यह 19वीं सदी के शुरुआती साल की बात है, जब ईस्ट इंडिया कंपनी के खुफिया विभाग में काम करने वाले तमिल-मलय मूल के एक कर्मचारी ने अपने संस्मरणों की किताब ‘हिकायत’ पूरी की थी. अंग्रेज़ी से इतर भाषा में लिखे गए इस दुर्लभ किताब में उसने “उत्तर में स्थित, उगते सूरज के करीब, विशाल आकार के देश” की अपनी यात्रा के संस्मरण दर्ज किए हैं.
अहमद रिज़ालुद्दीन की ‘हिकायत’ उस वैश्वीकृत दुनिया का वर्णन करती है जो न तो पासपोर्ट-वीज़ा की सीमाओं में सिमटा है और न व्यापार कोटा तथा औद्योगिक नीति के बंधनों में लिपटा है. राज्यसत्ता — अगर ईस्ट इंडिया कंपनी को यह नाम दिया जा सके — की मुख्य चिंता यह थी कि इतिहासकार निक रॉबिन्स जिसे दौलत हासिल करने की अथक कोशिश कहते हैं, उसे सुरक्षा मिलती रहे.
मैनुफैक्चरिंग और अंतरराष्ट्रीय व्यापार की सुविधा वाले उस शहर को आज के कोलकाता के रूप में चंद लोग ही पहचान पाएंगे. दस साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब बहुप्रचारित ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ पेश की थी तब कई विशेषज्ञों ने उम्मीद की थी कि यह भारत के पूर्वी समुद्रतट को बदल देगी और पूर्वी एशिया के साथ उसके ऐतिहासिक संबंधों को फिर से जीवित कर देगी. दो विद्वानों, यन्निथा लुईस और जयदीप सिंह का कहना है कि इस नीति की सालगिरह बीत गई और भारत में या उसके पड़ोस में किसी को भी उसका ध्यान भी नहीं आया.
इस साल के शुरू में सिंगापुर के प्रतिष्ठित ‘आइसीज़-यूसोफ इशाक इंस्टीट्यूट’ द्वारा करवाए गए एक सर्वे के अनुसार, दक्षिण-पूर्व एशिया के लोग भारत को “आसियान’ देशों के सबसे कम रणनीतिक महत्व वाला साझीदार देश मानते हैं”. ‘आसियान’ देशों के साथ संवाद के स्तर पर साझीदारी करने वाले 11 देशों में भारत को इस सर्वे ने क्षेत्रीय प्रभाव और नेतृत्व के मामले में नौवें नंबर पर रखा है. सर्वे में म्यांमार और सिंगापुर से भाग लेने वालों ने भारत को रणनीतिक प्रासंगिकता के लिहाज से क्रमशः पांचवें और छठे नंबर पर रखा है.
इस विफलता के लिए भू-राजनीति और सरकारी संस्थानों की जड़ता को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, लेकिन यह मानसिक स्तर की विफलता भी है.
दुनिया भर से साहसी यात्रियों, योद्धाओं, उद्यमियों, कारखानेदारों का जो जमावड़ा सन 1800 के दशकों में महान बहुराष्ट्रीय नगर कलकत्ता में हुआ था उसने सबको गलाकर एक रंग में ढलने वाली एक ऐसी विशाल भट्टी का रूप धारण कर लिया था जिसकी बराबरी हमारे आज के समय के वैश्विक मेगा-महानगर भी नहीं कर सकते.
