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Thursday, 2 May, 2024
होमरिपोर्टहिटलर, स्टालिन, सीआइए, सबने कैसे इस्लामिक स्टेट आतंकियों के लिए मॉस्को तक का रास्ता तैयार किया

हिटलर, स्टालिन, सीआइए, सबने कैसे इस्लामिक स्टेट आतंकियों के लिए मॉस्को तक का रास्ता तैयार किया

इस्लामिक स्टेट से जुड़े जिहादियों ने मॉस्को के क्रोकस थिएटर में 100 ज्यादा लोगों का कत्ले-आम कर दिया तो पुतिन ने आरोप लगाया कि इन हमलावरों की उंगलियां पश्चिमी देशों के इशारे पर हरकत में आईं

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पूर्वी प्रशिया में युद्धबंदियों की जेल शिविर में तैनात सैनिकों के कंधों पर जो बैज लगे थे उन पर समरकंद के विजेता तैमूर लंग द्वारा बनवाई गई चाह-ए-ज़िंदह मस्जिद की तस्वीर के साथ ये शब्द कढ़ाई करके लिखे हुए थे—‘बिज़ अल्लाह बिलेन’ (अल्लाह हमारे साथ है). ‘तीसरी राईक’ (नाज़ी जर्मनी) के ये सैनिक किसी और नियति की ओर कूच करने की उम्मीद लगाए थे. उज़्बेक स्कूल शिक्षक से नाज़ी राजनीतिक अधिकारी बने बयमिर्जा हायित ने इन सैनिकों से कहा, “आप लोग ईस्टर्न लीजन्स की नींव के पत्थर हैं. एक दिन जब पूरब के देश आज़ाद हो जाएंगे, और आप उस होमलैंड (वतन) की रीढ़ की हड्डी बनेंगे.”

पिछले सप्ताह ‘इस्लामिक स्टेट’ गुट से जुड़े जिहादियों ने मॉस्को के क्रोकस थिएटर में 100 ज्यादा लोगों का कत्ले-आम कर दिया तो रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने आरोप लगाया कि कलास्निकोवों पर रखीं इन हमलावरों की उंगलियां पश्चिमी देशों के इशारे पर हरकत में आईं. यह दावा बहुत चालाकी भरा था और दूसरे को दोषी ठहराने के मकसद से दिया गया था लेकिन इसने एक सदी से ज्यादा समय तक चले लगभग अज्ञात, बर्बर युद्ध को रोशनी में ला दिया.

सीरिया में अल क़ायदा के अग्रिम गुट अल-नुस्रा की एक शाखा अज़्नद अल-कव्कज़ के जिहादी दो साल से ज्यादा से यूक्रेनी सेना के साथ मिलकर रूस से लड़ रहे हैं. रुस्तम अज्हिएव के नेतृत्व में ये जिहादी इस उम्मीद में हैं कि इस युद्ध से उत्तरी कॉकसस, चेचेन्या में उनका होमलैंड आज़ाद हो जाएगा. 2016 में इस्लामिक स्टेट की कथित खिलाफ़त के विध्वंस के बाद से यूक्रेन में जा बसे मध्य एशियाई जिहादियों की, जिनमें इस गुट के डिप्टी मिनिस्टर फॉर वार सीजर तोखोसाशविली भी शामिल हैं, संख्या कम हुई है.

यूक्रेन-रूस युद्ध में जिहादी धारा की अनपेक्षित भागीदारी उस यातनापूर्ण इतिहास की देन है, जिसमें नाज़ी ‘फ़्यूहरर’ एडोल्फ़ हिटलर, सोवियत तानाशाह स्टालिन, और अमेरिकी खुफिया संगठन सीआइए ने अपनी-अपनी तरह से भूमिका निभाई थी.

