दाचीगाम नेशनल पार्क के वन रक्षकों ने कम चालाकी और थोड़ी सी गलत कमाई के साथ वह प्लॉट तैयार किया जिस पर कश्मीर का भाग्य टिका था. जब उत्साह से भरी शिकारी निकिता सर्गेयेविच ख्रुश्चेव शिकार करने वाली राइफल के लेंस से देखा तो एक हिमालयी काले भालू को भारत-सोवियत संबंधों के लिए भटकते हुए शहीद होना था. कहानी आगे बढ़ती है तो पता चलता है कि कोई भी खुद को कुर्बान करने के लिए उपलब्ध नहीं था इसलिए फॉरेस्ट गार्ड्स ने अमृतसर के एक सर्कस से एक भालू खरीद लिया. ख्रुश्चेव जहां पर शिकार करने वाली थीं वहां पर भालू को एक कैद में रखा गया ताकि सही समय पर उसे आजाद किया जा सके.
फिर योजना भयानक रूप से गलत साबित हो गई: भालू को फॉरेस्ट गार्ड की एक साइकिल मिल गई और उसने सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम सचिव के सामने ही साइकिल की सवारी करके अपनी सर्कस वाली कलाबाजियां दिखानी शुरू कर दीं.
इस हफ्ते की शुरुआत में, जब 29 देशों के अधिकारियों और विशेष आमंत्रित सदस्यों ने जी-20 बैठक के लिए कश्मीर का दौरा किया, तो राजनयिकों की एक नई पीढ़ी को कुछ कड़वे सच से अवगत कराया गया.
दिसंबर 1955 में ख्रुश्चेव की कश्मीर यात्रा ऐसे समय में हुई थी जब कश्मीर को लेकर भारत काफी अलग-थलग पड़ गया था. यह ऐसी स्थिति थी जिसकी आज के समय में कल्पना भी नहीं की जा सकती. हालांकि अमेरकी सहित कई देश जो श्रीनगर G20 में शामिल हुए वे कश्मीर पर भारत की स्थिति का समर्थन नहीं करते बल्कि वे स्पष्ट रूप से क्षेत्रीय यथास्थिति के समर्थक हैं.
बैठक में भाग न लेने वाले पांच राष्ट्रों की संख्या भले ही ज्यादा न लग रही हो लेकिन ये आगे आने वाले खतरों के लिए चेतावनी है. भले ही भारत ने सऊदी अरब के साथ अपने संबंधों को बेहतर बनाने के लिए काफी कुछ किया हो लेकिन मिस्र और ओमान सहित उसने इस बैठक में भाग नहीं लिया. मध्य पूर्व शक्ति का एक और महत्वपूर्ण स्तंभ तुर्की कश्मीरी अलगाववादियों के साथ खड़ा है. इससे पता चलता है कि मध्य पूर्व में कश्मीर को अभी भी धार्मिक पहचान के चश्मे से देखा जाता है.
और इतिहास बताता है कि महाशक्ति का समर्थन- इस मामले में, चीन, जिसने कश्मीर में जी-20 बैठक आयोजित करने की निंदा की थी- पाकिस्तान को जिहादियों को पोसने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है, यहां तक कि युद्ध का भी खतरा हो सकता है.
कस के गले लगना
शाही सामंतों की तरह, सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन और उनके सहयोगी ख्रुश्चेव को झेलम पर रेशम से सजे मेहराबों वाले एक विशेष रूप से निर्मित नाव पर रखा गया था, जो लिवरिड ओर्समैन द्वारा बनाई गई थी. कड़ाके की ठंड में श्रीनगर रीवरबैंक पर हजारों लोग नेताओं का उत्साहवर्धन करने के लिए कतार में खड़े थे. कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री, बख्शी गुलाम मुहम्मद ने एक भव्य रात्रिभोज में ख्रुश्चेव को अपने हाथों से गुश्ताबा मीटबॉल खिलाया.
बुल्गानिन ने सोवियत सरकार को दी गई एक रिपोर्ट में लिखा, “कश्मीर मुद्दे को कश्मीर के लोगों ने पहले ही सुलझा लिया है, और वे खुद को भारत गणराज्य का हिस्सा मानते हैं.”
वास्तव में, शीत युद्ध के पहले वर्षों में सोवियत राजनयिकों द्वारा कश्मीर मुद्दे पर बहुत कम ध्यान दिया गया था. संयुक्त राष्ट्र में सोवियत प्रतिनिधि ने 1948 में संघर्ष पर चर्चा के दौरान हस्तक्षेप नहीं किया. देश 1951 के सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव से दूर रहा, जिसने कश्मीर के विसैन्यीकरण और उसके भविष्य पर जनमत संग्रह का आह्वान किया.