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कोलकाता से सामना
‘हिकायत’ के लेखक के बारे में कम जानकारियां ही मौजूद हैं. इसकी पांडुलिपि ब्रिटिश संग्रहालय के संकलनों में शामिल है. भाषाशास्त्री साइरिल स्किनर बताते हैं कि इसका लेखक “एक मलय था, जो एक अंग्रेज़ भद्रलोक के साथ बंगाल गया था” और वह “रॉबर्ट स्कॉट का शिक्षक था”. कोरोमंडल समुद्रतट के तमिल चुलिया व्यापारी हकीम लॉन्ग फकीर कांडु का बेटा अहमद रिजालुद्दीन पेनांग में पला-बढ़ा, जिसे केदाह के सुल्तान ने 1786 में ईस्ट इंडिया कंपनी को पट्टे पर दे दिया था. वैसे, इसमें शक नहीं है कि ‘हिकायत’ किसी एशियाई द्वारा लिखी गई अपनी तरह की पहली कृति थी.
स्किनर का मानना है कि पांडुलिपि से ऐसा लगता है कि रिजालुद्दीन विलियम स्कॉट के साथ कोलकाता आया था. विलियम स्कॉट ‘फोर्ब्स ऐंड स्कॉट’ कंपनी के मालिक रॉबर्ट स्कॉट का एक बेटा था.
ऐसा लगता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी में थॉमस राफेल्स द्वारा स्थापित खुफिया विभाग ने रिजालुद्दीन को भाषा शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था. राफेल्स सिंगापुर की स्थापना में प्रमुख भूमिका निभाने के लिए वहां जाने से पहले 1805 से 1810 तक पेनांग में एडमिनिस्ट्रेटर था.
इतिहासकर सुनील अमृत ने पूर्वी सागर पर लिखे अपने जानकारी भरे वृत्तांत में लिखा है: “सदियों तक सेनाएं और व्यापारी, गुलाम और मजदूर बंगाल की खाड़ी को पार करते रहे. यह भारत और चीन के बीच एक जलमार्ग था, जिसे इसकी निरंतर बदलती मानसूनी आंधियों का सामना करने में महारत के बूते ही पार किया जा सकता था”. यूरोपीय ताकतें 15वीं सदी में यहां पहुंचीं और अपने साथ एशियाई प्रतिद्वंद्वियों के अलावा आपस में एक-दूसरे से मुक़ाबला करने की समुद्री ताकत भी लेकर आईं.
“…जहाजों के राजधानी आने का सिलसिला अटूट जारी रहता है, चाहे दिन हो या रात; हज़ारों जहाज आते हैं और रवाना हो जाते हैं — पश्चिम से पूरब की ओर, उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूरब की ओर, समुद्री यात्रा में कई महीने लगते हैं, जहाज यहां व्यापार करने के लिए आते हैं, उनकी संख्या इतनी है कि गिनना मुश्किल है.”
–अहमद रिजालुद्दीन
कोलकाता से पहली बार सामना होते ही रिजालुद्दीन ने उस भाषा में प्रतिक्रिया दी जिससे आधुनिक न्यू यॉर्क यात्रा वृत्तांतों ने हमें परिचित कराया था. खाड़ी के मुहाने पर खड़े होकर उसने उस शहर को देखा, जो “विशाल आकार का था, जिस पर एक विशाल किला भी खड़ा था, कई मील लंबा और कई मील चौड़ा, कई मंजिलों वाला, किसी तस्वीर की तरह खूबसूरत…किले को चारों ओर से घेरे नदी समुद्र की तरह गहरी है और खाई में कई खूंखार मगरमच्छ के साथ कई तरह की मछलियां भी मौजूद हैं. किला बेहद मजबूत है और ऐसा दिखता है मानो पॉलिश किए हुए ढलवां लोहे से बना हो.”
रिजालुद्दीन ने लिखा : “समुद्र से देखें तो किला किसी ऐसे बर्बर बाघ की तरह लगता है जो छलांग लगाने वाला ही हो.” अंग्रेज़ सैनिक “शेखों, सैय्यदों, मुगलों, पठानों और हिंदुओं (राजपूतों तथा ब्राह्मणों) से बनी लाखों की भारतीय सेना को अपने मातहत रखते थे, जो दिन-रात हमेशा गश्त लगाते रहते थे.”
