गलत सवाल का सही जवाब चाहे जो भी हो, दरअसल वह गलत ही होता है
स्कूलों में हिजाब पहनकर आने के मुद्दे पर विरोध में आवाज उठाने वाले कुछ उदारवादी बुद्धिजीवियों और सेक्यूलर धारा के कार्यकर्ताओं के साथ यही दिक्कत है. सौभाग्य की बात ये है कि इस मुद्दे पर ना सिर्फ सेक्यूलर खेमे और सेक्यूलर-विरोधी खेमे के बीच खाई खुदी हुई है बल्कि उदारवादी-सेक्यूलर खेमे में भी दरार की रेखाएं दिख रही हैं. यों ज्यादातर सेक्यूलरवादी इस मांग के पक्ष में हैं कि महिला छात्रों को हिजाब पहनने की अनुमति मिलनी चाहिए, लेकिन कुछ सेक्यूलरवादियों ने अपने को इस मांग से दूर रखना ठीक समझा है. ऐसे सेक्यूलरवादियों में सेक्यूलर धारा की कार्यकर्ता शबनम हाशमी और दिप्रिंट में छपे संपादकीय को शामिल किया जा सकता है.
इस लेख की शुरुआत में मैंने ‘सौभाग्य से’ शब्द का इस्तेमाल किया है तो इसलिए कि सेक्यूलर-लिबरल खेमे में किसी मसले पर मत-मतांतर दिखे तो मैं उसका खुले दिल से स्वागत करता हूं. हमारे सार्वजनिक जीवन का एक रोग ये है कि एक-सी विश्वदृष्टि वाले लोग एक-दूसरे से असहमत नहीं नज़र आते, कम से कम सार्वजनिक जीवन में तो वे ऐसी किसी असहमति का इजहार नहीं ही करते हैं. अगर असहमति में ईमानदारी है और ऐसी असहमति को मंजर-ए-आम पर लाया जाता है तो इससे सार्वजनिक बहस-मुबाहिसे की हमारी संस्कृति को मजबूती मिलती है.
उदारवादी-सेक्यूलर धारा के बुद्धिजीवियों के बीच हिजाब पहनने की मांग को लेकर जो असहमति नजर आ रही है, उसमें मैं अपना पक्ष इसी भावना के साथ रखना चाहता हूं. मैं इनके जवाब से सहमत नहीं. लेकिन बात सिर्फ असहमति की नहीं है- मुझे ये भी लग रहा है कि दरअसल सवाल ही गलत पूछा जा रहा है.
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दरअसल सवाल ही गलत है
मिसाल के लिए दिप्रिंट के 50 शब्दों वाले संपादकीय को ही लीजिए. मैं यहां उसके अनूदित रूप को जस के तस उद्धृत कर रहा हूं: ‘अफसोस की बात है कि कर्नाटक में हिजाब बनाम भगवा पटके का विवाद आधुनिकता और उदारवाद के सदाशयी स्वरों को भी कम-उम्र लड़कियों को ढंक-छिपा कर रखने की पिछड़ी रिवायत की तरफदारी करने को मजबूर कर रहा है. घूंघट और पगड़ी का क्या सरीखे सवालों से ऊपर उठकर हिंदुस्तानियों को जतन करने चाहिए कि यह मसला सियासी अखाड़े में दूसरा शाह बानो मामला ना साबित हो और हमारे भविष्य पर कहीं प्रेत सा ना मंडराये.’
गौर करें कि संपादकीय कह क्या रहा है? संपादकीय के मुताबिक आधुनिकता और उदारवाद के सदाशयी स्वरों का मुख्य सरोकार ‘कम-उम्र लड़कियों को ढंक-छिपा कर रखने की पिछड़ी रिवायत’ होना चाहिए. जाहिर है, फिर यहां पहले से मानकर चला जा रहा है कि कम-उम्र लड़कियां अपनी मनमर्जी से हिजाब नहीं पहनतीं, बल्कि इसके लिए उनपर दबाव डाला जाता है या फिर बहलाया-फुसलाया जाता है. सो, आजादी में अडंगा लगाने की ऐसी कोशिश को रोकने के लिए हर भारतीय को आगे आना चाहिए.
