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Friday, 20 December, 2024
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कश्मीर चुनाव के नतीजे बताते हैं कि इस राज्य को राष्ट्रीय सुरक्षा संकट में गिनना बंद कीजिए

चुनाव-दर-चुनाव कश्मीर की जनता यही दिखाती रही है कि बाकी भारतीयों की तरह वह भी एक ऐसा भविष्य चाहती है जो लोकतांत्रिक अधिकारों और मूल्यों पर आधारित हो.

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बात 1977 की है. दो सप्ताह बाद ही आम चुनाव होने वाले थे, जिनमें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को मात देने जा रहे मोरारजी देसाई कश्मीर घाटी में श्रीनगर के पुराने मोहल्ले राजौरी कदल को प्रभावशाली इस्लामी मौलाना मीरवाइज़ मुहम्मद यूसुफ शाह के दौलतखाने ‘मीरवाइज़ मंजिल’ से जोड़ने वाले छोटे-से पुल को पार कर रहे थे. वहां माहौल में जमा भीड़ की तालियों के बीच कश्मीरी महिलाओं का पारंपरिक गीत गूंज रहा था. उनके स्वागत में सप्तम सुर में गाए जा रहे इस गीत ‘सब्ज़ दस्तरुस खुदाह च्ये राज़ी, पाकिस्तानुक गाज़ी अऔ’ के बोल वयोवृद्ध नेता देसाई पर गरमी की चमकती धूप के साथ रोशनी की पंखुड़ियों की तरह बरस रहे थे.

इस कश्मीरी गीत का अर्थ है — ‘खुदा को हरी पगड़ी पर भरोसा है. पाकिस्तान से आए पाक गाज़ी का इस्तकबाल करो’. अपने इस तरह के स्वागत पर खादीधारी गांधीवादी और पक्के हिंदू — स्वमूत्र सेवन उपचार की पैरवी करने वाले — नेता देसाई ने क्या प्रतिक्रिया दी थी वह दुर्भाग्य से इतिहास में ही दफन होकर रह गई.

कश्मीर की विशेष संवैधानिक हैसियत को खत्म किए जाने के पांच साल बाद हुए चुनाव में इसके नागरिकों ने उस परिवार के नेतृत्व वाले गठबंधन के पक्ष में फैसला सुनाया है, जिस परिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई पीढ़ियों को बर्बाद करने का दोषी बता चुके हैं. नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेतृत्व वाले गठबंधन को परे रखने के लिए केंद्र सरकार ने जमात-ए-इस्लामी और अलगाववादी रुझान वाले राजनीतिक नेता ‘इंजीनियर’ अब्दुल रशीद शेख से लगभग खुले आम मेलजोल भी बढ़ाया.

भारत सरकार और कश्मीरी इस्लामवादियों का गठबंधन असंभव दिख सकता है, लेकिन यह एक टिकाऊ ऐतिहासिक पहचान और गहरा नुकसान पहुंचाने वाला गठजोड़ है. प्रधानमंत्री मोदी अगर यह दिखाना चाहते हैं कि वे ‘नया कश्मीर’ बनाने को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें वहां नाज़ुक बहुमत से सत्ता में आने वाली नई सरकार को कमजोर करने के लिए धार्मिक दक्षिणपंथ का इस्तेमाल करने के लालच से बचना होगा.


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कश्मीर में कौमपरस्ती की होड़

उनके हाथ में रुमाल हल्के-हल्के फड़फड़ा रहा था, इसका मतलब बताने के लिए कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी : पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की तत्कालीन अध्यक्ष और भावी मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती छवियों की ताकत से अच्छी तरह वाकिफ थीं. 1977 में कश्मीर के पूर्व प्रधानमंत्री शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के मुख्य सिपहसालार मिर्ज़ा अफज़ल बेग पूरे चुनाव के दौरान अपने हाथ में इसी तरह का हरा रूमाल लहराते दिखे थे. उस रुमाल में भारतीय समुद्र का नमक नहीं बल्कि पाकिस्तान का सेंधा नमक बंधा था, जो अलगाव के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का सबूत पेश करता था.

