हाल में सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में एक विद्वान मित्र ने किसी भी सेना के लिए वे 15 सामरिक बातें गिनाई हैं जिनका पालन आज सैन्य टेक्नोलॉजी में भारी विकास के कारण बिलकुल नया रूप ले चुके युद्धक्षेत्र के लिए बेहद जरूरी हैं. ये सबक रूस-यूक्रेन युद्ध और इजरायल-गज़ा/हमास/ईरान युद्ध से हासिल हुए हैं. इन लड़ाइयों में अत्याधुनिक हथियारों और सपोर्ट सिस्टम का सफलता के साथ प्रयोग किया गया है.
मैं यहां इन बुनियादी सामरिक जरूरतों—मसलन फायर पावर, सुरक्षा, और गतिशीलता— से संबंधित बातों की चर्चा करूंगा. सेनाएं अपनी जमीन की रक्षा करने या बड़े स्तर पर दूसरी जमीन पर कब्जा करने के लिए आदिकाल से इन सामरिक उपायों का इस्तेमाल करती रही हैं. टेक्नोलॉजी में तमाम विकास के बावजूद, जमीन की रक्षा या उस पर कब्जा जमीन पर उतरकर ही किया जा सकता है. वैसे, सैन्य टेक्नोलॉजी और इन तीन बुनियादी उपायों का प्रभुत्व कई वर्षों से युद्धनीति को स्वरूप प्रदान करता रहा है.
पारदर्शी युद्धक्षेत्र और PGM की मारक क्षमता
निगरानी और टोही व्यवस्था के उपग्रह, ड्रोन, विमान, रडार, इलेक्ट्रोनिक/साइबर खुफियागीरी जैसे साधनों ने युद्धक्षेत्र को पारदर्शी बना दिया है. ये टेक्नोलॉजी स्थिर और गतिशील लक्ष्यों की सटीक पहचान कर सकती है और उन्हें हवा या जमीन पर तैनात ‘प्रीसीजन गाइडेड म्यूनीशन’ (पीजीएम) से 100 प्रतिशत निशाना बनाया जा सकता है.
इसमें कटौती करने वाली वजहें हैं— संसाधन और लागत, और गतिज युद्ध सामग्री की मारक क्षमता, जो इस बात पर निर्भर करती है कि लक्ष्य को कितनी मजबूत सुरक्षा हासिल है. वैसे, इस सीमा को सस्ते ड्रोनों और गहरी मार करने वाली युद्ध सामग्री के इस्तेमाल से कुछ हद तक तोड़ा जा सकता है.
बचाव के मोर्चे पर हम प्रथम विश्वयुद्ध वाली मशहूर खंदकों और ‘टनेल डिफेंस’ की वापसी भी देख रहे हैं. कमांड व कंट्रोल सिस्टम, फायर कंट्रोल, गाइडेड मिसाइलों/ म्यूनीशनों आदि को नाकाम करने वाली इलेक्ट्रोनिक और साइबर जैमिंग आदि हमलावर पक्ष और बचाव पक्ष के लिए भी खतरे बढ़ा देती है.
ऐसे माहौल में फायर पावर और सुरक्षा तथा बचाव पक्ष को गतिशीलता के मामले में स्पष्ट बढ़त हासिल होती है. हमलावर को जमीन पर कब्जा करने के लिए मजबूरन खुले में आकर कार्रवाई करनी पड़ती है.जब तक सुरक्षा और फायर सपोर्ट का 70-80 फीसदी हिस्सा नष्ट नहीं किया जाता (अतीत में दुश्मन को न्यूट्रलाइज़ करने की स्थिति में आने के लिए इतना करना पड़ता था), तब तक जमीनी हमला सैनिकों और साजसामान को गंवाने के लिहाज से महंगा पड़ता है. यही वजह है कि यूक्रेन या गज़ा में सेनाओं की संयुक्त कार्रवाई (जो द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद भी लड़ाइयों में काफी प्रचलित थी) के बावजूद बड़े भूभाग पर कब्जा नहीं किया जा सका है.