रिजालुद्दीन ने आगे लिखा है कि स्थानीय गणमान्य लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के वायसराय गिल्बर्ट एलियट-मरे-कीनिन्माउंड के सामने हर दिन पेश होते और उसे “तमाम तरह के फल भेंट करते, जबकि कई पहरेदार और सैनिक तलवार ताने बाघ की तरह आगे-पीछे घूमते रहते, उनकी आंखें मुर्गी के अंडों जितनी बड़ी होतीं, उनकी मूंछें इतनी घनी होतीं कि चिड़िया उनमें घोसला बना ले. इनके अलावा हुक्काबरदारों, सूंताबरदारों, असाबरदारों, बालबरदारों, चोबदारों, खानसामों, और खिदमतगारों की पूरी फौज भी मौजूद होती.”
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चांद और तारे
रिजालुद्दीन के लेखन में कहीं-कहीं बड़बोलापन भी दिखता है. वह कहता है वायसराय “तारों से घिरे चांद के जैसा था.” कई दृष्टियों से, कोलकाता वास्तव में दुनिया का पहला नगर था. रिजालुद्दीन ने लिखा कि मिस्र से लेकर कॉन्स्टैन्टीनापोल, चीन, मक्का और यूरोप के कोने-कोने से “जहाजों के राजधानी आने का सिलसिला अटूट जारी रहता है, चाहे दिन हो या रात; हजारों जहाज आते हैं और रवाना हो जाते हैं—पश्चिम से पूरब की ओर, उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूरब की ओर, समुद्री यात्रा में कई महीने लगते हैं, जहाज यहां व्यापार करने के लिए आते हैं, उनकी संख्या इतनी है कि गिनना मुश्किल है.”
रिजालुद्दीन के विवरण के अनुसार, कोलकाता को आपूर्तियां भेजने वाले भीतरी इलाकों में कोई दिलचस्पी नहीं ली जाती थी. 19वीं सदी के प्रारंभिक दौर में व्यापार को इलाके को लेकर कोई आग्रह नहीं था. रिजालुद्दीन ने लिखा है : “इंग्लैंड के बादशाह ने नदी के स्रोत का पता लगाने के लिए दसियों नहीं सैकड़ों जहाज भेजे लेकिन कोई लौटकर नहीं आया. इस नदी का मामला ऐसा ही है, कई जिन्न और प्रेत और रूहानी जीव अपने शैतानी खेल करते रहते हैं, और कोई भी आदमी स्रोत तक नहीं पहुंच पाता.”
रिजालुद्दीन के लिए बाजार अहमियत रखते थे— कालपी में मुर्गी, बतख के साथसाथ ईख, केले, खट्टे-म्मेठे फल काफी तादाद में बिकते थे जिन्हें जहाजों के कामगार इस्तेमाल करते थे; किलिकाची में मालगोदामों की लाइन लगी थी जिनमें शहर में बनाया जाने वाला नमक और अर्क (शराब) जमा किए जाते थे. कुछ मील दूर हिंदू कारीगर बर्तन, ताले, छुरी, कुल्हाड़ी आदि बनाते थे. चांदनी चौक के व्यापारी सोना, चांदी और कीमती रत्न आदि बेचते थे.
रिजालुद्दीन ने लिखा : “भारतीय और अंग्रेज़ व्यापारी हजारों में घोड़े, बग्गी, और तरह-तरह की पालकी बेचते थे.” मॉल जैसी इमारत वाले चाइना बाजार की खासियत यह थी कि वहां के व्यापारी आयातित सोने के धागे, आईने, रेशम, चिरागदान, चाय के बर्तन आदि पेश करते थे. लाल समुद्री मानकों और मोतियों के भी अलग बाजार थे.