अगर मसले को ऐसे तर्क और तुक में पिरोकर पेश किया जा रहा है तो फिर इसके जो जवाब निकलने वाले हैं, वो बिल्कुल जाहिर से हैं, भले ही ये जवाब दुरुस्त ना हों. यह समझ मानकर चल रही है कि हिजाब महिलाओं को गुलाम रखने, उन्हें ढंक-छिपाकर रखने की मर्दवादी मानसिकता का एक प्रतीक है. अब, यह बात तो ठीक ही है कि स्त्री-देह को ढंक रखने के जो ढेर सारे चलन हैं, उनकी जड़ें कहीं ना कहीं पितृसत्तात्मक सोच में हैं. जाहिर है, फिर इस समझ के मुताबिक, अगर कम-उम्र लड़कियां हिजाब पहनना शुरू कर दें तो यह चिंता का विषय होना चाहिए. क्या हिजाब पहनने के लिए लड़कियों पर कोई जोर-जबर्दस्ती की जा रही है, क्या उन्हें इसके लिए कोई सीख दी जा रही है, पट्टी पढ़ायी जा रही है? क्या हिजाब पहनने का चलन अच्छा है?
बहरहाल, इन शुरुआती सवालों को आधार बनाकर किसी फैसले पर नहीं पहुंचा जा सकता. आत्माभिव्यक्ति चाहे जिस भी रूप में हो, उसके बारे में अंतिम फैसले पर पहुंचने से पहले ये सोचना होता है कि दरअसल अभिव्यक्ति के ऐसे रूप को चुनकर कोई व्यक्ति अपने बारे में क्या जाहिर करना चाहता है. किसी खास कपड़े को पहनने का क्या मतलब है, इसका ठीक-ठीक अर्थ हम तब तक नहीं जा सकते जब तक कि हम यह नहीं जान लेते कि कोई कपड़ा उसे पहनने वाले व्यक्ति के लिए क्या मायने रखता है. किसी व्यक्ति के लिए कोई चीज गुलामी का प्रतीक हो सकती है लेकिन किसी दूसरे के लिए वही चीज बगावत की पहचान हो सकती है. यह भी हो सकता है कि कोई एक ही चीज किसी एक व्यक्ति के लिए एक समय में गुलामी का प्रतीक हो तो दूसरे समय में बगावत का. मैंने शर्ट-ट्राउजर या फिर कुर्ता-जींस की जगह अगर कुर्ता-पायजामा पहनना चुना तो यह मेरे लिए बगावत का प्रतीक था. आज की तारीख में कुत्ता-पायजामा यों जान पड़ता है मानो देसी दिख पड़ने का कोई फैशनदार कपड़ा हो. मुझे नहीं पता कि उन कम-उम्र मुस्लिम छात्राओं के लिए हिजाब क्या मायने रखता है मगर मैं अपनी इस अज्ञानता को अपना सद्गुण मानकर नहीं बरत सकता, ये नहीं मान सकता कि हिजाब का जो मतलब मेरे लिए है, हर हाल में वही मतलब उन मुस्लिम छात्राओं के लिए भी हो. हो सकता है, उन मुस्लिम छात्राओं के आत्म-बोध में कच्चापन हो या अपने आत्मबोध में वे कहीं भ्रम की शिकार हों.
सो, मैं ऐसा जान पड़ने पर उन मुस्लिम छात्राओं की आलोचना करुंगा और उनके साथ बहस करुंगा. लेकिन, ऐसा तो नहीं हो सकता ना कि मैं उनके आत्मबोध को अपने संज्ञान में ही ना लूं, उसे उलांघते हुए अपने फैसले पर पहुंच जाऊं. ऐसा करना तो ‘आधुनिकता की आवाजों’ के निष्ठुर सांस्कृतिक औद्धत्य का ही नमूना होगा. इसमें सदाशयता और उदारता है ही क्या?