वैसे, बढ़त एक सापेक्ष उपलब्धि है, क्योंकि हमलावर और बचाव पक्ष खुफियागीरी, टोही तथा निगरानी कार्रवाइयों के खिलाफ जवाबी उपाय कर सकते हैं. इलेक्ट्रोनिक तथा साइबर युद्धों, ड्रोन, हवा/जमीन से की जाने वाली मार के खिलाफ सुरक्षा कवच बनाया जा सकता है, जैसा कि यूक्रेन ने कुर्स्क आक्रमण के दौरान बनाया था. लागत और संसाधन इसमें भी कमजोरी की वजह बन सकते हैं.
सार यह कि युद्धनीति में बुनियादी बदलाव आ गया है. विशाल फौजी डिवीजन और कोर आकार की सैन्य टुकड़ी के साथ संयुक्त सैन्य कार्रवाई के दिन गए. अब सारे युद्ध कुशल संयुक्त आर्म्स ब्रिगेड, छोटी यूनिटों और नयी टेक्नोलॉजी के पूर्ण उपयोग के लिए बनाए गए संगठनों की मदद से लड़े जाएंगे.
महंगे बनाम सस्ते वेपन सिस्टम्स
अधिकतर आधुनिक सेनाएं अब तक बहुआयामी टेक्नोलॉजी से लैस अत्याधुनिक वेपन सिस्टम्स का इस्तेमाल करती रही हैं. इनमें उल्लेखनीय उदाहरण हैं— टैंक, थलसेना के युद्धक वाहन, तोपें, एअर डिफेंस सिस्टम्स, हमला और दूसर काम करने वाले हेलिकॉप्टर, सभी तरह के विमान, विमानवाही पोत, जहाज तथा पनडुब्बियां. ये सब अब बहुत ज़्यादा महंगे हो गए हैं और देश के संसाधन को नुकसान पहुंचाते हैं. यूक्रेन युद्ध से स्पष्ट है कि अमीर देश भी इनके मामले में किफायत बरतते हैं.
ताकतवर और अमीर देश महंगी सैन्य टेक्नोलॉजी पर लंबे समय से एकाधिकार रखते थे. इस बीच, कमजोर देशों और नागरिकता विहीन तत्वों को चौथी पीढ़ी की युद्धनीति का इस्तेमाल करते हुए लंबा संघर्ष करना पड़ा जिसके कारण या तो मजबूत देश थक गए या कमजोर पक्ष नष्ट हो गए. चूंकि सैन्य टेक्नोलॉजी का हमेशा दोहरा इस्तेमाल किया जाता रहा है, इसके असैनिक-व्यावसायिक संस्करण को सरल, सस्ता और फौरन उपयोग के काबिल बनाना जरूरी हो गया. यह टेक्नोलॉजी आज बड़े पैमाने पर सस्ती और प्रभावी वेपन सिस्टम्स उत्पादित कर रही है.
फिलहाल जो नयी वेपन सिस्टम्स सामने हैं उनमें ड्रोन जैसे मनुष्य द्वारा संचालित ‘एआइ’ (आर्टिफ़ीशियल इंटेलिजेंस) और रोबो सिस्टम शामिल हैं, जो सस्ते, क़ुरबान किए जाने योग्य हैं और जिन्हें भारी संख्या में उत्पादित किया जा सकता है. यूक्रेन की रक्षा महंगे नहीं बल्कि भारी संख्या में उत्पादित एफपीवी ड्रोनों ने की है, जो सैकड़ों गुना सस्ते हैं और जिनका इस्तेमाल अग्रिम मोर्चे पर तैनात सैनिक भी कर सकता है. यूक्रेनी एफपीवी पाइलट तिमोफी ओरेल की जोरदार कामयाबियों को देखिए, जिन्होंने जनवरी से मई 2024 के बीच 434 दुश्मनों का सफाया कर दिया, 346 को घायल कर दिया; 42 टैंक, 44 बीएमपी, 10 एमटी-एल्बी (बहुपयोगी बख्तरबंद वाहन)और 26 बीटीआर (एपीसी) नष्ट कर दिए. उनके लॉन्ग रेंज ड्रोन काफी सस्ते हैं. इन ड्रोनों ने न केवल रूसी नौसैनिक बेड़े को पश्चिमी ब्लैक सी से भागा दिया बल्कि 1700 किमी दूर मॉस्को को भी निशाना बनाया.