साम्राज्य, दासों के व्यापारी, और सभ्यताएं

1999 में जब दूसरा चेचेन युद्ध चल रहा था और ग्रोज़्नी शहर मलबे में बदल दिया गया था, तब पुतिन ने गुस्से में घोषणा की थी : “अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में रूस अग्रिम मोर्चे पर लड़ रहा है. यूरोप को घुटने के बल झुक कर हमारा शुक्रिया अदा करना चाहिए कि बदकिस्मती से हम अकेले इससे लड़ रहे हैं.” इस गुस्से की वजह भी थी. अमेरिका तालिबान को इस उम्मीद में शह दे रहा था कि वह कच्चे तेल से संपन्न मध्य एशिया में अपना दबदबा बढ़ा लेगा.

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तार्तार और नोगै हमलावर दासों की खोज में पूर्वी यूरोप की कृषि भूमि को सदियों तक तहसनहस करते रहे. इतिहासकार दारिउस्ज़ कोलोजेक्ज़िक का अनुमान है कि 1550 से 1700 ई. के बीच मस्कोवी और पोलैंड-लिथुयानिया से 20 लाख लोगों को दास बनाया गया. दासों के व्यापार ने मध्य एशिया के तुर्क क्षेत्र को सभ्यता के केंद्रों के रूप में उभरने के लिए आर्थिक आधार का निर्माण किया. अफ्रीका से अमेरिका भेजे गए दासों के विपरीत, इन दासों को हालांकि दो पीढ़ियों के अंदर ऑटोमन समाज में समाहित कर लिया गया लेकिन उन हमलों ने उनके अपने होमलैंड पर यातना के गहरे जख्म छोड़ दिए.

लेकिन 19वीं सदी का अंत होते-होते इतिहास का पहिया उलटा घूमा. रूसी साम्राज्य ने क्रीमिया के रास्ते पूरब की ओर पैर फैलाए और चेचेन, इंगस और दगेस्तानियों के होमलेंडों पर कब्जा कर लिया. 1865 में फौरी हमले करके और पूरब की ओर खिवा और खोकंद के खानतों, बुखारा के अमीरात और तार्तार के जिओक-टेपे को कब्जे में ले लिया गया. मर्व के खानत को बिना कोई गोली चलाए जीत लिया गया.

रूसी साम्राज्य ने इस्लाम के विस्तार को रोकने के लिए हाजियों की संख्या में कटौती की और धार्मिक अंशदान तथा चंदे आदि बंद कर दिए. इतिहासकार मार्था ओल्कोट के अनुसार, इन कदमों के विरोध में विद्रोह हुए. प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान कपास का व्यापार ठप हो गया और इसके साथ मॉस्को तथा इस्तांबुल के साम्राज्य भी ढह गए. इसके बाद तुर्क क्रांतिकारी इस्माइल एन्वर के नेतृत्व में पूरे क्षेत्र में बगावात फूट पड़ी. आज जो पूर्वी उज्बेकिस्तान, दक्षिणी किर्गिस्तान और उत्तरी ताजिकिस्तान हैं उनके तिराहे पर स्थित घाटी में कई आंदोलन शुरू हो गए. इतिहासकार बीट्रिस मंज़ के मुताबिक, इन आंदोलनों का नेतृत्व प्रायः इसकी ताकतवर सूफ़ी जमात के मौलवियों के हाथ में होता था.

1924 में सत्ता में आए सोवियत तानाशाह जोसफ स्टालिन ने जमीन की चकबंदी, मौलवियों की गिरफ्तारी और धार्मिक संस्थाओं को बंद करके इन विद्रोहों को कुचल दिया. सोवियत विचारक लिउत्सियन क्लिमोविच के लिए इस्लाम एक शत्रु था जिसे कुचलना जरूरी था, “एक ऐसी विज्ञान विरोधी, प्रतिक्रियावादी वैश्विक अवधारणा थी जो विज्ञानसम्मत मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवधारणा से भिन्न तथा प्रतिकूल थी”.


