दिल्ली के निज़ामुद्दीन (वेस्ट) इलाके में तबलीग़ी जमात के धार्मिक सम्मेलन से कोरोना का जो तूफान उठा है उसने एक ओर केंद्र और दिल्ली सरकार के साथ पूरे देश के लिये चिंता पैदा कर दी है, वहीं दूसरी ओर ये डर भी सच साबित हुआ कि अब तक अंताक्षरी खेल रहे टीवी एंकर कहीं जमात की इस लापरवाही को हिन्दू-मुस्लिम कबड्डी मैच न बना दें. अब तक का अनुभव यही बताता है कि हमारे टीवी चैनल इस कला में महारत हासिल कर चुके हैं और अपने इस फ़न का मुजाहिरा करने में वो कभी कोई कमी नहीं छोड़ते. ज़ाहिर है इस बार भी वह पीछे नहीं रहे और मंगलवार शाम तक ख़बरिया चैनल कोरोना वाइरस को ‘कोरोना जिहाद’ बना चुके थे.
जमात की घोर लापरवाही
टीवी चैनलों की सनसनी एक तरफ रख दें तो भी इसमें कोई शक नहीं कि जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी से लड़ रही हो तो राजधानी के बीचोबीच हुआ यह धार्मिक सम्मेलन एक घोर लापरवाही को दिखाता है. इस जमावड़े में देश अलग अलग हिस्सों के अलावा मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देशों से कुल 2000 से अधिक प्रतिनिधि शामिल हुये. कई दिनों तक साथ रहने के अलावा इन लोगों ने एक ही डाइनिंग हॉल में खाना खाया और साझा बाथरूम-टॉयलेट इस्तेमाल किये . ज़ाहिर है अब तक इनमें से दर्जनों लोग कोरोना पॉज़िटिव पाये गये हैं और दूसरे कितने लोगों को संक्रमण फैला होगा बताना मुश्किल है.
एक जगह पर इतने लोगों के इकट्ठा हो जाने पर जितने सवाल पुलिस और प्रशासन पर उठते हैं उससे अधिक सवाल आयोजकों पर हैं. भले ही सम्मेलन का आयोजन प्रधानमंत्री के ‘जनता कर्फ्यू’ आह्वान से हफ्ते भर पहले हुआ हो लेकिन बीमारी को लेकर दुनिया के साथ भारत में भी चेतावनियां जारी कर दी गई थीं. तो क्या अगर प्रशासन सोया था तो आयोजकों को इसे गंभीरता का कोई एहसास नहीं था! संक्रमण के लिहाज़ से देखें तो यहां पहुंचे लोगों का संपर्क तेलंगाना, यूपी, महाराष्ट्र, असम, झारखंड, कर्नाटक और अंडमान समेत देश के कई हिस्सों तक दिख रहा है. जमात के लोगों के टेस्ट के बाद दिल्ली के संक्रमित लोगों का आंकड़ा उछल कर सौ के पास पहुंच गया है.
इससे पहले देश भर की मस्जिदों में भी बड़ी संख्या में नमाज़ होते रहीं. रिपोर्टरों ने जब दिल्ली की जामा मस्जिद में इकट्ठा हुये लोगों से सवाल किया तो ज़्यादातर का कहना था कि वह पांच वक़्त के नमाज़ी है इसलिये उन्हें कोरानावायरस से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है. कुछ ने यह तक कहा कि नमाज़ मस्जिद में ही पढ़ी जा सकती है, घर में नहीं और अल्लाह के होते किसी वायरस या दुश्मन से डरने की ज़रूरत नहीं है. यही हाल देश की दूसरी मस्जिदों में भी दिखा. यह निरी मूर्खता और कट्टरपन तो है ही, एक आपराधिक लापरवाही भी है जिसकी वजह से कई लोगों की जान ख़तरे में पड़ गई है.
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लापरवाही के नमूने और भी
देश में कोरोनावाइरस के मामले सामने आने के कई दिनों बाद तक धार्मिक जमावड़े जारी रहे. जब दिल्ली के निज़ामुद्दीन में जमात का सम्मेलन चल रहा था उसी दौर में शिरडी के साईं बाबा मंदिर में सामूहिक आरती चल रही थी जिसमें भारी भीड़ इकट्ठा होती है. मार्च के तीसरे हफ्ते में जब यहां मंदिर बन्द किया गया तो महाराष्ट्र में कोराना का पहला मामला सामने आये हफ्ते भर से अधिक समय हो गया था. मार्च के तीसरे हफ्ते तक तिरुपति बालाजी का मंदिर भी खुला हुआ था.
