वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने ताजा बजट से ‘विशाल भारतीय मध्यम वर्ग’ नामक सबसे खतरनाक बर्र के छत्ते को छेड़ दिया है. पिछले पूरे सप्ताह उन्हें और उनके मंत्रालय को सोशल मीडिया पर जम कर निशाना बनाया जाता रहा. मुख्य धारा वाली मीडिया के लोग भी निराश हैं लेकिन उनकी प्रतिक्रिया ज्यादा संतुलित रही है.
पूंजीगत लाभ (कैपिटल गेन्स) पर टैक्स में जो थॉमस पिकेटी मार्का (अमीरों, खासकर उन अमीरों को निचोड़ लो जो अपनी जमा पूंजी से लाभ कमाते हैं) बदलाव किए गए हैं उनके पक्ष में जायज, विवेकपूर्ण, वैचारिक और नैतिक तक किस्म के तर्क दिए जा सकते हैं. लेकिन इन बदलावों की जिस तरह निंदा की गई है और उनके विरोध में जिस तरह व्यक्तिगत हमले करते हुए भी ‘मीम’ जारी किए गए हैं वे सब तर्कसंगत नहीं लगते.
क्या मोदी सरकार अपने सबसे मूल्यवान जनाधार, अधिकांशतः हिंदू मध्यम वर्ग को समझने में विफल रही? या वह उसके समर्थन को लेकर जरूरत से ज्यादा आश्वस्त हो गई? अपने इस कॉलम में 8 जुलाई 2019 को लिखे अपने लेख में हमने कहा था कि मध्यम वर्ग वैसा ही है जैसे मोदी की भाजपा के लिए मुस्लिम समुदाय है.
कुछ ढीठ किस्म का यह विश्लेषण सरकार की उस नीति के कारण उभरा था जिसके तहत वह गरीबों को सीधा लाभ पहुंचाने वाले बड़े कार्यक्रम के वास्ते पैसा जुटाने के लिए पेट्रोल-डीजल पर ज्यादा से ज्यादा टैक्स थोप रही थी. यह एक तरह से रोबिनहुड मार्का राजनीति थी. मध्यम वर्ग से लो, और गरीबों में बांट दो.
इसने बहुसंख्यक गरीब मतदाताओं को तो खुश कर दिया, लेकिन मध्यम वर्ग नाराज होता है तो होता रहे. यह वर्ग वैसे भी भाजपा को ही वोट देगा. हमारा कहना यह था कि भाजपा इस वर्ग के वोट को अपने लिए उसी तरह पक्का मान सकती है जिस तरह ‘सेक्युलर’ पार्टियां मुस्लिम वोट को अपने लिए पक्का मान सकती हैं.
क्या यह स्थिति बदल जाएगी? मुझे ऐसा नहीं लगता. यह नाराजगी तब हवा हो जाएगी जब शायद कुछ ‘संशोधन’ किए जाएंगे, खासकर ‘इनडेक्सिंग’ वाले मामले में; और राष्ट्रवाद, धर्म, गांधी परिवार जैसे मुद्दों से तैयार होने वाले पुराने मसाले को आगे बढ़ाया जाएगा, जो टैक्सों से ज्यादा अहम हैं. आज जो नाराजगी जाहिर कर रहे हैं, कल वे ही चुनाव में भाजपा का बटन दबाएंगे. वे मोदी, उनकी पार्टी, या उसकी विचारधारा से नाराज नहीं हैं. वे इन तीनों के प्रति भक्ति भाव रखते हैं. आज तो वे महज ठुकराए हुए प्रेमी की तरह रूठ गए हैं.
इस बजट और इससे दिए जाने वाले आर्थिक संकेतों में मोदी सरकार ने गड़बड़ी यह कर दी कि वह अपने बुलंद नारों (‘भारत उत्कर्ष पर है’, ‘आर्थिक वृद्धि में तेजी आ रही है’, ‘बाजार उछाल पर है और अभी और उछाल पर आएगा’) की जगह दूसरे सुर अलापने लगी. बजट से अगर कोई समझदारी भरा और विवेकपूर्ण संतुलित संकेत उभरता है तो वह ‘भक्तों’ के लिए एक वाहियात बात है.