इन दिनों जबकि सुरक्षा के लिए ऑपरेशन बढ़ रहे हैं, हम देख रहे हैं कि ड्रोन करोड़ों डॉलर के अत्याधुनिक वेपन सिस्टम्स को नष्ट कर रहे हैं, जिनकी कीमत इन सिस्टम्स की लागत की तुलना में बेहद कम है. जरा सोचिए, 500 डॉलर के ड्रोन 1 करोड़ डॉलर के टैंक को नष्ट कर रहे हैं या 2000 डॉलर के ड्रोन का मुक़ाबला करने के लिए 20 लाख डॉलर की मिसाइल का इस्तेमाल करना पद रहा है. अगले करीब दो दशकों में महंगे अत्याधुनिक सिस्टम्स के साथ एआइ या रोबो वाले सस्ते सिस्टम्स का भी उपयोग किया जाने लगेगा. और आगे चलकर एआइ या रोबो वाले सस्ते सिस्टम्स ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल में होंगे.
टेक्नो युद्धक्षेत्र में कैसे लड़ें?
सेना के सेक्सन से लेकर कोर तक कमांड के सभी स्तर पर युद्धक्षेत्र में पारदर्शिता बरतनी होगी. ऐसा न कर पाने वाली सेना बराबरी की लड़ाई नहीं लड़ पाएगी. लागत-लाभ के अनुपात के लिहाज से सबसे मुफीद युद्ध उपग्रह और इलेक्ट्रोनिक/साइबर की मदद से की जाने वाली लड़ाई के अलावा बड़ी संख्या में सस्ते सामरिक ड्रोन की मदद से लड़ी जा सकती है. इन ड्रोनों पर कई तरह के कैमरे और इलेक्ट्रोनिक यंत्र तैनात किए जा सकते हैं.
जो पक्ष ज्यादा पीजीएम तैनात करेगा वह बढ़त ले लेगा. निकट भविष्य में युद्धक्षेत्र पर सस्ते ड्रोनों और खुफियागीरी करने वाले बुनियादी पारंपरिक हथियारों के साथ-साथ कमांड के कुछ ऊंचे स्तर पर हवा/ड्रोन/जमीन से छोड़े जाने वाले अचूक मगर महंगे पीजीएम का राज रहेगा. यूक्रेन और हमास ने इस मॉडल के प्रयोग का प्रदर्शन कर दिया है.
मौजूदा कम्यूनिकेशन और गाइडेड वेपन सिस्टम्स काफी मात्र में इलेक्ट्रोनिक/साइबर सिग्नल भेजते हैं जिनके चलते उन्हें ईडब्लू और सीडब्लू की मदद से रोकना, भटकाना आसान हो जाता है. ये सिग्नल अपने स्रोत का सटीक पता बता देते हैं. पहले, इन स्रोतों को भारी अनगाइडेड गतिज फायर पावर से निशाना बनाया जाता था. अब स्रोत के महत्व के हिसाब से उन्हें जमीन, हवा या ड्रोन पर तैनात पीजीएम से मिनटों के अंदर मार गिराया जाता है. उदाहरण के लिए, इजरायल ने हिज्बुल्लाह के नेतृत्व और कमांड/कंट्रोल को 10 दिन के अंदर नष्ट कर डाला. इसका निष्कर्ष यह है कि आपका कम्यूनिकेशन तंत्र न केवल सुरक्षित होना चाहिए बल्कि उससे निकलने वाले सक्रिय सिग्नल न्यूनतम अनुपात में हों. सेना और वेपन सिस्टम्स की तैयारी ऐसी हो कि वे तेजी से स्थान बदल सकें. यह बड़ी संख्या में सैनिकों की तैनाती को बेमानी करता है.
