आर्थिक टिप्पणीकार, अर्थव्यवस्था के बारे में सोशल मीडिया से लेकर हर जगह अपनी राय देते ही रहते हैं. वहीं मोदी सरकार आर्थिक नीतियों पर टिप्पणी करने या बयान देने के प्रति काफी उदासीन रुख अपनाती रही है. लेकिन अब जबकि चुनाव नजदीक आ रहे हैं तो सरकार केवल अच्छी ख़बरों को लोगों के सामने लाकर और भोले-भाले लोगों को भ्रमित करके, यह दिखाने की कोशिश करती है कि सब कुछ बहुत अच्छा है.
लेकिन अब, आगामी चुनावों की चकाचौंध इस धुंध को दूर कर रही है और यह उजागर कर रही है कि सरकार वास्तव में क्या सोचती है. संकेत: कि सब कुछ अच्छा नहीं है.
सबसे पहले, मैं स्पष्ट कर दूं कि यह प्रधानमंत्री की मुफ्त भोजन कार्यक्रम – पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) – को पांच साल के लिए आगे बढ़ाने वाली घोषणा के बारे में नहीं है जिसे कई लोगों ने बड़ी खुशी के साथ अर्थव्यवस्था के बारे में उनकी कमज़ोरी की स्वीकृति के रूप में लिया है. घोषणा को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है. इसे अभी तक कैबिनेट की मंजूरी भी नहीं मिली है, हालांकि इस बात की पूरी उम्मीद है कि मिल ही जाएगी.
इसके बजाय यह लेख सरकार द्वारा पिछले कुछ महीनों में लागू किए गए कई अन्य निर्णयों से संबंधित है. तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने और सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बने रहने की तमाम चर्चाओं के बावजूद, वे तथाकथित ‘के-आकृति की रिकवरी’ में सरकार के दृढ़ विश्वास को प्रदर्शित करते हैं.
आने वाले चुनावों की रोशनी में ये फैसले बयानबाजी और वास्तविकता के बीच के अंतर को भी उजागर करते हैं.
सरकार का काम
आइए मुफ़्त भोजन की घोषणा के बारे में समझते हैं. कई टिप्पणीकारों ने मोदी की हालिया घोषणा पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि इससे “साबित” होता है कि सरकार सोचती है कि 80 करोड़ लोग मुफ्त भोजन के बिना जीवित नहीं रह सकते. सबसे पहले, 80 करोड़ की संख्या 2011-12 के लिए किए गए अंतिम उपभोग सर्वेक्षण के आधार पर बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने जैसा है; वर्तमान डेटा संभवतः कम होगा.
दूसरा, अगर सरकार ने या तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 (एनएफएसए) के तहत राशन उपलब्ध कराना बंद कर दिया होता या उनके लिए फिर से पैसे लेना शुरू कर दिया होता, तो यही टिप्पणी करने वाले सरकार को लताड़ लगाते. तो आलोचना करने वाले चित भी मेरी पट भी मेरी वाले तरीके से बात नहीं कर सकते.
अंत में, 1 जनवरी को शुरू हुई शुरुआती मुफ्त भोजन योजना केवल 2023 के लिए थी. जैसे-जैसे साल ख़त्म हो रहा था, उम्मीद थी कि सरकार इसे आगे बढ़ाएगी. अब हर साल इसका नवीकरण करने के बजाय पांच सालों के लिए एक साथ इसे कर देने से यह प्रक्रिया काफी सरल हो गई है.
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जैसा कि कहा गया है, जो बात दर्शाती है कि सरकार लोगों को होने वाली परेशानी के बारे में चिंतित है, वह भारत दाल और भारत आटा की हालिया शुरुआत है. इन ब्रांडों के तहत सरकार जनता को अत्यधिक सब्सिडी वाली दालें और आटा बेचेगी.