मध्यम वर्ग ‘गुडी, गुडी’ खबरों, शोर शराबा, और उपहारों तक का आदी हो गया है, वह चाहता है कि हर एक बजट उसकी जेब को और भारी करे. इसकी जगह वह यह नहीं सुनना चाहता कि ‘भाई, तुमने खूब बना लिया, खासकर पिछले दस साल के उछाल वाले दौर में, अब जरा वापस लौटाने का समय है’. कि अपनी जमा पूंजी पर और ज्यादा कमाई करना शायद बहुत अच्छी बात नहीं थी.
अमीरों को तो कोई फिक्र नहीं है, सरकार पर हमला मध्यम वर्ग की ओर से हो रहा है, खासकर उस तबके की ओर से जो इस सामाजिक-आर्थिक तबके का निचला हिस्सा है, जिसने भारी ईएमआइ पर कर्ज लेकर निवेश की खातिर दूसरा घर खरीदा है और बैंकों में गारंटीशुदा ब्याज देने वाले फ़िक्स्ड डिपॉजिट को तोड़ कर म्यूचुअल फंडों और ऋण बॉन्डों में पैसा लगा दिया है.
इनमें से कई लोग ज्यादा टैक्स देना भी कबूल कर लेते. वे नरेंद्र मोदी और उनकी व्यापक राजनीति को इतना पसंद करते हैं कि इसके लिए कुछ कीमत भी चुकाने को तैयार हो सकते हैं. आखिर, उनमें से एक करोड़ से ज्यादा लोगों ने मोदी की अपील पर एलपीजी पर छूट लेने से मना किया ही था. लेकिन इस बजट ने सरकार की ओर दिए जाने वाले संदेश में जो बदलाव किया है उससे वे हैरान हो गए हैं. उन्हें शायद यह लग रहा है कि उन्हें कहा जा रहा है कि ज्यादा पैसे बनाकर उन्होंने कोई अनैतिक काम किया है, इसलिए सरकार उन पर लगाम लगा रही है.
आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1991 में हुई और इसके बाद बनीं सभी सरकारों और वित्त मंत्रियों का ज़ोर इस बात पर रहा कि जिनके पास अतिरिक्त पैसा है वे बाज़ारों की ओर रुख करें. इसलिए पूंजीगत लाभ पर टैक्स में छूट दी गई और बीते दशकों में उसका दायरा बढ़ाया गया. बाजार ने इसका शुक्रिया कहा, छलांग लगाते रहे, और सरकारों को लाभ पहुंचाते रहे.
पिछले 33 वर्षों में सभी सरकारें, खासकर मौजूदा सरकार म्यूचुअल फंडों के फोलियो, डीमैट खातों और सूचकांकों में वृद्धि का स्वागत करती रही हैं. लेकिन हाल के दिनों में कुछ ऐसे कदम उठाए गए जिनका मकसद अतिरिक्त पूंजी बनाने वाले वर्गों को वापस बैंक डिपॉजिट की ओर मोड़ना था. ऐसे कदमों की शुरुआत 2023 के बजट से की गई जब ऋण बॉन्डों को लेकर कुछ फैसले किए गए. यह वर्ग इसके लिए तैयार नहीं था.
भारत का मध्यवर्ग आखिर क्या चीज है? उसे अगर जीवनशैली की कसौटी के लिहाज से देखा जाएगा तो यह तरीका काफी अव्यवस्थित और चलताऊ होगा. क्या यह मध्यम वर्ग इनकम टैक्स देने वालों से बनता है? जो लोग इनकम टैक्स रिटर्न दाखिल करते हैं उनमें एक तिहाई से भी कम लोग (7.4 में से 2.2 करोड़ लोग) दुनिया में सबसे बड़े मध्यम वर्ग माने जाने वाले समुदाय के मामूली हिस्से भी नहीं माने जा सकते.
