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Thursday, 25 April, 2024
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मोदी सरकार : न हींग लगी न फिटकरी तो रंग कैसे आए चोखा ?

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मोदी सरकार अपनी बौद्धिक पूँजी गँवा चुकी है जोकि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में मंदी और घटती गतिशीलता के लिए ज़िम्मेदार है

इए तीन प्रश्नों से शुरुआत करते हैं. क्या नरेंद्र मोदी सरकार प्रतिभा-विरोधी है? दूसरा, यदि हां, तो क्या यह सात दशकों में सबसे अधिक प्रतिभा-विरोधी नेतृत्व है? और तीसरा, क्या मोदी, भाजपा और मतदाता को इससे कोई फर्क पड़ता है?

पहले और दूसरे का जवाब हाँ है. रही बात तीसरे की तो हम उसपर बातचीत कर सकते हैं, लेकिन कुछ मूलभूत स्थापनाएं मान लेने के बाद.

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सबसे पहले कैबिनेट की बात करते हैं जो बड़े पैमाने पर अनुभवहीन है और यह बात समझ में भी आती है. भाजपा 10 वर्षों से सत्ता से बाहर रही थी और वाजपेयी के अधिकांश वृद्ध कैबिनेट सहयोगी मार्गदर्शक मंडल में भेजे जा चुके थे. राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और अनंत कुमार जैसे ‘युवा’ चेहरों को शामिल किया गया. फिर नितिन गडकरी भी हैं जो अपने राज्य में एक मंत्री (इंफ्रास्ट्रक्चर बिल्डिंग ) होने का अनुभव रखते हैं. एक और चेहरा पियूष गोयल का है जो एक ऑलराउंडर की शक्ल में उभरकर आये हैं जिन्होंने एक भरी पूरी कैबिनेट में 4 -5 महत्वपूर्ण विभागों को संभाला है. इनके अलावा आप बिना किसी से पूछे या गूगल करे मोदी की मंत्रिपरिषद के दस और मंत्री गिनाएं.

मोदी सरकार पांचवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है और मैं आपको अपनी एक ऐसी क्रूर चाल के बारे में बताने जा रहा हूँ जिसका मैंने अपने सार्वजनिक भाषण के दौरान काफी प्रयोग किया है – श्रोता चाहे पत्रकारिता के छात्र रहे हों या नामी गिरामी कंपनियों के सीईओ. इस सवाल पर कि क्या आप अपने देश के कृषि मंत्री का नाम बता सकते हैं? मुझे अभी तक जवाब में उठा हाथ नहीं दिखा है. जब आप राधा मोहन सिंह कहते हैं, तो लोग ये पूछते है कि आखिर वे हैं कौन?

सवाल अच्छा है. लेकिन क्या इससे कोई फर्क पड़ता है कि वह कौन हैं? उनके कार्यकाल में कृषि वृद्धि दर शरद पवार (यूपीए) के कार्यकाल की तुलना में घटकर आधी रह गयी है और हम सब जानते हैं कि पवार को कितनी आलोचना झेलनी पड़ी थी.

यदि पांच साल में किसानों की आमदनी को दोगुना करने के प्रधान मंत्री के 2017 के वादे को पूरा किया जाना था, तो भारत को हरित क्रांति के जैसे किसी आंदोलन की आवश्यकता थी. इसके विपरीत आज भारत का माहौल अविश्वसनीय रूप से विज्ञान और कृषि अनुसन्धान विरोधी है.

अगर शीघ्र ही सरकार सही रास्ता नहीं चुनती है तो भारत एक नयी किस्म के “ब्रेन ड्रेन” का शिकार बन जाएगा और यह होगा हमारी कृषि प्रयोगशालाओं में. आखिर गाय के गोबर (तरल, अर्ध-ठोस और खमीर उठाया हुआ) और वैदिक जैविक कृषि के विशाल भण्डार में अनुसंधान की कोई ख़ास गुंजाइश नहीं दिखती.

जब लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी को हरित क्रांति की ज़रुरत महसूस हुई तब उन्होंने सी सुब्रमण्यम के रूप में शानदार और आधुनिक मंत्री को चुना । वे न न केवल चैम्पियन पादपशास्त्री नॉर्मन बॉरलॉ को लाये बल्कि उनसे 1967 तक काम भी लिया. इसके अलावा एम एस स्वामीनाथन और एम एस रंधावा के नाम भी उल्लेखनीय हैं। इस सरकार ने हरित क्रांति 2.0 के लिए किसे चुना है ?


