा समाचार यहीं ख़त्म नहीं हो जाता. बिहार में 2014 में उसने 40 में से 22 सीटें जीती थी; इस बार उसे दर्जन भर से ज़्यादा सीटों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए – इतना भी जद (यू) से गठबंधन की बदौलत. गुजरात में उसने 26 सीटों पर कब्ज़ा किया था; पिछले साल के विधानसभा चुनावों से साफ है कि इनमें से आधी सीटें उसके हाथ से जाने वाली हैं. कर्नाटक में पिछले आम चुनाव में भाजपा को 28 में से 17 सीटें मिली थीं; 2019 में वो 7 सीटें भी बचा लें तो बड़ी बात होगी. ये सारे कच्चे अनुमान हैं – भारत के विविधता भरे जटिल चुनावी परिदृश्य में तथाकथित ‘वैज्ञानिक’ रायशुमारियों का कोई बढ़िया रिकॉर्ड नहीं है – पर जो भी हो, इनमें भाजपा के प्रति उदारता दिखाई गई है. (उदाहरण के लिए बिहार में, जहां मेरी राय में भाजपा को दर्जन भर सीटें मिलेंगी, वास्तव में नीतीश कुमार की अवसरवादी राजनीति की व्यापक अलोकप्रियता के मद्देनज़र कइयों की भविष्यवाणी कांग्रेस-राजद गठबंधन की एकतरफा जीत की है.)
इसलिए इन 12 अहम राज्यों में, जहां से 2014 में भाजपा की 282 में से 233 सीटें आई थीं, नरेंद्र मोदी की सत्तारूढ़ पार्टी करीब 150 सीटें गंवा सकती है, जैसा कि ऊपर वर्णित है. भाजपा इन नुकसानों की भरपाई कहां से कर सकती है?
पार्टी नेता ढिठाई से पश्चिम बंगाल, ओडिशा, पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में सीटें जीतने की बात करते हैं. जबकि न तो पश्चिम बंगाल की 42 सीटों में से पिछली बार भाजपा की 2 के मुक़ाबले 34 सीटें जीतने वाली ममता बनर्जी, न ही ओडिशा में भाजपा की इकलौती सीट के मुक़ाबले 20 सीटों पर बीजेडी को जीत दिलाने वाले नवीन पटनायक कहीं से कमज़ोर नज़र आते हैं. पूर्वोत्तर के सात राज्यों में कुल मिलाकर मात्र 24 सीटें हैं; और क्षेत्र में पार्टी की हाल में बढ़ी लोकप्रियता के बावजूद क्षेत्रीय दलों की ताक़त को देखकर यही लगता है कि भाजपा वहां अधिकतम 14 या 15 सीटें जीत पाएगी. दक्षिण भारत की बात करें तो भाजपा को आंध्र प्रदेश में पूर्व सहयोगी चंद्रबाबू नायडू के सहारे जीती सीटें गंवानी पड़ेंगी, क्योंकि नायडू ने भाजपा से पीछा छुड़ा लिया है. दक्षिण भारत में और भी कहीं पार्टी को खास बढ़त मिलने की उम्मीद नहीं है.
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अब खुद हिसाब लगाएं, जैसा कि मास्टर साब कहते हैं: आप सारे प्लस और सारे माइनस को एक करें, भाजपा देशभर में 145 सीटों से अधिक नहीं जीत रही. यदि पार्टी हर संभावित सहयोगी दलों को अपने साथ ले आती है– शिव सेना, अकाली दल, जद(यू), और यदि आप दूर की कल्पना करें तो शायद वायएसआर कांग्रेस, और संभवत: तमिलनाडु का रजनीकांत-अन्नाद्रमुक गठजोड़– तो भी वे सामूहिक रूप से इतनी सीटें नहीं दे पाएंगे कि जिससे कोई फर्क पड़ सके. दीवार पर लिखी इबारत स्पष्ट है: स्वागत 2019, अलविदा नरेंद्र मोदी.
(डॉ. शशि थरूर तिरुवनंतपुरम से संसद सदस्य हैं और पूर्व में विदेश मामलों एवं मानव संसाधन मंत्रालय के राज्यमंत्री रहे हैं. उन्होंने तीन दशकों तक एक प्रशासक और शांतिदूत के रूप में संयुक्तराष्ट्र के लिए काम भी किया है. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफंस कॉलेज में इतिहास और टफट्स यूनिवर्सिटी में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन किया. थरूर ने फिक्शन एवं नॉन-फिक्शन की कुल 18 किताबें लिखी हैं; उनकी सबसे हालिया किताब ‘द पैराडॉक्सिकल प्राइम मिनिस्टर’ है. आप उन्हें ट्विट्टर हैंडल @ShashiTharoor पर फॉलो कर सकते हैं.)