उस दशक की शुरुआत में, हालांकि, सोवियत नेता संयुक्त राज्य अमेरिका और पाकिस्तान के बीच उभरते संबंधों को लेकर चिंतित हो गए. 1954 से, संयुक्त राज्य अमेरिका ने तुर्की, इराक और ईरान के साथ मिलकर, सोवियत विस्तार के खिलाफ एक नेटवर्क के रूप में पाकिस्तान सेना के लिए हथियारों को तेजी से उपलब्ध कराना शुरू कर दिया.
1957 में, सोवियत संघ ने संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम द्वारा समर्थित प्रस्तावों को वीटो कर दिया, जिसमें मांग की गई थी कि सुरक्षा परिषद जनमत संग्रह कराने के लिए सैन्य बल के उपयोग पर विचार करे.
हालांकि, अगले दशक के दौरान, भारतीय नेताओं के लिए यह स्पष्ट हो गया कि कश्मीर की रक्षा के लिए कस के गले लगना (A bear hug) पर्याप्त नहीं है. कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख मुहम्मद अब्दुल्ला द्वारा अलगाववाद को हवा दिए जाने की भय की वजह से 1953 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. पाकिस्तान द्वारा समर्थित निम्न-श्रेणी के आतंकवाद को उनके उत्तराधिकारी, बख्शी द्वारा रोक दिया गया था और भारत के साथ कश्मीर का संवैधानिक एकीकरण पूरा हो गया था.
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हालांकि, 1963 में, हज़रतबल की दरगाह से एक पवित्र अवशेष की चोरी के कारण बड़े पैमाने पर हिंसा हुई जिसने प्रशासन को हाशिए पर खड़ा कर दिया. संकट को उबलते राजनीतिक गुस्से के परिणाम के रूप में सही ढंग से समझा गया और अब्दुल्ला को 1964 में जेल से रिहा कर दिया गया.
इतिहासकार जेए नाइक ने कहा कि सोवियत संघ ने निर्धारित किया कि भारत और पाकिस्तान को कश्मीर को उन क्षेत्रों में विभाजित कर लेना चाहिए जिन पर उनका पहले से नियंत्रण था. हालांकि कोई भी देश इसके लिए तैयार नहीं था. कानूनी विद्वान एजी नूरानी ने कहते हैं कि कश्मीर का स्पेशल स्टेटस इसके खुद के कारणों से खत्म हो गई.
हालांकि, 1963 के संकट ने दिखाया कि भारत को अपने शासन के लिए लोकप्रिय वैधता की जरूरत थी और इसके लिए उसने मक्का की ओर रुख किया.
मक्का की ओर मुड़ना
1979 में ईरानी क्रांति के बाद, सऊदी अरब के साम्राज्य ने दुनिया भर में कट्टरपंथी आंदोलनों का समर्थन करने के लिए अपने प्रभाव का प्रयोग करना शुरू किया और कश्मीर एक प्रमुख रंगमंच था. तेहरान के कट्टरपंथियों का अनुकरण करते हुए, कश्मीर में जमात-ए-इस्लामी की छात्र शाखा नव-स्थापित इस्लामी जमात-ए-तुलबा ने युवाओं के पश्चिमीकरण की निंदा करते हुए एक आंदोलन शुरू किया और कश्मीर के सरकारी स्कूलों में अनिवार्य धार्मिक शिक्षा की मांग की.
शेख तजम्मुल हुसैन के नेतृत्व में, इस्लामी जमीयत-ए-तुलबा को रियाद स्थित वर्ल्ड असेंबली ऑफ मुस्लिम यूथ और इंटरनेशनल इस्लामिक फेडरेशन ऑफ स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन की सदस्यता प्रदान की गई – ये दोनों ने ही सोवियत संघ विरोधी जिहादियों के लिए चुंबक का काम किया.
भले ही इस्लामी जमीयत-ए-तुलबा द्वारा की गई मांगों को खारिज कर दिया गया, संगठन ने श्रीनगर में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने के लिए सरकार की अनुमति प्राप्त की. प्रतिनिधियों में मक्का में पवित्र तीर्थस्थल के इमाम, शेख ‘अब्दुल्ला बिन साबिल- इस्लामवादी कट्टरपंथियों द्वारा भव्य मस्जिद पर कब्जा किए जाने से बचे- साथ ही मदीना में पैगंबर की मस्जिद के मुअज्जिन, शेख कारी खलील शामिल थे.