एक ऐसी सरकार जो निजीकरण योजनाओं के बारे में इतनी मुखर है और एक प्रधानमंत्री जिसने बार-बार कहा है, “सरकार का काम व्यवसाय करना नहीं है”, खाद्य पदार्थ बेचने के व्यवसाय में प्रवेश करना दिखाता है कि भोजन की कीमत और गरीब के द्वारा इस वहन करने की क्षमता के बारे में काफी चिंता है. चुनाव नजदीक आने के कारण उसके पास ऐक्शन लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
लेकिन बात इतनी सी ही नहीं है. एक महीने से कुछ अधिक समय में एलपीजी सब्सिडी में दो बार बढ़ोत्तरी की गई है. पहली बढ़ोत्तरी – 200 रुपये प्रति सिलेंडर की – अपने आप में परेशान करने वाली थी क्योंकि इसे सभी परिवारों तक बढ़ाया गया था, न कि केवल पीएम उज्ज्वला योजना से लाभान्वित होने वाले गरीबों के लिए. अक्टूबर 2023 में योजना के लाभार्थियों को प्रति सिलेंडर 100 रुपये की अतिरिक्त सब्सिडी दी गई.
इससे पहले मई में, सरकार ने यह भी कहा था कि उर्वरक सब्सिडी पर उसका खर्च 2023-24 के लिए आवंटित की गई राशि से 30 प्रतिशत अधिक हो जाएगा.
फिर काम की मांग में वृद्धि के कारण महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (एमजीएनआरईजीएस) के लिए 10,000 करोड़ रुपये का आपातकालीन आवंटन किया गया है. मनरेगा कार्यों के लिए बजट से अधिक मांग ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कमजोरी का सीधा संकेत है.
इनमें से अधिकांश फैसलों को चुनाव की वजह से बांटी जाने वाली मुफ्त की सुविधाओं या फ्रीबीज़ कहकर खारिज करना आसान है, लेकिन तथ्य यह है कि उनकी ज़रूरत है. उदाहरण के लिए, जो लोग गरीब नहीं है उनके लिए 200 रुपये प्रति सिलेंडर की कीमत में कटौती केवल तभी आकर्षक होती है जब उनकी आय नहीं बढ़ रही हो.
इस बात का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि – जाति के मुद्दे फिर से सामने आने के साथ, बिहार के हालिया कवायद के लिए धन्यवाद – मोदी ने यह कहा: “गरीब देश में सबसे बड़ी जाति हैं”. बेशक, यह मुख्य रूप से एक राजनीतिक टिप्पणी थी, लेकिन एक आर्थिक टिप्पणी भी थी: कि गरीबों पर ध्यान केंद्रित करें.
दूसरी ओर, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सरकार का मानना है कि शीर्ष 1 प्रतिशत आबादी ठीक-ठाक काम कर रही है. बेशक, यह अमीरों के लिए चुनाव-संबंधी योजनाएं नहीं लाएगी, लेकिन यह टेस्ला और लोटस (जो आम तौर पर करोड़ों की कीमत वाली कारें बेचती हैं) और ऐप्पल जैसी कंपनियों को लुभाने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है. इन अल्ट्रा-प्रीमियम कंपनियों से भारत में न केवल निवेश करने बल्कि बेचने की भी उम्मीद की जा रही है. लेकिन ‘K’ का ऊपरी सिरा यानी कि अमीर लोग ही खरीददारी कर पाएंगे.
मई से अब तक
अब से कुछ समय पहले, मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने मई में कहा था कि अर्थव्यवस्था ऑटोपायलट मोड में चल रही है और सरकार को हस्तक्षेप करने की कोई आवश्यकता नहीं है. तब से एक मात्र अप्रत्याशित परिवर्तन इज़राइल-हमास युद्ध रहा है, जिसने अब तक भारत को किसी भी महत्वपूर्ण तरीके से आर्थिक रूप से नुकसान नहीं पहुंचाया है.
इससे सवाल उठता है: क्या मई के बाद से अर्थव्यवस्था तेजी से खराब हुई है, या उस समय सरकार की उदासीनता सिर्फ बयानबाजी थी?
यह स्पष्ट है कि आगामी लोकसभा चुनाव सरकार की भ्रमित करने की क्षमता को कम कर रहा है. ध्यान दें. अगले कुछ महीने आपको पिछले चार वर्षों की तुलना में कहीं अधिक बताएंगे.
(व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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