पारदर्शी युद्धक्षेत्र और पीजीएम सेना की सुरक्षा को जरूरी बनाते हैं. सीमाओं की सुरक्षा की स्थायी व्यवस्था के लिए सेना और साजोसामान को भूमिगत रखना पड़ेगा. इस मामले में ‘टनेल डिफेंस’ व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करते हैं. परोक्ष उपायों के अलावा सुरक्षा या आक्रमण के लिए तैनात सेना को एंटी ड्रोन या हवाई सुरक्षा के कवच के साथ इलेक्ट्रोनिक/साइबर युद्ध कवच भी मुहैया कराना पड़ेगा.
यहां यह बताना उपयुक्त होगा कि ये सभी उपाय दुश्मन की क्षमताओं के आकलन के अनुसार ही किए जा सकते हैं.
सुधरो या मरो
यूक्रेन-रूस और इजरायल-गज़ा/लेबनान/ईरान युद्धों ने मौजूदा आधुनिक सैन्य टेक्नोलॉजी और उभरती नयी टेक्नोलॉजी की संयुक्त भूमिकाओं का प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत कर दिया है. यूक्रेन ने महंगी, अत्याधुनिक और मुख्यतः आयातित वेपन सिस्टम्स का प्रयोग करके, उभरती नयी टेक्नोलॉजी का जुगाड़ू इस्तेमाल करके और खासकर भारी तादाद में उत्पादित सस्ते ड्रोनों का तरह-तरह से इस्तेमाल करके अपने से ताकतवर प्रतिद्वंद्वी को गतिरोध की स्थिति में डाले हुए है. पैदा मात दे रहा है. हमास, हिज्बुल्लाह और ईरान भी नयी टेक्नोलॉजी का जुगाड़ू इस्तेमाल कर रहा है लेकिन इजरायल बेहतर टेक्नोलॉजी का भारी पैमाने पर इस्तेमाल करके उनसे बा जी मार ले रहा है.
मुझे कोई संदेह नहीं है कि भारतीय सेना यूक्रेन-रूस, और इजरायल-हमास/हिज्बुल्लाह/ईरान/हाउती लड़ाइयों से उभरते सबक का अध्ययन कर रही है. लेकिन बदलाव का खाका अभी सामने नहीं आया है. फिलहाल भारतीय सेना तीन दशक पहले शिखर पर पहुंची टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके युद्ध लड़ने के लिए संगठित और तैयार की गई है. सारा ज़ोर बजट और ऐसी टेक्नोलॉजी को शामिल करने पर है जिसे आधुनिक सेनाओं ने एक दशक पहले ही अपना लिया था. रक्षा बजट के घटते आकार के कारण प्रगति की रफ्तार धीमी है.
पिछले चार साल में उभरती टेक्नोलॉजी पर भी ध्यान दिया गया है. लेकिन मेरा आकलन यह है कि भारतीय सेना उभरती टेक्नोलॉजी को पूर्ण परिवर्तन की खातिर नहीं बल्कि चरणबद्ध बदलाव के लिए अपना रही है, जबकि पूर्ण परिवर्तन वक़्त की मांग है.
मैं फिर दोहराऊंगा कि एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और राष्ट्रीय प्रतिरक्षा नीति तुरंत बनाई जाए ताकि सेनाओं के परिवर्तन का रास्ता तैयार हो. सरकार इस परिवर्तन का मार्गदर्शन करे, उसके लिए जरूरी बजट उपलब्ध कराए, और उस दिशा में प्रगति की निगरानी करे. चीन ने अपना परिवर्तन 2015 से ही शुरू कर दिया था और 2035 तक वह इसे पूरा कर लेगा. अफसोस कि हमने पिछले एक दशक में इस दिशा में लगभग कोई प्रगति नहीं की जबकि चीन सैन्य दृष्टि से हमसे कहीं आगे बढ़ चुका है. सस्ती अत्याधुनिक सैन्य टेक्नोलॉजी ने इस अंतर को पाटने का भारत को अनूठा मौका उपलब्ध कराया है. अब अगले दशक में परिवर्तन करना भारत के लिए एक मजबूरी है.
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