प्रधानमंत्री के आह्वान के बाद 22 मार्च को पूरे देश में जनता कर्फ्यू का पालन तो किया गया लेकिन शाम को लोग शंख, घंटे और घड़ियाल लेकर बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर आये और सामूहिक आरती कार्यक्रम करने लगे. कहीं तो प्रशासनिक अधिकारी ही इन जमावड़ों में सक्रिय दिखे.
जब 24 तारीख की शाम को प्रधानमंत्री ने 21 दिनों के लॉक-डाउन का ऐलान किया तो उसके अगले दिन यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ कई लोगों के साथ रामनवमी पूजा करते दिखे. अब अगर प्रदेश का मुख्यमंत्री ऐसे वक़्त में धार्मिक अनुष्ठान करता दिखे तो जनता क्या सबक लेगी. इससे यह स्पष्ट होता है कि एक वायरस के आगे हम बेबस इसलिये भी हैं क्योंकि हमें यह भरोसा है कि ऊपरवाले की विशेष कृपा हमारे शरीर में कोरोना जैसे घातक दुश्मन से लड़ने के लिये एक जादुई एंटीडोट पैदा कर देगी.
धार्मिक अंधविश्वास से लड़ने की ज़रूरत
कोरोना संकट के वक्त हमारे तौर तरीकों और आचरण ने दिखा दिया है कि हिन्दुस्तान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बजाय अंधविश्वास और धार्मिक रीति रिवाज़ हावी हैं. इसीलिये कहीं मौलनाओं को इकट्ठे वज़ू करने से परहेज़ नहीं और कहीं हिन्दू समुदाय के संत-महंत गोमूत्र पीने की सलाह दे रहे हैं.
यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि धार्मिक विश्वास पर आधारित जमावड़े कोरोना जैसी संक्रामक बीमारियों के वाहक बनते हैं. यह अंदाज़ा अब तक नहीं लग पाया है कि पंजाब के आनंदपुर साहिब में होने वाले सिख पर्व होला मोहल्ला में इटली से आये बलदेव सिंह ने न जाने कितने लोगों को यह बीमारी फैलाई होगी. बलदेव सिंह की तो कोरोना से 18 मार्च को मौत हो गई लेकिन पंजाब के कम से कम 2 दर्जन कोरोना पॉज़िटिव मामले उन लोगों के हैं जो सीधे बलदेव के संपर्क में आये.
सवाल है कि हम धार्मिक बेड़ियों और अंधविश्वास के खिलाफ खुलकर क्यों नहीं बोलते. किसी भी धर्म के भीतर से इस तरह की कट्टरता के खिलाफ आवाज़ उठनी ही चाहिये. सोमवार को गीतकार और पूर्व सांसद जावेद अख़्तर ने कहा कि कोरोना संकट तक सभी मस्जिदों को बंद करने के लिये दारुल उलम देवबंद से फतवा जारी करने की जो मांग हो रही है, उसका वह समर्थन करते हैं. सवाल यह है कि मस्जिदों को बन्द करने के लिये किसी फतवे की ज़रूरत ही क्यों हो? क्या सरकार की सलाह या आदेश इसके लिये काफी नहीं हैं? क्यों नहीं मुस्लिम समाज ने सरकार के कहने के बाद मस्जिदों को बन्द करे और ऐसे जमावड़ों से बचा गया.
टीवी को मिला मसाला
नतीजा ये कि किसी भी मुद्दे को हिन्दू-मुस्लिम डिबेट में तब्दील करने की असीम क्षमता रखने वाले टीवी चैनलों और सोशल मीडिया के रणवीरों को ‘कोरोना-जिहाद’ जैसे पसंदीदा विषय पर फोकस करने का बहाना मिल गया है. आश्चर्य नहीं है कि यही टीवी चैनल स्वास्थ्य से जुड़ी कोई कवरेज भले पूरे साल न करें लेकिन खुद अंधविश्वास और नफरत के ध्वजवाहक हमेशा बने रहते हैं.
पिछले दिनों केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले को टीवी पर कोरोना गो, कोरोना गो के नारे लगाते दिखाया गया, बीजेपी विधायक आहुति और यज्ञ की बात कर रही थी और संबित पात्रा मंत्रोच्चार कर कोरोना का भगा रहे थे. इस बीमारी से जुड़े कीर्तन और जगरातों की भी जमकर कवरेज हुई. जमात के सम्मेलन से निकला सच एक डरावनी हक़ीक़त तो है पर अकेली मिसाल नहीं है. ऐसे कई ख़तरनाक बीज हम बोते आ रहे हैं जिनसे उपजने वाले संड़ांध से निपटने की सामूहिक ज़िम्मेदारी हम सब पर होगी और समस्या का हल हिन्दू-मुस्लिम कबड्डी मैच खेलना नहीं, धार्मिक अंधविश्वास और कट्टरता से लड़ना है.
(हृदयेश जोशी पत्रकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)