युवा यात्री रिजालुद्दीन की आंखें रंगरेजी की ओर आकर्षित हुईं जिसकी कला से कपड़ों को “सिंदूरी, नीले, बेरूजी, हरे और पीले” रंगों में रंग दिया 19वीं सदी के व्यापारी के लिए ये कपड़े सोने के समान थे. रिजालुद्दीन के कोलकाता पहुंचने से काफी पहले चिकित्सक फ्रांसिस बर्नियर लिख चुका था कि “बंगाल में सूती और रेशमी कपड़ों का इतना बड़ा भंडार था कि साम्राज्य को इन दो तरह के माल का भंडार माना जा सकता था, केवल हिंदुस्तान या मुगलों के पूरे साम्राज्य के लिए नहीं बल्कि पूरे यूरोप के लिए.”
17वीं सदी में भारत आए फ्रांसीसी यात्री ज्यां-बाप्तिस्ते ने लिखा है कि रेशम के 100-100 पाउंड (40 किलो) के 22,000 गट्ठर कासिम बाजार से बेचे गए, जिन्हें मुगल और डच तथा अंग्रेज़ ख़रीदारों ने खरीदा. कोलकाता सफ़ेद कैलिको, ऐंठी सूती और नील का भी व्यापार करता था.
इतिहासकार शुभ्रा चक्रवर्ती ने लिखा है कि भारतीय व्यापारिक बिचौलियों और वित्तदाताओं का अच्छा-खासा जाल उत्पादकों को कोलकाता के व्यापारिक केंद्र से जोड़ता था और इस तरह भारतीय कपड़े को दुनिया भर के बाज़ारों में पहुंचने का रास्ता बनाता था. आर्थिक इतिहासकार ओम प्रकाश बता चुके हैं कि यूरोपीय व्यापार ने किस तरह दो लाख लोगों को सीधे और करीब आठ लाख लोगों को परोक्ष रूप से रोजगार दिया था, मुख्यतः ग्रामीण आबादी की उत्पादकता में सुधार लाने में किस तरह मदद की थी, और अर्थव्यवस्था का मौद्रीकरण किया था.
“पुरातत्वविदों को इस बात के सबूत मिले हैं कि चीन के क्वांझाऊ शहर में 13वीं सदी में सैकड़ों मूर्तियों वाले एक हिंदू मंदिर के साथ दक्षिण भारतीय व्यापारियों का एक बड़ा समुदाय मौजूद था.”
—सुनील अमृत, इतिहासकार
रिजालुद्दीन ने लिखा है कि ईस्ट इंडिया कंपनी इस अर्थव्यवस्था को किस तरह सुरक्षा प्रदान करती थी : “इस अड्डे के चारों तरफ विशाल खुली जगह थी जिस पर कई हजार हाथियों को लोहे की जंजीरों और गदाओं को धारण करने और दूसरे काम करने की ट्रेनिंग दी जाती थी. वहां बड़े आकार और अच्छी नस्ल के हजारों घोड़े भी मौजूद थे जिन पर सवारी करके युद्ध करने में माहिर, अपने शिकार पर छील की तरह झपट्टा मारने वाले कई हजार तेज और निडर भारतीय सैनिक भी थे जो तलवारों, कवचों, गदाओं, खंजरों, छुरों, पिस्तौलों, और दूसरे हथियारों से लैस थे.”
रिजालुद्दीन ने आगे लिखा है कि “सभी महावत लाल कपड़े का चोगा पहनते थे, हरेक हाथी पर एक मुगल या पठान योद्धा सवार होता था, जिसकी मूंछें भैंस की सींगों की तरह घुमावदार होती थी और आंखें मुर्गी के अंडों की तरह थीं. वे सब किसी भी क्षण छलांग लगाने को तैयार बाघ की तरह दिखते थे.”
शहर में अंग्रेजों की ताकत का सबसे अहम तत्व था स्थानीय पुलिस बल, जो व्यवस्था बनाए रखता था. रिजालुद्दीन ने लिखा है : “हरेक गली में एक बाजार था और हरेक बाजार के साथ एक पुलिस थाना था जिसमें एक इंस्पेक्टर तैनात रहता था और कई सिपाही हमेशा गश्त पर रहते थे.” ये सब अपराध की रोकथाम करते थे और किसी भी गड़बड़ी करने वाले को तुरंत काबू में करते थे.
