scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतराष्ट्रीय स्मारकों को लेकर नई उलझन इस बात की है कि ‘किसने क्या तोड़ा’

राष्ट्रीय स्मारकों को लेकर नई उलझन इस बात की है कि ‘किसने क्या तोड़ा’

विरासतों को लेकर हिंदुत्व की राजनीति 'सुरक्षा' और 'तोड़े जाने' के मुद्दे को हल करने की स्थिति में नहीं है.

Text Size:

बतौर स्कूली छात्र 1986 में मुझे पूरी तरह यकीन था कि बाबरी मस्जिद नहीं ढहाई जा सकती. मैं अमूमन अपने दोस्तों से कहा करता था कि संरक्षित स्मारक होने के नाते उस मस्जिद की रक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है. मैंने दिल्ली में हर ज्ञात ऐतिहासिक स्थल के प्रवेश द्वार पर ‘संरक्षित स्मारक’ की नीले बोर्ड पर लगी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पट्टी लगी देखी थी और इस भुलावे में था कि सभी स्मारकों को धरोहर मानकर ‘सुरक्षित’ किया गया था. दुर्भाग्य से, मैं गलत था. बाबरी मस्जिद राष्ट्रीय महत्व की संरक्षित स्मारक नहीं थी. इसलिए उसके मामले में सरकार और राजनैतिक वर्ग की भी कोई नैतिक दायित्व नहीं था.

फिर भी, 1992 का बाबरी मस्जिद कांड हमें, खासकर ‘राष्ट्रीय महत्व’ के गहरे राजनैतिक विचार के बारे कुछ बुनियादी सवाल पूछने को उकसाता है. मसलन, किसी स्मारक के राष्ट्रीय महत्व को तय करने की ताकत किसके पास है? इससे कौन-से कानूनी पहलू जुड़े हैं? क्या किसी संरक्षित स्मारक का गैर-राष्ट्रीयकरण करना कानूनन संभव है? ये तकनीकी सवाल ही असल भारत की राष्ट्रीय पहचान की बहस में सीधे योगदान करते हैं, जो हमारे मौजूदा राजनीतिक संदर्भ से गहरे जुड़ा है.

स्मारक और स्मारकीकरण

हिंदुस्तान टाइम्स में एक बेहद ईमानदार, वस्तुनिष्ठ और जानकारियों से भरे लेख में संजीव सान्याल और जयसिम्हा के.आर. ने राष्ट्रीय संरक्षित स्मारकों (एनपीएम) से जुड़ी कुछ मुख्य समस्याओं पर प्रकाश डाला है. वे चार महत्वपूर्ण मुद्दों की पहचान करते हैं. एक, कम महत्व के स्मारकों को राष्ट्रीय सूची में शामिल करना; दो, कई अस्थिर पुरावशेषों का समावेश; तीन, अप्राप्य स्मारक, और अंत में, राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों की भौगोलिक स्थितियों में गंभीर असंतुलन.

सान्याल और जयसिम्हा हमारे सामने नीतियों के मायने में समाधानों का एक दिलचस्प सेट रखते हैं. सबसे पहले, केंद्र सरकार राष्ट्रीय महत्व को परिभाषित करे. दूसरे, वह छोटे स्मारकों को गैर-अधिसूचित कर दे और/या उन्हें राज्य सरकारों और दिल्ली स्थित इनटैक (इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट ऐंड कल्चरल हेरिटेज) जैसी स्वतंत्र संस्थाओं को सौंप दे.

तीसरे, विशेष महत्व के अस्थिर पुरावशेषों को विशेष और उपयुक्त संग्रहालयों में स्थानांतरित कर दे. चौथे, राष्ट्रीय महत्व केे लापता वस्तुओं को खोजने की व्यवस्थित कोशिश की जाए. और अंत में, वाजिब भौगोलिक/क्षेत्रीय संतुलन बनाया जाए.
इन व्यावहारिक सुझावों के महत्व से कोई इनकार नहीं कर सकता. हालांकि, विरासत की देख-रेख उतना आसान नहीं है, जितना लगता है. इसलिए, ऐसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक हस्तक्षेप को व्यापक कानूनी-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए.

हमें याद रखना चाहिए कि खंडहर और/या पुरानी ऐतिहासिक इमारतें भारत में अपने आप ‘स्मारक’ नहीं बन जाती हैं. एक विशेष प्रक्रिया के तहत ऐतिहासिक इमारतों को कानूनन राष्ट्रीय महत्व के संरक्षित स्मारकों का दर्जा दिया जाता है. यह कानूनी मान्यता ही स्मारकों के वर्गीकरण, उनकी विभिन्न सूचियां तैयार करने और उनके पर्याप्त संरक्षण से संबंधित व्यावहारिक पहलुओं की ओर ले जाती हैं. इसे ही मैं ‘स्मारकीकरण’ की प्रक्रिया कह रहा हूं.

सान्याल और जयसिम्हा दरअसल प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष कानून, 1958 को समझने में पूरी तरह नाकाम हैं. असल में, उनके सुझाव मौजूदा कानूनी ढांचे के खिलाफ कतई नहीं हैं.


यह भी पढ़ेंः हिंदुइज़्म बनाम हिंदुत्व को लेकर बहस उदारवादियों के बौद्धिक आलस को दिखाता है


केंद्र सरकार के अधिकार

सिद्धांत रूप में 1958 का कानून केंद्र सरकार को राष्ट्रीय महत्व की अवधारणा को चार अलग-अलग तरीकों से परिभाषित करने का अधिकार देता है.