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अन्य क्षेत्रों के हालात समझने के लिए कृषि मंत्रालय एक अच्छा रूपक है. जब मैं स्वास्थ्य, रसायन और उर्वरक, भारी उद्योग, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, सामाजिक न्याय, और सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रियों के नाम पूछता हूँ, तो मेरे हाथ निराशा के आलावा कुछ नहीं लगता. यह निस्संदेह ही हमारे इतिहास की सबसे सबसे “नेमलेस” एवं “फेसलेस” कैबिनेट है.

यह सही भी होता अगर प्रधान मंत्री को मध्य में रखकर एक अच्छी टीम बनायी गयी होती क्योंकि आख़िरकार शासन, विचार और कार्यान्वयन की प्रक्रियाएं उनके ही कार्यालय से संचालित होती हैं. उनके पास निश्चित तौर पर कुशल और समर्पित सरकारी अफसर हैं लेकिन रचनात्मकता कहाँ से लायी जाए? निश्चित रूप से प्रधान मंत्री बुद्धिमान हैं और जैसा कि वे कहते हैं, उन्होंने देश के हर ज़िले की यात्रा की है. लेकिन विश्व का महानतम नेता भी एक महादेश के आकार वाले देश को अकेले नहीं चला सकता.

यह मात्र एक संयोग नहीं है कि प्रधानमंत्री को ध्यान में रखकर बनाये गए अधिकांश सलाहकार समूह या तो भंग कर दिए गए हैं या उनकी अहमियत काफी घट चुकी है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड (एनएसएबी) अपने अतीत की एक छोटी, अपेक्षाकृत अदृश्य पांच सदस्यीय छाया भर रह गयी है. यह संस्था किसी समय जब यह एक प्रमुख सामरिक शक्ति थी और इसने परमाणु सिद्धांत का महत्वपूर्ण मसौदा तैयार किया था. इसमें सार्वजनिक बुद्धिजीवियों और सामरिक विचारकों सहित विभिन्न पृष्ठभूमि से चुने गए सदस्य थे. अब वे सदस्य अपनी अपनी रूचि के क्षेत्रों में चुपचाप काम कर रहे हैं. अटल बिहारी वाजपेयी और ब्रजेश मिश्रा द्वारा शुरू किया गया विचारों के आदान प्रदान की प्रक्रिया अब समाप्त हो चुकी है. यह छोटा और नया एनएसएबी पूरी तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तत्वावधान में काम करने वाला एक घरेलू संसाधन बन चुका है.

प्रधान मंत्री और कैबिनेट के लिए बनायीं गयी दोनों सलाहकार परिषदें सुचारु रूप से काम करने में विफल रही हैं. मोदी सरकार ने अपना कार्यकाल लगभग पूरा होने के समय मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त किया है. इस पद के लिए एक शीर्ष वैज्ञानिक को ढूंढ तो लिया गया लेकिन इसकी अहमियत राज्य मंत्री से घटाकर सचिव स्तर की कर दी गयी. इससे जब पहले परमाणु वैज्ञानिक आर चिदंबरम ने एपीजे अब्दुल कलाम का स्थान लिया था, तब इस पद को कैबिनेट रैंक से घटाकर ‘मिनिस्टर ऑफ स्टेट’ स्तर पर ला दिया गया था. प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष भारत रत्न, प्रोफेसर सीएनआर राव हुआ करते थे. यह संस्था भी अब कमोबेश बेकार हो चुकी है.

मोदी सरकार ने अपने शासन के चार वर्षों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज्ञात चार में से तीन अर्थशास्त्री खो दिए: रघुराम राजन, अरविंद पनगढ़िया और अरविंद सुब्रमण्यम. चौथे और आरबीआई के मौजूदा गवर्नर उर्जित पटेल, सभी मायनों में पेशेवर सम्मान और संस्थागत स्वायत्तता के लिए लड़ रहे हैं. पटेल के लिए हालात और भी बुरे हैं क्योंकि नोटबन्दी ने देश को जो आर्थिक झटका दिया है उसकी ज़िम्मेदारी अंततः उनकी भी है, चाहे उन्होंने ऐसे न चाहते हुए ही क्यों न किया हो.