मेले वाला माहौल
इतिहासकार हमें बताते हैं कि दुनिया की खोज यूरोप वालों ने नहीं की. इतिहासकार हरमन कूलके, के. केशवपाणि और विजय साखूजा ने लिखा है कि पुर्तगाली, डच, और ब्रिटिश समुद्री ताकत के उभार से एक सहस्राब्दी पहले ही तमिलनाडु के चोलों ने दक्षिण-पूर्व एशिया को फतह करने के इरादे से कावेरी डेल्टा के अपने अड्डों से से बाहर निकलने का साहस किया था. इसके कारण चीन के साथ कूटनीतिक संबंध बना, जो उस समय एशिया के पूरब में एक प्रमुख ताकत था. तानसेन सेन की शानदार कृति बताती है कि चीनी दूत कोची और कोझिकोड के शासकों से निबटते थे, और बंगाल के योद्धाओं तक को उनके हमले रोकने के आदेश तक देते थे.
सुनील अमृत हमें याद दिलाते हैं कि “पुरातत्वविदों को इस बात के सबूत मिले हैं कि चीन के क्वांझाऊ शहर में 13वीं सदी में सैकड़ों मूर्तियों वाले एक हिंदू मंदिर के साथ दक्षिण भारतीय व्यापारियों का एक बड़ा समुदाय मौजूद था. भारतीय बंदरगाह नागपट्टनम में एक तीन मंज़िला चीनी पगोडा देखा जाता था, जिसे 1867 में तोड़ डाला गया.”
जाने-माने इतिहासकार संजय सुब्रह्मण्यम बताते हैं कि तमिल व्यापार संघों ने थाईलैंड से लेकर जावा और आगे तक अपनी स्थिति शाही सत्ता की मदद के बिना मजबूत कर ली थी. बल्कि वे स्थानीय अधिकारियों के अलावा व्यापारियों के दूसरे समुदायों के साथ मिलकर काम करने की सावधानी बरतते थे. दूसरे समुदायों में ये सब शामिल थे— “फुजीयान और ग्वांगडोंग से चीनी व्यपारी, राइयूक्यू द्वीप वाले, मोलुक्कन, जावा और दक्षि-पूर्व एशिया के मेनलैंड से, सुमात्रा के व्यापारी; इसके अलावा मेलका से लेकर पेगू, बंगाल, कोरोमंडल, श्रीलंका, केरल, गुजरात, मालदीव, पश्चिम एशिया के व्यापारिक नेटवर्क से जुड़े व्यापारी भी.”
रिजालुद्दीन के विवरण से साफ है कि यूरोप वालोन ने इस बहुसांस्कृतिक जमात से खुद को जोड़ लिया था. एक त्योहार के बारे में उसने लिखा है : “तमाशों को देखने वाले लोगों की भीड़ मक्खियों की तरह भिनभिना रही थी. उनकी तादाद इतनी ज्यादा थी कि तमाशे के बीच आपने एक मुट्ठी रेत हवा में उछाल दी उसका एक भी कण जमीन पर नहीं गिरेगा. इस जमावड़े में अंग्रेज़ भी थे, फ्रांसीसी भी, पुर्तगाली, डच, डेनमार्क वाले भी औरतें और मर्द भी और सब-के-सब पूरा मजा लेते हुए. कोई गा रहा था, तो कोई नाच रहा था.”
रिजालुद्दीन ने पाया कि “अंग्रेज़, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच, चीनी, बंगाली, बर्मी, तमिल, मलय, तमाम नस्लों के लोग सुबह, दोपहर, शाम अड्डे (वेश्यालय) जाते हैं, और इसलिए वहां भारी भीड़ और शोरशराबा होता रहता है मानो वे किसी लड़ाई के खत्म होने का जश्न मना रहे हों.”
