चुनाव परिणाम के पूर्वानुमान को लेकर किए जाने वाले एग्ज़िट पोल भारत में भले ही अब जाकर व्यापक विवाद का विषय बनकर उभरे हैं, लेकिन पश्चिमी देशों में इस पर काफ़ी पहले ही विवाद हो चुका है. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि वहां हुए विवाद ने गम्भीर अकादमिक बहस को जन्म दिया, जिसकी वजह से वहां चुनाव सर्वे करने की विधि और तकनीक में काफ़ी सुधार हुआ. भारत में ऐसा होगा या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं है.
इस लेख में मैं ऐसे ही एक चुनाव के दौरान हुए विवाद का ज़िक्र करने जा रहा हूं, जिसकी वजह से चुनाव सर्वे की पूरी तकनीकी ही बदल गयी, या फिर यूं कहें कि आज जिस तरीक़े से चुनाव का सर्वे होता है, उसकी नींव उसी विवाद में पड़ी.
1936 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव और ओपिनियन पोल
1936 में अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ़ से तत्कालीन राष्ट्रपति फ़्रैंकलिन रूज़वेल्ट दुबारा चुनाव लड़ रहे थे और उनको चुनौती मिल रही थी रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार ऐल्फ़ एम लन्दन से वह चुनाव 1929 में आयी वैश्विक महामंदी (ग्रेट डिप्रेशन) के बाद हो रहा था, जिससे निकलने के लिए राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने कुछ काफ़ी बड़े और कड़े क़दम उठाए थे. इस वजह से यह माना जा रहा था कि उनकी लोकप्रियता पर काफ़ी नकारात्मक असर पड़ा है, और वो चुनाव हार जाएंगे.
उन दिनों अमेरिका में लिटररी डाइजेस्ट नाम की एक बहुत ही प्रसिद्ध पत्रिका थी, जिसकी प्रसिद्धि की एक ख़ास वजह यह थी कि उसने पिछले पांच चुनाव के विजेता राष्ट्रपतियों का एक दम सही-सही पूर्वानुमान लगाया था. लिटररी डाइजेस्ट मैगज़ीन ने 1936 के चुनाव में भी सर्वे कराया और बताया कि रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार लेन्दन 57.1 प्रतिशत पाकर भारी बहुमत से चुनाव जीत रहे हैं, जबकि डेमोक्रेट पार्टी के उम्मीदवार रूज़वेल्ट 42.9 प्रतिशत वोट पाकर चुनाव हार रहे हैं.
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जब चुनाव परिणाम आए तो फ़्रैंक्लिन रूज़वेल्ट 60.8 प्रतिशत वोट पाकर न केवल चुनाव जीत गए, बल्कि अपने प्रतिद्वंदी अल्फ़ एम लेन्दन के 36.5 प्रतिशत वोट से भी काफ़ी आगे रहे. उक्त चुनाव परिणाम ने अमेरिका में चुनाव परिणाम के पूर्वानुमान को लेकर गम्भीर बहस छेड़ दी, क्योंकि लिटररी डाइजेस्ट मैगज़ीन ने उस चुनाव परिणाम का पूर्वानुमान 20 लाख मतदाताओं की राय को आधार बनाकर किया था.
उसी चुनाव का पूर्वानुमान अमेरिकन इंस्टिट्यूट आफ पब्लिक ओपिनियन के संस्थापक जॉर्ज गैलप ने मात्र पांच हज़ार वोटरों की राय के आधार पर एक दम सही सही बता दिया था. अपने ग़लत पूर्वानुमान की वजह से लिटररी डाइजेस्ट मैगज़ीन की साख बुरी तरह गिर गई और ये पत्रिका 1938 में बंद हो गयी, जबकि जार्ज गैलप चुनाव ही नहीं, सैंपल सर्वे विधि के भी संस्थापक माने जाते हैं. गैलप पोल की आज दुनिया भर में प्रतिष्ठा है.
क्यों फेल हो गया था लिटरेरी डाइजेस्ट का पोल
सवाल उठता है कि 1936 के लिटरेरी डाइजेस्ट के सर्वे में ऐसी कौन सी ग़लती हो गयी थी, जिसकी वजह से इस मैगज़ीन का सर्वे इतनी बुरी तरह से फ़ेल हो गया था. यह एक ऐसा सवाल है जिसके जवाब पर आज के समय में जितने भी चुनावी सर्वे होते हैं, सब की आधारशिला पड़ी है. इसको समझ लेने से हमें भारत में चल रहे एग्जिट पोल विवाद पर राय बनाने में आसानी होगी.