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CIA के जिहादी

इतिहासकार जोनाथन ट्रिग्ग ने लिखा है कि जिस तरह नाज़ी वाफ़्फ़ेन-शुट्ज़स्टाफ़्फ़ेल मिलकर लड़े, सोवियत संघ से लड़ने के लिए गठित किए मुस्लिम लश्करों को भी तगड़ी हार का सामना करना पड़ा. मुक्ति की उम्मीद करने वालों को कीमत चुकानी पड़ी. 1944 की गर्मियों में क्रीमिया के तार्तारों को सोवियत खुफिया पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, उन पर नाज़ियों का साथ देने के आरोप लगाए गए और मध्य एशिया रवाना कर दिया गया. मवेशियों को ढोने वाले चारों तरफ से बंद गाड़ियों में लंबी यात्रा के दौरान हजारों लोग दम घुटने से मर गए; हजारों लोग फार्मों और गुलागों में कुपोषण और रोगों के कारण मर गए.

पत्रकार इयान जॉनसन ने खुलासा किया है कि इस नरसंहार के साथ अमेरिका और ब्रिटेन ने बाकी बचे मुस्लिम लश्करों की भर्ती शुरू कर दी थी ताकि उनका इस्तेमाल सोवियत संघ से लड़ने में किया जा सके. लशकरों के प्रभारी नाज़ी अधिकारी गेरहार्ड वोन मेंडे और उसके उज़्बेक दास वाली कयूम खान शीतयुद्ध के इस गुप्त ऑपरेशन के केंद्र बनकर उभरे. जॉनसन ने लिखा है कि ऊंचा नाज़ी अधिकारी होने के बावजूद मेंडे विश्वयुद्ध के बाद की पश्चिम जर्मनी में बंगला, गाड़ी, नौकर और एक घोड़े के साथ शानदार जीवन जी रहा था जबकि उसकी कमाई का कोई प्रकट स्रोत नहीं था. मध्य एशियाइयों का इस्तेमाल करके ऑपरेशन चलाने की कोशिशों में पश्चिम जर्मनी और ब्रिटेन में सोवियत जासूसों ने धोखा दे दिया.

मिस्र के इस्लामी नेता सैयद रमदान इसके बाद भी साम्यवाद के खिलाफ इस्लाम को एक हथियार के रूप इस्तेमाल करने की कोशिशों के मुख्य केंद्र के रूप में उभरे. 1953 में, वे कम्युनिस्ट विरोधी इस्लामी मौलवियों के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में अमेरिकी राष्ट्रपति डी. आइजनहावर से मिले. अगले साल उन्हें जर्मनी में शरण मिल गई और वे ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के खिलाफ मिस्र की धर्मनिरपेक्ष सरकार की सख्त कार्रवाई से बच गए.

फ्रांसीसी पत्रकार कैरोलिन फ़ाउरेस्ट ने लिखा है कि रमदान दुनिया भर में इस्लामी सरोकारों के अग्रणी पैरोकार के रूप में उभरे. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने उनकी किताबों की प्रस्तावनाएं लिखीं और उन्हें राष्ट्रीय रेडियो में एक ‘स्लॉट’ दे दिया. रमदान विचारक अबुल अला मौदूदी के करीबी दोस्त बन गए, जिन्हें ‘इस्लामिक स्टेट’ के विचार के मुख्य सिद्धांतकारों में गिने जाते हैं. शोधकर्ता गाइल्स केपेल ने लिखा है कि ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ की यूरोप की गतिविधियों के केंद्र के रूप में म्यूनिख में स्थापित मस्जिद के सर्वेसर्वा रमदान मध्य-पूर्व के अमीर दानकर्ताओं को इस्लामी उद्देश्यों से जोड़ने का काम भी करते हैं.

सीआइए ने जो आग लगने की उम्मीद की थी वह अंततः 1979 में तब भड़क उठी जब अफगानिस्तान में लंबा जिहाद शुरू हो गया.