भारत सरकार के लिए, सम्मेलन से संदेश- इस्लाम के खिलाफ साजिशों से सावधान रहने की चेतावनी, जाहिर तौर पर ईरान को निर्देशित किया गया- सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत के शीर्ष अधिकारियों की उपस्थिति के लिए चुकाने की एक छोटी सी कीमत लग रही थी. ऐसा लगता था कि इस्लामिक दुनिया आखिरकार कश्मीर को भारत का हिस्सा मान रही है.
हालांकि, स्थानीय स्तर पर, सम्मेलन के अनपेक्षित परिणाम होंगे. जमात-ए-इस्लामी को कश्मीर के पारंपरिक धार्मिक स्थलों के संरक्षकों के ऊपर इस्लामी रूढ़िवाद के प्रतिनिधि के रूप में मान्यता मिली. तजम्मुल हुसैन ने घोषणा की कि कश्मीर में भारतीय सेना “कब्जे की सेना” थी और इस्लामिक राज्य बनाने के लिए संघर्ष की घोषणा की.
भले ही इससे संकट पैदा होगा, यह भारत और अमेरिका को कश्मीर पर एक ही पक्ष की ओर धकेल देगा.
नए गठबंधन
1965 के युद्ध से बहुत पहले, डिक्लासीफाइड दस्तावेज़ दिखाते हैं कि शीर्ष अमेरिकी अधिकारियों ने पहले ही पाकिस्तान के लिए अपने समर्थन पर पुनर्विचार करना शुरू कर दिया था. रॉबर्ट डब्ल्यू कॉमर ने राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी से कहा, “जितना अधिक हम पाकिस्तान के भ्रम को पालते हैं, उतना ही इस समर्थन प्राप्त होता है… मुझे आश्चर्य है कि क्या हम कश्मीर को लेकर अपने निरंतर दबाव [भारत पर] से खुद को नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं.”
हालांकि, शीत युद्ध की समाप्ति के बाद, अमेरिकी गणित धीरे-धीरे बदलने लगा. विद्वान इरशाद महमूद ने कहा, राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का प्रशासन कश्मीर में भारत के मानवाधिकारों के रिकॉर्ड की तीव्र आलोचना के साथ शुरू हुआ. लेकिन तीन साल के भीतर आलोचना ने अपनी दिशा बदल दी.
नई दिल्ली में संयुक्त राज्य अमेरिका के राजदूत फ्रैंक विस्नर ने पाकिस्तान की सेना से “कुछ मूलभूत वास्तविकताओं को स्वीकार करने का आग्रह किया है जो बदली नहीं जाएंगी.” संयुक्त राज्य अमेरिका ने सोवियत संघ की तरह 1965 में, निष्कर्ष निकाला था कि कश्मीर में एकमात्र व्यावहारिक समाधान था कि यथास्थिति को बनाए रखा जाए. श्रीनगर में, विस्नर ने कश्मीरी अलगाववादियों से 1995-1996 में हुए चुनावों में शामिल होने का आग्रह किया.
2001-2002 के निकट युद्ध ने सैन्य शासक जनरल परवेज मुशर्रफ और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों को दो परमाणु-सशस्त्र शक्तियों के बीच भविष्य के संकटों को दूर करने के उद्देश्य से एक शांति प्रक्रिया शुरू करने का नेतृत्व किया. हालांकि एक अंतिम शांति समझौते से सरकारें दूर हो गईं- और अंततः पुलवामा आतंकवादी हमले के बीच फंस गईं- दोनों राजधानियों ने बैक-चैनल से जुड़ाव जारी रखा है.
चीन के साथ अपनी सीमाओं पर बढ़ते दबाव और तेजी से अस्थिर पाकिस्तान का सामना करते हुए, भारत खुद को कश्मीर में नई चुनौतियों का सामना करते हुए पा सकता है. सऊदी अरब जैसे मध्य पूर्व में सहयोगियों के साथ-साथ अन्य G20 देशों के साथ जुड़ना, एक सक्रिय डिफेंस तैयार करने का एक प्रमुख तत्व है. राजनीतिक जीवन की बहाली को प्रोत्साहित करना और चुनावी लोकतंत्र की संस्थाओं को बहाल करना, अधिक महत्वपूर्ण चुनौती है.
(लेखक दिप्रिंट में राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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