रिजालुद्दीन बताता है कि स्थानीय पुलिस आज जिन दुर्गुणों के लिए जाना जाता है उन दुर्गुणों से उसका तब भी वैसा ही धुंधला रिश्ता था. “थाने के पिछवाड़े शराब, गांजा-भांग भरपूर मात्र में बिकते थे, और पीने की ख़्वाहिश रखने वाले इन खोखों पर जाकर पी सकते थे.”
“पीने वाले आधे नशे में आते ही नाचने-गाने लगते और खूब मजे करते, कभी-कभी पुराने झगड़े भी उभर आते. फिर, केवल चीख-चिल्लाहट और धक्का-मुक्की मच जाती. कोई चीखने लगता, कोई नाचने लगता, कोई बेकाबू लदखड़ाने लगता, कोई इतनी पी लेता कि नशे में दुनिया से बेसुध होकर सो जाता. शराब आदि बेचने वाला अपनी दुकान पर ताला लगा देता ताकि वे सब बाहर जाकर इलाके के लोगों को परेशान न करें.”
“अदालत के अफसर, पुलिस और सिपाही मौके पर आकार उन्हें थाने के पास की इमारत में बंद कर देते. सुबह में उनके मालिक शिकायत करते तो इंस्पेक्टर उन्हें रिहा कर देता. रोज यही सब होता और माहौल हमेशा मजेदार रहता.”
19वीं सदी के आरंभ के दौर में कोलकाता में मनोरंजन का साधन केवल सेक्स ही नहीं था. रिजालुद्दीन ने मेले जैसे माहौल का आश्चर्य भाव से वर्णन किया है : “वहां तरह-तरह के करतब दिखाते जादूगर थे; घोड़े, हाथी, ऊंट आदि की सवारी करती कठपुतलियों के नाच दिखाते कठपुतली वाले थे, इन बंगाली हिंदुओं ने हाथों की इस कला में इतनी महारत हासिल की है ऐसा लगता है मानो वे खुद भी ऐसे नाच दिखा सकते हैं. एक औरत तो ऊंचे बांस पर ही नाच दिखा रही थी, बांस के बीचोबीच वह उसके ऊपर पेट के बल लेट कर इतनी तेजी से चकरघिन्नी खा रही थी मानो कोई पवनचक्की हो.”
“एक लंगड़ी बकरी, एक बंदर और दो भालुओं के साथ एक फकीर भी था, जो अपनी बकरी को छोटे से बर्तन के ढक्कन जितने आकार की लकड़ी के तख्त पर चारों पैर रखकर खड़ा होने के इशारे कर रहा था. और अपने बंदर को वह रस्सी के एक फंदे के बीच से कूदने के इशारे करता था और बंदर बिलकुल वैसा ही कर रहा था.”
सत्ता का अभिशाप
रिजालुद्दीन ने अंत में लिखा है : “इंग्लैंड कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है. वह एक खूंखार बाघ की तरह है जो अपने विरोधी को खोजता फिर रहा है लेकिन कोई उससे मुक़ाबला करने को तैयार नहीं है; चूंकि हर कोई एक साझा नीति पर राजी है कि वह जो भी करता है उससे वह समृद्ध ही होता है.” रिजालुद्दीन कहता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी हॉलैंड, फ्रांस के अपने प्रतिद्वंद्वियों को कुचल डालेगा. 1810 में रिजालुद्दीन जब कोलकाता पहुंचा था तभी उसने मॉरिशस पर बिना किसी प्रतिरोध का सामना किए कब्जा कर लिया था. इससे पहले 1806 में डचों को बटाविया में कुचल दिया गया था.
तथ्यों से ज्यादा माहौल पर ध्यान देने वाले रिजालुद्दीन ने डच गवर्नर को यह कहते हुए पाया कि “हमारी यूरोपीय जमीन पर मूसा बोनापार्ट नाम के फ्रांसीसी बादशाह ने कब्जा कर लिया, इसलिए हम यहां जावा में इस उम्मीद के साथ बसने के लिए आए हैं कि शांति से रह सकेंगे. अब अंग्रेजों की ओर से खतरा उभर रहा है. अब हम कहां शरण लें?”