आइए, मुश्किल को पहचानें और उसका मुकाबला करें. यूनिफार्म की हिंदी होती है गणवेश. कोई वेश अगर गणवेश बन जाये तो उसमें स्वाभाविकता क्या रही? पोशाक के बारे में संहिता बनाना और यूनिफॉर्म (गणवेश) के रूप में लागू करने का मतलब है, समय के किसी खास मुकाम पर जिस तर्ज की पोशाक को आम-फहम माना जा रहा है, लोगों से उसे अपनाने को कहा जा रहा है. समाज का जो सांस्कृतिक-समूह अपनी औकात में बढ़ा-चढ़ा होता है वही तय करता है कि किस चीज को आम-फहम माना जायेगा और किसी चीज को नहीं. जैसा कि इस मुद्दे पर अपने धारदार हस्तक्षेप के सहारे निवेदिता मेनन ने याद दिलाया है: ‘गणवेश (यूनिफॉर्म) को अनिवार्य बना देने से समानता और न्याय की स्थापना नहीं हो जाती.’ जिन चीजों को सहज-सामान्य माना और बताया जा रहा है, उन्हें लगातार परखने और सुधारने की जरूरत होती है— ऐसा अक्सर ही किया जाना चाहिए.
अभी कुछ समय पहले तक स्कर्ट नर्सों का यूनिफार्म (गणवेश) हुआ करता था. फिर नर्सों ने इसका प्रतिकार किया और उनके कहे के मुताबिक सलवार-कमीज को नर्सों का यूनिफार्म बनाया गया. हर समाज चालू सामाजिक बर्तावों के साथ मुठभेड़ ठानता ही है और इसी क्रम में ये तय होता है कि किस चीज को सामाजिक आचरण के रूप में सहज-सामान्य माना जायेगा, किस चीज को नहीं.
कर्नाटक के स्कूल-कॉलेज के यूनिफॉर्म को लेकर जारी मौजूदा विवाद का रिश्ता इसी बात से है. इस विवाद को ऐसे फरमान के सहारे नहीं सुलझाया जा सकता कि फलां पोशाक तो पिच्छलपैरी रिवायत का नमूना है. ना ही, इसे धार्मिक अभिव्यक्ति की असीमित स्वतंत्रता के तर्क से ही सुलझाया जा सकता है. जब तक हम गणवेश तय करने के विचार का ही त्याग नहीं कर देते (और मेरी नजर में ऐसा करना अच्छा ही है) तब तक हमें यही मानकर चलना चाहिए कि हर समुदाय को सांस्कृतिक और सांस्कृतिक आत्माभिव्यक्ति का अधिकार है और इस अधिकार के दायरे में यह भी आता है कि वह पोशाक कैसी पहने. ऐसे मसलों का समाधान किया जा सकता है. दरअसल हमारे देश में ऐसे मसले तो दैनंदिन तौर पर सुलझाये जाते हैं. बस हमें आपस में सहमति बनानी होगी कि ऐसे विवाद को किस मंच के जरिये सुलझाया जाये और विवाद को सुलझाने की ऐसी ठीक-ठीक क्या प्रक्रिया अपनायी जाये कि जो वह दोनों पक्षों को स्वीकार हो.
यही वजह है कि असहमति की आवाज में बोल रहे उदारवादियों का उठाया हुआ सवाल गलत है. मौजूदा सवाल यह है ही नहीं कि हिजाब पहनने से फायदे क्या-क्या हैं और नुकसान क्या-क्या. कम-उम्र मुस्लिम महिलाओं को हिजाब पहनना चाहिए या नहीं— यह बहस परिवार के भीतरखाने, दोस्तों, समुदाय, हॉस्टल-रूम और कॉलेज-कैंटीन के अंदर चलनी चाहिए. मैंने बचपन से ही ऐसी बहस को अपने सिख साथियों के बीच चलते देखा है कि उन्हें केश कटाने चाहिए या नहीं, पगड़ी धारण करना चाहिए या नहीं. ऐसे सवाल पर जोरदार बहस, भावनात्मक उद्वेलन, माता-पिता और संतान के बीच तर्क-ए-ताल्लुक— बहुत कुछ गुजरा है मेरी नजरों से.