पाकिस्तान में अपने अड्डों से जिहादी यह जता रहे थे कि वह वादा एक फरेब था, वह जैसा कि हिज्बुल मुजाहिदीन के एक प्रवक्ता ने चेताया, “मिट्टी के रंग में रंगा एक फंदा!” था. वैसे, असली फंदा खुद भारत ने अपने लिए तैयार किया था.

भारत की खुफिया एजेंसियां ‘रॉ’ के चीफ अमरजीत सिंह दुलत के नेतृत्व में वर्षों से कोशिश कर रही थीं कि कश्मीरी अलगाववादी जमातें चुनावी राजनीति में फिर से शामिल हों. हिज्बुल मुजाहिदीन के पाकिस्तान स्थित मुखिया मुहम्मद यूसुफ शाह ने जब मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के उम्मीदवार के तौर पर 1987 का चुनाव लड़ा था और हार गए तब उन्होंने पीडीपी के ‘लोगो’ कलम-दावात का ही इस्तेमाल किया था.

फिर कई प्रमुख अलगाववादी नेता जल्दी ही पीडीपी में शामिल हो गए. जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की सुप्रीम काउंसिल के पूर्व सदस्य पीर मंसूर तब महबूबा मुफ्ती के राजनीतिक सलाहकार बन गए; मौलाना मीरवाइज़ उमर फारूक के करीबी सहयोगी मुहम्मद याकूब वकील उनकी पार्टी में शामिल हुए; एक समय जमात-ए-इस्लामी के चीफ गुलाम मोहम्मद भट के भाई अब्दुल खलीक भट सोपोर से पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में खड़े हुए.

नई दिल्ली के लिए महत्वपूर्ण बात यह भी थी कि पार्टी ने हिज्बुल मुजाहिदीन के गुलाम रसूल खान सरीखे अहम शख्सों के साथ संबंध बना लिए थे.

पीडीपी का उत्कर्ष नेशनल कॉन्फ्रेंस के वजूद के लिए खतरा साबित होने लगा, दोनों पार्टियां जल्दी ही कौमपरस्ती को बढ़ावा देने की होड़ में शामिल हो गईं. यह होड़ 2008 में इस हद तक पहुंची कि अमरनाथ मंदिर के लिए सरकारी ज़मीन लीज़ पर दिए जाने का सांप्रदायिक विरोध किया गया. इस्लामवादियों ने इस हिंसक आंदोलन की आग को और हवा दी, तो पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता इसके जरिए अपनी वैधता बढ़ाने के फेर में समर्थन जुटाने लग गए.

दक्षिण कश्मीर के वंडी-वलगाम में स्थानीय कांग्रेस नेता अपने सहयोगी दल के नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद का पुतला जलाने लगे, तो पाईबघ में नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ता विरोधकर्ताओं का नेतृत्व कर रहे थे. नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ता जिहादियों द्वारा सैकड़ों की संख्या में मारे गए फिर भी इस पार्टी के लोगों ने गांदरबल के पास आंदोलन में मारे गए पाकिस्तानी जिहादियों के लिए स्मारक बनवाने में मदद की.

प्रमुख पार्टियों के समर्थन से उत्साहित इस्लामवादियों ने आंदोलन तेज़ कर दिया. पूर्व जमीअत-उल-मुजाहिदीन का आतंकवादी मसारत आलम भट, दुख्तरान-ए-मिल्लत की नेता आसिया अन्द्राबी और अलगाववादी नेता मेहराजुद्दीन कलवल ने प्रवासी मजदूरों, वेश्यावृत्ति, यौन आज़ादी, शराबखोरी आदि के खिलाफ मुहिम का नेतृत्व किया और इसे इस्लाम के खिलाफ भारतीय साजिश की मुखालफत बताया. जिन स्कूलों में मदर टेरेसा, भगत सिंह की तस्वीरें लगाई गई थीं उन स्कूलों पर इस्लामवादियों ने हमले किए, उनकी टीचरों का अपहरण किया क्योंकि वह बुर्का नहीं पहनती थीं. जो लोग पर्याप्त रूप से पाक नहीं नज़र आते थे उन्हें सार्वजनिक रूप से यातनाएं भी दी गईं.