देर से ही सही, नोटबन्दी से जूझ रही भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए इस सरकार ने प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद् को पुनर्जीवित किया. लेकिन क्या आप जानते हैं कि प्रधानमंत्री इस परिषद् से मिलते ही नहीं हैं. वे केवल दो प्रमुखों से संपर्क में रहते हैं, अर्थशास्त्री बिबेक दबरॉय और पूर्व आईएएस अधिकारी रतन वातल . बाकी बचे चार सदस्यों का महत्त्व नाममात्र का ही है. मेरी जानकारी के अनुसार देबरॉय और वातल द्वारा प्रधान मंत्री के लिए तैयार की गई अधिकांश रिपोर्टों को इन “बाहरी लोगों” के साथ भी साझा नहीं किया जाता है. यह पूरी तरह से प्रधानमंत्री के करीबियों की सरकार है और बाहरवाले बस उपयोगी चीयरलीडर भर हैं.

विद्वानों के खिलाफ वैमनस्य का माहौल है . हमें यह तभी समझ जाना चाहिए था जब प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान “हार्ड वर्क बीट्स हारवर्ड ” कहकर चुटकी ली थी . इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हार्वर्ड पहुंचना आसान नहीं है और उसके लिए कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है और सरकार यदि खुले दिमाग से सोचे तो वह हार्वर्ड, एमआईटी, येल और यहां तक कि जेएनयू से भी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को चुन सकती है. किसी को आश्चर्य नहीं हुआ जब सरकार ने सुब्रमण्यम की सेवानिवृत्ति के बाद मुख्य आर्थिक सलाहकार की नियुक्ति के लिए न्यूनतम योग्यता में महत्वपूर्ण बदलाव किया. नए सीईए को अब अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की आवश्यकता नहीं है. मुझे लगता है कि “कड़ी मेहनत” का सबूत ही अब पर्याप्त होता है.

मोदी और अमित शाह दोनों का मानना था कि वाजपेयी की एनडीए कैबिनेट दरअसल भाजपा की नहीं थी. अब जब उनके पास बहुमत था, वे किसी भी बाहरी व्यक्ति को सहन नहीं करने वाले थे, चाहे कोई अद्वितीय प्रतिभा ही क्यों न हो.

यह हमें हमारे तीसरे प्रश्न पर लाता है. क्या यह मतदाता के लिए महत्वपूर्ण है? अच्छे नेता तीक्ष्ण बुद्धि से लैस होते हैं. लेकिन महान नेताओं के दिल भी बड़े होते हैं. इंदिरा गांधी भी अपने कार्यालय से सरकार चलाती थी, लेकिन उनके चारों और प्रतिभावान व्यक्तियों की एक भीड़ थी. या रोनाल्ड रीगन, जोकि एक आकर्षक वक्ता और एक सहज नेता, ज़रूर थे लेकिन बौद्धिकता के मामले में वे कमतर थे. उन्होंने एक अति प्रतिभाशाली आर्थिक और सामरिक टीम बनाई और शीत युद्ध जीता.


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नरेंद्र मोदी और अमित शाह का मानना था कि उन्हें जिस चीज़ की आवश्यकता थी वह उनकी पार्टी के अंदर ही उपलब्ध थी. लेकिन, हर तरह की पूँजी सीमित है. मोदी सरकार ने अपने बौद्धिक पूंजी को अपने तीसरे वर्ष तक समाप्त कर लिया.

बुलाया दो हालिया, लेकिन इस सरकार द्वारा अपेक्षाकृत कम प्रचारित किए गए रिफॉर्म रोल-बैक इसे दर्शाते हैं: मेडिकल शिक्षा सुधार बिल, जिसका मसौदा तैयार करने में नीति आयोग ने चार साल लगाए थे और निजी कंपनियों द्वारा कोयले की खानों की बिक्री । यह अपना होम-वर्क ढंग से न कर पाने और उससे उपजी बेचैनी का नतीजा था।एअर इण्डिया की बिक्री में हुई गड़बड़ी भी इसी प्रवृत्ति की देन है। उस ऑफर को ऐसा बनाया गया कि कोई नशेड़ी भी उससे दूर ही रहेगा.

यह मोदी सरकार की वर्तमान स्थिति दर्शाता है: महत्वपूर्ण क्षेत्रों में मंदी, लगातार घटती गतिशीलता और चिड़चिड़ापन. मुझे नहीं लगता मैंने कभी किसी रक्षामंत्री को पत्रकारों के साथ ऐसा बुरा व्यवहार करते देखा है, खासतौर पर जब उनके प्रश्न वैध हों. यही कारण है कि जहाँ पिछले साल तक प्रधानमंत्री मोदी का दुबारा चुनकर आना निश्चित दिख रहा था वहीँ अब हालात बिलकुल अलग हैं और उनकी जीत की संभावनाएं क्षीण नज़र आती है.

Read in English : The Modi government is the most faceless, nameless & talent-averse India has seen

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