डाइजेस्ट की चूक को लेकर जब शोध हुआ तो पता चला कि लिटररी डाइजेस्ट मैगज़ीन ने टेलीफ़ोन नम्बर की लिस्ट और गाड़ी रखने वालों की लिस्ट के आधार पर एक करोड़ लोगों को डमी मतपत्र भेजा था, जिसमें से जो भी जवाब मिले, उनकी काट छांट के बाद बीस लाख मतपत्रों से मिली राय के आधार पर उस चुनाव का पूर्वानुमान लगाया. लेकिन चूंकि सैंपल चुनने का आधार टेलीफोन डायरेक्टरी और गाड़ियों की ओनरशिप की लिस्ट थी, इसलिए जिन लोगों के पास टेलीफोन और कार नहीं थीं, यानी जो गरीब लोग थे, ऐसे लोगों के पास मैगज़िन का मतपत्र पहुँचा ही नहीं. यानी मैगज़िन के पूर्वानुमान में सिर्फ अमेरिकी समृद्ध लोगों की राय थी. लेकिन ये तो वास्तविक मतदाताओं का एक हिस्सा ही था.
सर्वे की कामयाबी सैंपल साइज पर नहीं, सैंपल की विविधता पर निर्भर
कुल मिलाकर मैगजीन ने ग़रीब मतदाताओं की इच्छा को शामिल किए बिना ही चुनाव परिणाम का पूर्वानुमान लगा दिया था, जिसकी वजह से उसका दावा ग़लत हो गया. याद रहे कि ये चुनाव महामंदी के दौर में हो रहे थे. फ़्रैंकलिन रूज़वेल्ट ग़रीब वोटरों में ज्यादा लोकप्रिय थे, जिनकी इच्छा को मैगजीन ने अपने अध्ययन में शामिल ही नहीं किया था. दूसरी ओर रुजवेल्ट के सख्त आर्थिक कदमों से समृद्ध वोटर नाराज थे. इसलिए मैगजीन ने उनकी राय के आधार पर अनुमान लगा लिया कि अमेरिका के ज्यादातर लोग रूज़वेल्ट के खिलाफ हैं. इसके विपरीत गैलप ने पाँच हज़ार मतदाताओं के मत के आधार पर ही सही-सही पूर्वानुमान लगा दिया था क्योंकि उनके सैम्पल में सभी आय वर्ग समूह के मतदाता शामिल थे.
उक्त अमेरिकी चुनाव के दोनों सर्वे के बाद यह बात स्थापित हो गयी है कि चुनाव सर्वे में सैंपल की संख्या महत्वपूर्ण है लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि सैंपल चुनने की विधि कितनी वैज्ञानिक और समावेशी है. क्या उसमें समाज के सभी वर्गों एवं समूहों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया गया है? और इस क्रम में क्या आय, भाषा, धर्म, प्रोफेशन, नस्ल, जाति, जेंडर, लोकेलिटी आदि डेमोग्राफिक विविधता का ध्यान रखा गया है. इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि किस तरीक़े से सवाल पूछे गए? सैंपल चुनने की ये विधि भारत पर भी लागू होती है. सवाल उठता है कि क्या भारत में होने वाले सर्वे और पोल में इन बातों का ध्यान रखा जाता है?
भारत में ओपिनियन और एग्ज़िट पोल
भारत में एक और बात महत्वपूर्ण है कि एग्ज़िट पोल में सवाल किस परिस्थिति में पूछे गए थे? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ओपिनियन पोल के विपरीत एग्ज़िट पोल चुनाव बूथ के आसपास ही किए जाते है, जहां इस बात की आशंका बनी रहती है कि कमज़ोर वर्ग या समूह के मतदाता सही-सही जानकारी सर्वे करने वाले को न दें. उनके खुलकर बोलने का परिणाम, सामाजिक कटुता और हिंसा की शक्ल में हो सकता है. चूंकि ओपिनियन पोल चुनाव के पहले होते हैं और सवाल अक्सर जवाब देने वाले के मोहल्ले में जाकर पूछे जाते हैं, इसलिए वहां मतदाता पर ज़्यादा दबाव नहीं होता. इसलिए ओपिनियन पोल के सही होने की सम्भावना ज़्यादा होती है.
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अगर सब कुछ सही-सही हो भी जाए, यानी सैंपल सही तरीके से चुना जाए, सैंपल का आकार बड़ा हो, सवाल सही हों और सही परिस्थिति में पूछे जाएं तो भी सर्वे से केवल मत प्रतिशत सही-सही निकल कर आता है, वह भी एक रेंज के अंदर. मत प्रतिशत को कैसे सीट में तब्दील किया जाता है, अभी इस पर कोई वैज्ञानिक फ़ार्मूला नहीं बना है. भारत में एग्ज़िट पोल करने वाली कम्पनियां सीटों की संख्या कैसे बता रही हैं, यह किसी रहस्य से कम नहीं है. चूंकि कोई भी सर्वे कंपनी सीट बताने की विधि सार्वजनिक नहीं करती, इसलिए हम सब इस मामले में अंधकार में हैं.
(अरविन्द कुमार बढ़ती आर्थिक असमानता पर लंदन विश्वविद्यालय के रायल हालवे से पीएचडी कर रहे हैं.)