लोकतांत्रिक पार्टियां जबकि कश्मीरी इस्लामवादियों का समर्थन जुटाने की कोशिश कर रही थीं, लोकतांत्रिक व्यवस्था को धीरे-धीरे कमजोर किया जा रहा था. 2016 में, दक्षिण कश्मीर में ग्रामीण असंतोष फूटा था तब नेशनल कॉन्फ्रेंस की प्रमुख नेता सकीना इटू ने कहा था कि “सियासत यही है. आखिर, 2008 में हमारे कार्यकर्ता पीडीपी विरोधी आंदोलन में शरीक हुए ही थे.”


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स्थायी भ्रांति

1984 के राजनीतिक संकट में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला को बर्खास्त किया गया था, उसके बाद कश्मीर में लंबे जिहाद का रास्ता साफ हो गया था. कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने घोषणा की थी कि “मुझे लोकतांत्रिक मानदंडों की परवाह नहीं है. केवल उनकी खातिर मैं कश्मीर को हाथ से जाने नहीं दे सकती.” राजनीतिशास्त्री नवनीता चड्ढा बेहेरा ने उस क्षेत्र की राजनीति पर अपनी प्रामाणिक किताब में लिखा है कि कश्मीर के भविष्य को लेकर ‘प्लेबिसाइट’ (रायशुमारी) करवाने के पक्ष में चल रहे शेख अब्दुल्ला के आंदोलन को कुचलने के क्रम में इंदिरा गांधी लोकतंत्र के प्रति लापरवाह होती चली गई थीं.

उन्होंने सबसे दूरगामी असर डालने वाले जो कदम उठाए उनमें एक था — जमात-ए-इस्लामी को 1972 का चुनाव लड़ने के लिए रास्ता बनाना, जबकि जमात ने भारत में कश्मीर के विलय को कबूल नहीं किया था. वैसे, शेख अब्दुल्ला के ‘प्लेबिसाइट फ्रंट’ को इसी आधार पर प्रतिबंधित किया गया था.

हालांकि, जमात केवल पांच सीटें जीत पाई थी, लेकिन उसे राजनीतिक और संवैधानिक वैधता हासिल हो गई थी. उसे अपने स्कूल और मदरसे खोलने, मस्जिदें बनाने, प्रचार करने और नौकरशाही में अपने लोगों को शामिल करने की छूट मिल गई थी. इसके नेता सैयद अली शाह गिलानी ने बाद में पत्रकार आशा खोसा से कहा था कि जमात-ए-इस्लामी के लिए चुनावी राजनीति ‘इस्लामी स्टेट’ बनाने का महज़ एक औज़ार है जिसमें “समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के उसूल हमारी ज़िंदगियों को नहीं छुएंगे और हम पूरी तरह से कुरान के मुताबिक चलेंगे”.

1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में विजय के बूते इंदिरा गांधी शेख अब्दुल्ला को नीचा दिखाने में सफल रहीं और चार साल बाद उन्होंने शेख को वह समझौता मंजूर करने पर मजबूर कर दिया जिसने कश्मीर की विशेष हैसियत को लगभग खत्म कर दिया. इस समझौते के बाद इंदिरा गांधी ने युद्ध के बाद पहली बार कश्मीर का दौरा किया, जिस दौरान शिकारा में जुलूस भी निकाला गया था जिसमें शिकारे “पगड़ीधारी नाविक चला रहे थे और यह मुगल बादशाहों के दौरों की याद दिला रहा था”.

नेशनल कॉन्फ्रेंस ने हालांकि, रायशुमारी के वादे को बाद में रद्द कर दिया, लेकिन कश्मीर में एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी की हैसियत बनाने में उसे कड़ी मशक्कत करनी पड़ी. शेख अब्दुल्ला पर निगरानी में जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया गया और उसके नेताओं को जेल में डाल दिया गया. इमरजेंसी खत्म होने के बाद 1977 में जमात-ए-इस्लामी भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ के साथ खड़ी हो गई. इस गठजोड़ का ही नतीजा था प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का वह अनोखा कश्मीर दौरा, जिसमें उनका स्वागत पाकिस्तान से आया गाज़ी बताकर किया गया था.

नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भी मज़हब का इस्तेमाल करके अपनी वापसी की. शेख अब्दुल्ला ने कहा था कि जमात को वोट देने का मतलब है बंटवारे के दौरान बदनाम हुए जनसंघ को वोट देना, जिसके “हाथ अभी भी मुसलमानों के खून से रंगे हुए हैं”. नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेताओं का कहना था कि अगर जमात और जनता पार्टी के गठबंधन की सरकार बनी तो इस्लाम खतरे में आ जाएगा.

बेहेरा ने लिखा है कि इंदिरा गांधी ने हिंदू-बहुल जम्मू में सांप्रदायिक असुरक्षा की भावना को निरंतर बढ़ाया और लोगों को यह चेतावनी देती रहीं कि इस्लाम और अलगाव से केवल वही बचा सकती हैं. 1977 का चुनाव कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस, दोनों के लिए लाभकारी साबित हुआ, दोनों ने सांप्रदायिक पहचान का सहारा लेकर अपना-अपना क्षेत्रीय आधार मजबूत किया. कश्मीर की सियासत की दिशा तय कर दी गई, जिसके दुखद नतीजे हासिल हुए.


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चिंताजनक अपशकुन

2024 के चुनाव को हालांकि, कश्मीर में लोकतंत्र बहाली और उसे पूर्ण राज्य का दर्जा देने की दिशा में उठाया गया निर्णायक कदम बताया गया, लेकिन इसके नतीजों से जुड़ीं तीन बातें उतनी गुलाबी-गुलाबी नहीं नजर आतीं. पहला तत्व यह है कि इंजीनियर रशीद और जमात-ए-इस्लामी को चुनाव में तो करारी मात मिली है, लेकिन राजनीति में उनकी वापसी ने उनके विचारों के लिए राजनीतिक जगह बना दी है. युवा मतदाताओं की उम्मीदों को पूरा करने में नाकामी लोकतांत्रिक राजनीति को लेकर निराशा को फिर से बड़ी आसानी से मजबूत करेगी. दूसरी बात यह है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन को मिला कमजोर बहुमत कश्मीर में बनी नई सरकार को कमजोर करने का मौका तथा लालच केंद्र सरकार को दे सकता है.

तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जम्मू-कश्मीर सांप्रदायिक आधारों पर उसी तरह बुरी तरह बंटा हुआ है जिस तरह वह 1977 और 1983 में लंबे जिहाद की ओर बढ़ते हुए बंटा हुआ था. 2008 के बाद हुई घटनाओं के कारण यह खाई जिस तरह और चौड़ी हुई है वह पूरे कश्मीर की स्थिरता के लिए एक दीर्घकालिक खतरा है जिसका अलगाववादी तत्व फायदा उठाने की कोशिश करेंगे.

इस क्षेत्र की नियति तय करने वाले संकटों की शुरुआत 1963 के उत्तरार्द्ध में तब हुई थी जब भारतीय शासनतंत्र पूरे कश्मीर से लापता हो गया था और कश्मीरी नेता गुलाम मुहम्मद सादिक ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक तीखा पत्र लिखा था कि उनकी नीतियां “लोगों के आदिम डर” से संचालित हैं. चुनाव-दर-चुनाव कश्मीर की जनता यही प्रदर्शित करती रही है कि बाकी भारतीयों की तरह वह भी एक ऐसा भविष्य चाहती है जो लोकतांत्रिक अधिकारों और मूल्यों पर आधारित हो.

कश्मीर को भी भारत के बाकी किसी हिस्से जैसा तभी बनाया जा सकता है जब उसके साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जाएगा जैसा भारत के दूसरे किसी हिस्से के साथ किया जाता है. इस बार के चुनाव नतीजे प्रधानमंत्री को बस इसी रास्ते पर चलने की चुनौती दे रहे हैं.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के कन्ट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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