एक, यह सरकार को कुछ चुनिंदा इमारतों और स्थलों के चयन का अधिकार देता है जो ‘राष्ट्रीय महत्व के स्मारक’ के रूप में संरक्षित नहीं हैं [धारा 4 (1)]. दूसरे, कानून सरकार को संरक्षण के लिए किसी भी ऐतिहासिक इमारतों के अधिग्रहण का अधिकार देता है. तीसरे, केंद्र के पास चुनिंदा ऐतिहासिक स्मारकों के ‘अराष्ट्रीयकरण’ करने का कानूनी अधिकार है [धारा 35] . और अंत में, और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि केंद्र सरकार के पास राष्ट्रीय महत्व के स्मारक की धार्मिक पहचान और उसके अंदर धार्मिक अनुष्ठान की प्रकृति तय करने का अधिकार है [धारा 16 और धारा 13(2)] . निम्नलिखित चित्र इन अधिकारों की व्याख्या करता है.

राष्ट्रीय महत्व की राजनीति

गौरतलब है कि यह अच्छी तरह से परिभाषित कानूनी ढांचा राजनीतिक वर्ग को विभिन्न तरीकों से इसके इस्तेमाल की ढेरों संभावनाएं मुहैया करा देता है. यही कारण है कि उत्तर औपनिवेशिक दौर में भारत के सार्वजनिक जीवन में राष्ट्रीय महत्व का विचार सबसे विवादास्पद सवालों में एक रहा है.

नेहरूवादी राज्य-व्यवस्था ने राष्ट्रीय महत्व की रूपरेखा एक विशेष तरीके से तैयार की. नेहरू ने दो सिद्धांतों पर जोर दिया: अनेकता में एकता, और आधुनिक भारत के लिए स्मारकों को स्थायी प्रतीक के रूप में परिभाषित करने के लिए राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में इतिहास का सक्रिय योगदान. एएसआई के शताब्दी समारोह में 14 दिसंबर 1961 को नेहरू ने कहा, ‘इस अत्यधिक उपयोगितावादी युग में कोई पुरातत्व को कैसे सही ठहरा सकता है? … व्यावहारिक उपयोगिता के मायने में आज के दावों और अतीत के दावे के बीच सीधा टकराव था…. लेकिन यह अनिवार्य था कि हम अंतत: वर्तमान के पक्ष में निर्णय लेते. और यह अतीत को भी संरक्षित करने का सबसे अच्छा तरीका निकला.’ (जे.एल. नेहरू 1964, भाषण, खंड ढ्ढङ्क, 1957-63 नई दिल्ली, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, पृष्ठ 180).

यह नेहरूवादी सर्वानुमति लंबे समय तक बनी रही. हालांकि, बाबरी मस्जिद कांड और विरासत की कट्टरपंथी हिंदुत्व राजनीति के उदय से इसे गंभीर चुनौती मिली. ‘किसने क्या बनाया’ जैसे सवाल ‘किसने क्या तोड़ा’ के राजनीति प्रेरित दावे में बदल दिया गया. इस महत्वपूर्ण बदलाव से हाल के वर्षों में पुरातत्व संबंधी अनुशासन और कामकाज भी प्रभावित हुआ है.

कुछ ‘विवादित’ स्मारकों, खासकर मुस्लिम शासकों के बनाए स्मारकों के संरक्षण को सार्वजनिक धन की बर्बादी के रूप में पेश किया जाता है. इस बीच, इन स्थलों के आसपास की खुदाई को भारत के मूल और निर्विवाद इतिहास की खोज का ईमानदार प्रयास बताया जा रहा है. ताजमहल पर हालिया विवाद इस राजनीतिक रवैये का सबसे अच्छा उदाहरण है.

वैसे भी, विरासत की हिंदुत्व राजनीति अब गंभीर संकट का सामना कर रही है. कट्टरपंथी समूहों के लिए नेहरूवादी सर्वानुमति को हिंदू विरोधी कहकर खारिज करना आसान है. उनके नजरिए से मुगल युग के स्मारकों को सुविधानुसार गुलामी और पराधीनता का प्रतीक बताया जा सकता है. हालांकि, एक झटके में खारिज करने का यह रवैया बेमानी हो जाएगा, अगर विशुद्ध पुरातात्विक और कलात्मक धरोहरों के संरक्षण और सुरक्षा की कोई रचनात्मक नीति नहीं बनाई जाती है.

हिंदुत्व के बुद्धिजीवियों की यही मुख्य चुनौती और दुविधा है. उन्हें राष्ट्रीय विरासत की नई परिकल्पना रखनी होगी. यह ऐसा होना चाहिए कि जिन स्मारकों का कोई प्रत्यक्ष राजनीतिक मूल्य नहीं है, उन्हें संरक्षण के दुनिया भर में लागू सिद्धांतों के आधार पर ‘राष्ट्रीय महत्व के स्मारक’ के रूप में मान्यता दी जा सके. साथ ही, उन्हें कुछ ज्ञात ‘विवादित’ स्थलों से जुड़े हिंदू पराधीनता के मौजूदा राजनीतिक आख्यानों को भी जारी रखना है.

हालांकि, विरासत की हिंदुत्व राजनीति अभी तक ‘संरक्षण’ और ‘ध्वंस’ के बीच टकराव को हल नहीं कर पाई है.

[हिलाल अहमद राजनीतिक इस्लाम के विद्वान हैं और नई दिल्ली में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Ahmed1Hilal है. व्यक्त विचार निजी हैं.]

इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(अनुवादः हरिमोहन)


यह भी पढ़ेंः ‘हम लोग’ के लल्लू की तरह भारतीयों के लिए राजभाषा समझ से परे, हिंदी दिवस मनाने से नहीं निकलेगा हल


 

share & View comments