मैंने देखा है कि 1984 के बाद सिख समुदाय के साथियों ने दाढ़ियां पहले की तुलना में लंबी रखनी शुरू कर दीं और ये भी देखा कि एक दशक बाद ऐसी लंबी दाढ़ियों का रिवाज खत्म हो गया. तो, ऐसी बहस किसी समाज और समुदाय के बीच चलते रहनी चाहिए. जिन्हें लगता है कि हिजाब पिछड़ी रिवायत का नमूना है उन्हें इस बहस में शिरकत करनी चाहिए और मसले पर मौजूद सहमति को बदलने की कोशिश करनी चाहिए.
लेकिन आज की तारीख का असल सवाल ये नहीं है. सवाल हिजाब के गुण-दोष के बारे में नहीं बल्कि इस बारे में है कि हिजाब कौन पहने और कहां पहने— यह तय कौन कर रहा है? क्या बहुसंख्यक समुदाय ये मांग कर सकता है कि जो-जो चीजें उसे सहज-सामान्य लगती हैं, वह समाज के शेष समुदायों पर भी थोप दी जानी चाहिए? क्या शिक्षा के संस्थानों को पहले से चले आ रहे रीत-नीत को एकतरफा अपनी तरफ से बदल देना चाहिए और प्रभावित छात्र, उनके अभिभावकों की बातों को सुनना ही नहीं चाहिए? क्या सियासी तौर पर जो तबका बहुसंख्यक है वह धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक तबके के अधिकारों को कुचल दे? बात इससे भी ज्यादा बुरी हो चली है सो पूछा जाना चाहिए कि क्या सड़कछाप हुड़दंगियों और उनके सियासी आकाओं को यह अधिकार दे दिया जाये कि वे ही तय करें कि कौन क्या पहने और क्या नहीं?
यहां एकमात्र प्रासंगिक सवाल यही है जिसका उत्तर ढूंढ़ने की जिम्मेवारी हम भारतीयों के कंधे पर आन पड़ी है. वक्त के इस मरहले पर इस सवाल को मसले से जुड़े बाकी सवालों (जो संभवतया अच्छे सवाल हैं) से मिलाना दरअसल सड़कछाप हुड़दंगियों के हाथों बिछाये गये फंदे में फंसने के समान है. जरा आप गौर करें कि घटना हो कहां रही है और घटना हो किस वक्त रही है. घटना कर्नाटक के तटीय इलाके में हो रही है जो सांप्रदायिकता की गहरी चपेट में आया इलाका है. विवाद लंबे समय से सुलगता आ रहा था लेकिन विवाद की लपटों में तेजी आयी यूपी के चुनावों से ऐन पहले, ठीक उस वक्त जब बीजेपी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिन्दू-मुस्लिम विभाजन की अपनी लकीर को बनाये-चलाये रखने में नाकाम हो रही थी. अब ये बात कहने की जरूरत नहीं कि विवाद हिन्दू बनाम मुसलमान की भावनाओं को भड़काये रखने के लिए पैदा किया गया ताकि हुड़दंगियों की जमात जब सड़कों पर अपनी लीला करे तब बुद्धिजीवियों की एक जमात को हिजाब के गुण-दोष विवेचन की बहस में उलझना पड़े.
गलत सवाल का सही जवाब चाहे जितना भी सही हो, अपनी अंतिम परिणति में गलत ही होता है. जब हम अपने पर थोप दिये गये एक जाहिर से गलत सवाल का बड़ा जाहिर सा सही जवाब दे रहे होते हैं तो हम सिर्फ गलत जवाब नहीं दे रहे होते बल्कि हम एक जोखिम उठा रहे होते हैः सही-गलत की अपनी समझ से छोड़ देने का जोखिम.
(लेखक स्वराज इंडिया के सदस्य और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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