ओग्डेन नैश ने जैसा कि केचअप के बारे में कहा था कि ‘पहले वह थोड़ा-सा निकलता है, फिर थक्के में निकलने लगता है’, वित्तीय संकट भी इसी तरह सामने आता है. 2008 के वित्तीय संकट को याद कीजिए. उसकी शुरुआत दो साल पहले ही हो गई थी, जब अमेरिका में मकानों की कीमतें गिरने लगी थीं. 2007 में जिन लोगों ने मकानों के नाम पर कर्ज लिये थे वे दिवालिया घोषित किए जाने की अर्जी देने लगे थे. उस साल जून में, दो बड़े हेज़ फंड इस हाउसिंग मार्केट के कारण विफल हो गए. ये शुरुआती झटके थे. इनके बाद बड़ा भूकंप आया.
जनवरी 2008 में ‘कंट्रीवाइड’ (जिसने सबसे ज्यादा सब-प्राइम सिक्युरिटीज जारी किए थे) दिवालिया होने से इसलिए बच गया क्योंकि बैंक ऑफ अमेरिका ने उसका अधिग्रहण कर लिया. इसके दो महीने बाद, निवेश बैंक ‘बियर्स स्टीर्न्स’ दिवालिया होने के कगार पहुंच गया और उसे जेपी मॉर्गन चेज़ ने सस्ते में हड़प लिया. अंततः सितंबर में लेहमैन कांड हो गया जब पश्चिमी देशों की पूरी वित्त व्यवस्था चरमरा गई. संकट को शुरू होने और बरपा होने में दो साल लगे.
चाहे 2008 के पैमाने वाला संकट हो या उससे छोटा (मसलन टेक़िला संकट, जो 1980 के दशक के शुरू में मेक्सिको में उभरा और पूरे लैटिन अमेरिका पर छा गया), रेगुलेटरों और टीकाकारों की ओर से शुरू में बहलाने वाली आवाजें आती हैं— संकट फैलेगा नहीं, यह या वह कंपनी या देश सुरक्षित या अछूता है. लेकिन अंततः, संकट प्रायः फैलता ही है.
उदाहरण के लिए, 1997-98 के एशियाई वित्त संकट के शुरू में थाईलैंड और मलेशिया को झटके लगे लेकिन कहा गया कि इंडोनेशिया बचा रहा क्योंकि वहां मुद्रास्फीति नीची थी, व्यापार सरप्लस था और डॉलर का भंडार भरा था. लेकिन अंततः, दक्षिण-एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को सबसे बड़ा झटका लगा, जिसकी मुद्रा रुपिया की कीमत जून 1997 में 2,400 डॉलर से घटकर एक साल बाद 14,900 डॉलर हो गई. यह उसकी पुरानी कीमत के छठे हिस्से के बराबर थी. सड़कों पर जातीय दंगे फूट पड़े और सरकार गिर गई.
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आज अमेरिका में जो हो रहा है वह केचअप के बारे में नैश के विवरण जैसा ही है. इस संकट की शुरुआत धीरे-धीरे हुई, केंद्रीय बैंक ने मुद्रास्फीति से लड़ने के लिए ब्याज दरें बढ़ा दी, जो कोविड के असर से निबटने के लिए अर्थव्यवस्था की मदद करने के वास्ते अपनाई गई ढीली-ढाली मुद्रा नीति का ही परिणाम थी.
कर्जदाताओं ने अपने घाटे को शुरू में अपने पास मौजूद सिक्यूरिटीज से ढकने की कोशिश की (जब ब्याज दरें बढ़ती हैं तब मौजूदा बोंड्स की कीमतें गिरती हैं). अब, 2007 की तरह, कमजोर कड़ियां—सिल्वरगेट, सिलिकॉन वैली बैंक, सिग्नेचर— एक सप्ताह के अंदर टूट गई हैं. फिर भी अछूते रहने की बहलाने वाली बातें कही जा रही हैं.
‘बिग ब्वायज’ ने ‘फर्स्ट रिपब्लिक’ को नकदी उपलब्ध करवाकर एक और बैंक को गिरने से बचा लिया है.
स्विट्जरलैंड के अधिकारी घोटाले से ग्रस्त क्रेडिट सुइस को उबारने की कोशिश कर रहे हैं जबकि अमेरिका में क्षेत्रीय बैंकों के शेयरों की कीमतें गोता खा रही हैं. बैंक से अपना पैसा निकालने वालों की लाइन लग गई है.
अगर कोई बैंक सिलिकन वैली बैंक की तरह अपने डिपोजिटरों की मांग पूरी करने के लिए अपनी सिक्यूरिटीज को लागत कीमत पर बेचने को मजबूर होगा तो उसे चालू निम्न कीमतों पर की गई बिक्री पर घाटा दर्ज करना होगा— और इस तरह का घाटा उन सभी सिक्यूरिटीज पर भी दर्ज करना होगा जिन्हें उसने अब तक लागत कीमत पर रखा है.
इससे बैंक की पूंजी बड़े पैमाने पर गंवानी पड़ सकती है. शुक्रवार को रॉबर्ट आर्म्सस्ट्रांंग ने ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ में लिखा कि “हम आम तौर पर बैंकिंग संकट में घिरे हैं, भले ही अब तक यह हल्का है… कई बेतुकी बातें घट सकती हैं.”
अगर क्रेडिट सुइस दिवालिया होने से बच जाता है तो अब तक के झटकों से भूकंप नहीं आ सकता.
इसके अलावा, भारतीय रिजर्व बैंक पुरातनपंथी ही बना हुआ है, उसे अपने पास की तीन चौथाई सिक्यूरिटीज को बाजार के नाम करने की जरूरत है. इसका अर्थ होगा यह होगा कि घाटा दर्ज होगा, गुप्त नहीं रहेगा और इस तरह पूंजी के अचानक लोप से बचा जा सकेगा.
लेकिन व्यापक अर्थव्यवस्था को विदेशी पोर्टफोलियो पूंजी के बाहर चले जाने का जोखिम झेलना पड़ सकता है, जिससे रुपये पर दबाव बढ़ेगा और यह शेयर बाजार के लिए बुरी खबर होगी. कमजोर रुपया असुरक्षित विदशी कर्ज ले चुकी कंपनियों के लिए जोखिम बढ़ाएगा.
रिजर्व बैंक को तब अपने भंडार से डॉलर बेचकर मुद्रा को सहारा देना पड़ेगा और दरों में और वृद्धि से बचना होगा. हमारा भंडार छोटा पड़ सकता है, मुद्रास्फीति बढ़ सकती है, और शेयरों की कीमतें गिर सकती हैं. इसके सिवा भारत सुरक्षित है, लेकिन इंडोनेशिया को याद रखें और सचेत रहें.
(बिजनेस स्टैंडर्ड द्वारा स्पेशल अरेंजमेंट से)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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