रिजालुद्दीन ने एक महत्वपूर्ण सही बात कही है कि “हर कोई अंग्रेजों से डरा हुआ था, जो भूखे बाघ जैसे दिखते थे.”
लेकिन आश्चर्य करने की बात यह है कि क्या अंग्रेज़ हिंद महासागर क्षेत्र पर भू-राजनीतिक वर्चस्व कायम करने में सक्षम थे? ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत से खूब दौलत बटोरी लेकिन वह जमीन पर कब्जे करने के कई ख़र्चीले— बेशक बेमतलब—लड़ाइयों में भी उलझी. 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश संसद ने कंपनी का राष्ट्रीयकरण कर दिया और इसकी फौज तथा प्रशासनिक ढांचे को अपने अधीन कर लिया.
बारबरा हार्लो और मिया कार्टर ने संसद की बहसों के अपने संकलन में कहा है कि ब्रिटिस साम्राज्य इस धारणा पर टिका था कि भारत “अपने प्राचीन काल या बुतपरस्ती में ही बुरी तरह अटका हुआ है”. माना गया कि भारतीय लोग अंधविश्वासों पर चलते हैं, भावावेग और मूर्तिपूजा में उलझे रहते हैं, और उनके यहां कोई आर्थिक व्यवस्था और बाजार या जीवन को सहारा देने वाले समुदाय और परंपराएं नहीं हैं.”
लेकिन यूरोप के मुक्त बाजार के अगुआ, जो समुद्र पार करके व्यापार करने कोलकाता आए थे वे ऐसा नहीं मानते थे.
अर्थशास्त्री पाइलर नोग्स-मार्को कहते हैं कि इंग्लैंड ने भारत की संपदा का जिस तरह दोहन किया उससे उसका उपनिवेश अविकसित रहा, और अगर उसने देशों के बीच व्यापार के नेटवर्क को स्वाभाविक रूप से फलने-फूलने दिया होता और उससे जो लाभ हासिल किया होता उसका अंततः अवमूल्यन कर दिया. लालच ने कोलकाता के महानगरीय स्वरूप को नष्ट किया, और उसकी जगह नस्ल-आधारित ढांचा स्थापित कर दिया. ब्रिटिश साम्राज्य को मारक झटका भारी मंदी के चलते मुक्त बाजार के नष्ट होने और फिर दूसरे विश्वयुद्ध के कारण लगा.
भारत की ‘ऐक्ट ईस्ट पॉलिसी’ का मकसद बंगाल की खाड़ी को पार करके आने वाले बड़े नेटवर्क को फिर से बहाल करना था. लेकिन वास्तविकता यह है कि वह विफल हो गया है जिसकी वजहें समझने में हमें रिजालुद्दीन की पांडुलिपि से मदद मिलती है. 19वीं सदी के शुरू में कोलकाता मैनुफैक्चरिंग का एक विशाल केंद्र था जो वैसी सस्ती चीजें बनाता था जिनकी दुनिया को जरूरत थी. यह वैसा शहर था जो विविध संस्कृतियों और समुदायों का स्वागत करता था, और उन्हें साझा समृद्धि की साझा कोशिश में बिना कोई सांस्कृतिक भेदभाव किए गले लगाता था. वह भू-राजनीतिक लगाव, आस्था, या सीमाओं का कोई बंधन नहीं मानता था.
भारत जब अपने पूरब में स्थित आर्थिक शक्तियों से जुड़ना चाहता है तब उसे एक ऐसी ही दुनिया बनने की कल्पना करनी चाहिए. वैश्विक भारत केवल नौकरशाही वाली व्यवस्थाओं से नहीं बनेगा उसके लिए कल्पना की परियोजना की जरूरत होगी.
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