इसलिए इस पर विचार करना बेहतर होगा कि यह मध्यम वर्ग चाहता क्या है. वह चाहता है और उम्मीद करता है कि भारत दुनिया की सबसे मजबूत, ‘हॉट’ अर्थव्यवस्था बने; अर्थव्यवस्था से लेकर विज्ञान तक, खेलकूद से लेकर सेना तक, मैनुफैक्चरिंग से लेकर सॉफ्टवेयर तक, सभी क्षेत्र में वह अगुआ बने, और इस सबके साथ दुनिया को उपदेश देने का जो अधिकार इतिहास ने उसे दिया है वह भी उसे हासिल रहे.
वे उस जुमले का इस्तेमाल शायद न करते हों लेकिन ‘विश्वगुरु’ होने के दावे, या कम-से-कम ऐसा बनने की आकांक्षा से इनकार नहीं करते. उन्हें यह मानना पसंद है कि पश्चिम ढलान की ओर है और अब भारत का समय आ चुका है. अगर मैं ऐसा वीडियो बना दूं जिसमें यह कहा गया हो कि डॉलर लड़खड़ा चुका है, अमेरिका की ताकत में भारी पतन हो गया है, यूरोप तो खत्म ही हो चुका है, तो यह वीडियो निश्चित ही वायरल हो जाएगा. तथ्यों की परवाह कौन करता है! मध्यम वर्ग के मूड को जो सबसे अच्छी तरह उजागर करता है वह है हर शाम को वाघा बॉर्डर पर राष्ट्रध्वज उतारे जाने का नजारा.
इन्हीं अपेक्षाओं के साथ वे मोदी/भाजपा को वोट देते रहते हैं. अपनी संपत्ति में बढ़ोतरी, शेयर बाज़ारों में उछाल, दुनिया भर से भारत में आ रहे निवेशों आदि को वे इसी पैकेज का हिस्सा मानते हैं. और, उनके लिए आदर्श स्थिति तो यह होगी कि यह सब बिना टैक्स चुकाए या सिंगापुर वाली टैक्स दर पर हासिल हो जाए. उन्हें सिंगापुर मार्का लोकतंत्र भी चलेगा. अब उन्हें कहा जा रहा है कि बैंकों में फिक्स्ड डिपॉजिट की ओर लौटें.
अब मामला चूंकि खुद से ही आगे निकल जाने की ओर जा रहा है, मैं यहीं रुक जाता हूं. हम इतना ही कहें कि हम नहीं जानते कि मध्यम वर्ग क्या है, और वह क्या चाहता है. हम यही लेकर आगे बढ़ें कि मध्यम वर्ग क्या नहीं है. मध्यम वर्ग के होने का मतलब है अहसानमंद न होना.
मोदी सरकार को आज जिस दबाव का सामना करना पड़ रहा है वह जल्दी ही ढीला पड़ जाएगा. लेकिन जरा एक ऐसे शख्स का नाम बताइए जिसने इस नये मध्यम वर्ग की तीन पीढ़ियों के निर्माण, विस्तार के लिए और उसे समृद्ध बनाने के लिए किसी और शख्स से ज्यादा काम किया हो. नियंत्रणों को ढीला करने, लाइसेंस-कोटा राज को खत्म करने, आयातों के लिए दरवाजे खोलने, टैक्सों और शुल्कों में कटौती करने और करों के मामलों में उदारता से प्रोत्साहन देकर मध्यम वर्ग को बाज़ारों की ओर मोड़ने के काम किए हों.
इसके साथ यह भी पूछिए कि ऐसा कौन नेता है जिसे मध्यम वर्ग ने 2011 के बाद से सबसे ज्यादा नापसंद किया है. आपने सही अंदाजा लगाया, वह नेता डॉ. मनमोहन सिंह हैं. 1999 में उन्होंने और उनकी पार्टी ने भारत के मध्यम वर्ग में उनकी लोकप्रियता का आकलन करने के लिए उन्हें दक्षिण दिल्ली से लोकसभा चुनाव में खड़ा कर दिया. वे हार गए. उन्होंने क्या उम्मीद लगाई थी? यह कि उन्हें धन्यवाद वोट मिलेंगे. लेकिन उन्हें सिर्फ अपमान मिला. यह मध्यम वर्ग हक चाहता है, लेकिन अहसान का बोझ तले दबना नहीं चाहता.
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