न खत्म होने वाली लड़ाई

एक सदी के अंदर तीसरी बार रूस ने खुद को उबलती मुस्लिम आबादियों से लड़ता पाया. इस बार उसका मुक़ाबला शमिल बसाएव जैसे चेचेन से था जिसने लड़ने के गुर अल-क़ायदा और अफगान मुजाहिदीन से सीखे थे. 1994-96 में जिहादियों के खिलाफ नाकाम अभियान के बाद पुतिन ने 1999-2004 के बीच चेचेन्या से लड़ाई लड़ी. बर्बर रूसी हमले के बाद आतंकवाद बड़े पैमाने पर उभरा. जिहादियों ने बेसलन गांव में 334 लोगों को मार डाला जिनमें 184 स्कूली बच्चे थे, और इसके बाद कई शहरों में आत्मघाती हमले किए. फेरघाना घाटी में भी जबरदस्त जिहादी हिंसा हुई. 1990 के दशक में इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान ने तानशाह इस्लाम करिमोव की सरकार से लड़ाई की. दक्षिणी किर्गीस्तान में भी छिटपुट हिंसा हुई.

सेना के हाथों इन आंदोलनों की हार के बाद मध्य एशिया और उत्तरी कॉकसस के जिहादी सीरिया चले गए और अल-क़ायदा तथा इस्लामिक स्टेट से जुड़ गए. वहां वे जिहादियों से मिल गए. विद्वान कालेब विस्स कहते हैं कि रूसीभाषी जिहादियों ने सीरियाई सरकार और उसे मदद देने वाली रूसी सेना से लड़ने में प्रमुख भूमिका निभाई. लेकिन खिलाफत के विध्वंस ने फिर से उन्हें बेवतन कर दिया.

पत्रकार पावेल पाइनियाज़ेक और आलयोना सावचुक की रिपोर्ट के मुताबिक, 2016 में यूक्रेन की खुफिया सेवा ने उन अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी गुटों से जुड़े 46 लोगों को गिरफ्तार किया जिन्होंने कीव और खारकीव में ठिकाना बनाने के लिए कई रास्ते तलाशे थे. नुर्बेक बेकमुर्ज़ाएव ने लिखा है कि जर्मनी और नीदरलैंड में इस्लामिक स्टेट द्वारा हमलों की साजिश करने के लिए पिछले साल ताजिकिस्तान, किर्गीस्तान और तुर्कमेनिस्तान के जिन नागरिकों को गिरफ्तार किया गया उन्होंने यूरोप में शरण लेने के लिए यूक्रेन को पड़ाव के रूप में इस्तेमाल किया था.

पुतिन ने इतिहास से सीख ली है कि भू-राजनीति में कोई नैतिक पश्चाताप नहीं चलता, जैसा कि 1945 के बाद भी हुआ था, उन्हें डर है कि पश्चिमी देश नये शीतयुद्ध में इस्लामी आतंकवादी गुटों को हथियार बना सकते हैं. इस क्षेत्र में जिहादी गुटों से रूसी राष्ट्रपति जिस तरह निबट रहे हैं उसमें बेशक अवसरवादिता भी शामिल है. काबुल के पतन से काफी पहले रूस ने अफगान तालिबान के साथ दोस्ती इस उम्मीद में बनाई थी कि अमेरिका पर दबाव बनेगा और इस्लामिक स्टेट के खिलाफ वे खुद को सुरक्षित कर पाएंगे.

क्रोकस थिएटर तक पहुंचाने वाला रास्ता ऐसे कई रक्तरंजित मील के पत्थरों से होकर गुजरा है, जो महाशक्तियों की सनक, और उबलते असंतोषों को शांत करने में उनकी अदूरदर्शिता तथा नाकामी के सबूत हैं. आज भी, जबकि रूस और पश्चिमी देश जिहादियों से खतरे का समान रूप से सामना कर रहे हैं, वे उनसे लड़ने के लिए एक साथ होंगे इसकी उम्मीद कम ही है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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