केंद्र सरकार ने ‘वक्फ (संशोधन) बिल, 2024’ लोकसभा में पेश किया और फिर काफी जद्दोजहद के बाद उसे संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया जिसमें सभी दलों के सांसद शामिल होते हैं.
अल्पसंख्यकों से जुड़े मसलों के साथ आमतौर जैसा होता रहा है, उसी तरह इस बिल को पेश करने के पीछे हुक्मरानों की ‘मंशा’ को लेकर सवाल उठाए गए हैं. जमात-ए-इस्लामी, जमीअत उलेमा-ए-हिंद, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, फिरंगी महल समेत भारत भर के प्रायः सभी मान्यता प्राप्त मुस्लिम संगठनों और प्रमुख मौलवियों ने इस प्रस्तावित कानून के अहम प्रावधानों का विरोध किया है.
कहा जा रहा है कि इस मसले से जिनके हित जुड़े हैं उनसे ठीक से बात नहीं की गई और यह कि यह बिल मुस्लिम हितों के खिलाफ है और संविधान के अनुच्छेद 23-28 में दर्ज सिद्धांतों का उल्लंघन करता है. लगभग पूरे विपक्ष ने संसद में एकमत से कहा कि इस बिल के जरिए मुसलमानों के मामलों में दखलंदाजी की कोशिश की जा रही है. कुछ लोगों का कहना है कि सरकार अंततः उन जायदादों को अपने कब्ज़े में लेना और उनका प्रबंध खुद करना चाहती है जिन्हें सदियों से मुसलमानों ने ‘वक्फ’ कर दिया है.
वक्फ 1400 वर्षों से वजूद में हैं, जब इस्लाम वजूद में आया था. वक्फ वह निजी जायदाद होती है जिसका मालिकाना किसी मुसलमान के हाथ में होता है और जिसे वह किसी खास मकसद से दान दी गई हो, चाहे वह मकसद धार्मिक हो या परमार्थिक या उस मालिक के परिवार को फायदा पहुंचाना.
कोई महिला भी अगर जायदाद की मालकिन हो तो वह भी वक्फ बना सकती है. वक्फ हमेशा के लिए होता है और उसे वापस नहीं लिया जा सकता और न भंग किया जा सकता है, चाहे मूल वाकिफ की ऐसी इच्छा क्यों न हो. किसी जायदाद को दो गवाहों की मौजूदगी में मौखिक या वक्फनामे के जरिए वक्फ घोषित किया जा सकता है. 1913 के बाद से विभिन्न सरकारें वक्फों के उचित तथा निष्पक्ष इंतजाम की निगरानी करती रही हैं.
वक्फ कानून, 1995 में अंतिम संशोधन 2013 में किया गया और यह प्रावधान जोड़ा गया कि वक्फ जायदाद के अतिक्रमण, बिक्री या हस्तांतरण के मामले में दो साल तक की कैद की सज़ा दी सकती है.
हर राज्य में वक्फ की जायदादों का इंतजाम वहां का वक्फ बोर्ड देखता है, जिसके एक अध्यक्ष और सदस्यों को राज्य सरकार नामज़द करती है. आमतौर पर पूर्व सांसदों, विधायकों या मौलवियों और मुतवल्लियों को इन बोर्डों में नामज़द किया जाता है. कहने की ज़रूरत नहीं है कि इन बोर्डों की सदस्यता सरकार द्वारा बांटी जाने वाली इनायतों जैसे होते हैं. उनकी नियुक्ति में उनकी योग्यता, क्षमता, ईमानदारी आदि का ख्याल नहीं रखा जाता. बदकिस्मती से यही हमारी ‘सिस्टम’ है. वक्फों से जुड़े विवादों की सुनवाई राज्य सरकार द्वारा नियुक्त पंचाट करती है, जिसकी अध्यक्षता राज्य के न्यायालय का कोई जज करता है और इसके दो सदस्य आमतौर पर राज्य की प्रशासनिक सेवा से चुने जाते हैं.
समस्या की जड़ यही है. इसीलिए हर कोई, खासकर मुस्लिम समुदाय इन वक्फ बोर्डों में व्याप्त भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और अक्षमता की शिकायतें करता है. लोग बदइंतजामी, शोषण और इनायत की जाने की बातें करते हैं.
कई जायदाद वक्फ-अलाल-औलाद हैं, जिनसे होने वाली आमदनी उन्हें मिलती है जिनके नाम वक्फनामा में दर्ज हैं. लाभ पाने वालों में कोई विवाद होता है तो वह सालों तक घिसटता रहता है और समाधान के इंतज़ार में गरीब परिवार बदहाल होते रहते हैं. इसलिए, इस बात में कोई शक नहीं है कि वक्फ बोर्डों के सदस्यों के चयन की प्रक्रिया, सदस्यों की पात्रता और उनके कामकाज की जांच ज़रूर की जानी चाहिए. चूंकि हरेक बोर्ड की अपनी अलग प्रक्रिया है, इसलिए सभी राज्यों में इन व्यवस्थाओं की विस्तृत जांच और सुधार ज़रूरी हैं.
मेरा मानना है कि यह हो पाना मुश्किल है क्योंकि हर सरकार अपने असंतुष्ट और ताकतवर समर्थकों को रिझाने के लिए इस कामधेनु गाय जैसी व्यवस्था का दोहन करती है. वक्फ बोर्डों के कब्ज़े में मौजूद कीमती जायदादों का आकर्षण सबको लुभाता है.
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सुधारों का दिखावा
वक्फ बोर्डों की बदइंतजामी के मसले पर व्यापक विचार-विमर्श के बिना सुझाए गए इन समग्र सुधारों में व्यापक असहमति के बीज छिपे हैं. पिछले एक दशक से सरकार के कदमों को लेकर अल्पसंख्यकों में पहले से ही काफी अविश्वास है. उनके ‘तुष्टीकरण’ को खत्म करने के नाम पर मौजूदा सरकार ने जो ‘सकारात्मक कदम’ वाला मुहावरा गढ़ा है वह कबूल नहीं हो रहा है.
विभिन्न अल्पसंख्यक समुदाय, खासकर मुस्लिम और ईसाई, पहले ही भयानक माने गए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) या सरकारी मंजूरी लेकर बनाए गए अल्पसंख्यकों के मकानों और जायदादों के बार-बार गैर-कानूनी विध्वंस से काफी दबाव और चिंता में हैं. इन चिंताओं को दूर करने की जगह सरकार अगर उन कानूनों को बदलने के कदम उठाती है जो सदियों से व्यवस्था में शामिल हैं, तो उसकी मंशा पर शक पैदा होना लाज़्मी है.
ऐसे प्रस्तावित संशोधन उन लोगों से व्यापक सलाह-मशविरा करने के बाद किए जाने चाहिए, जिनके हित उनसे जुड़े हैं. सभी पक्षों की ओर से जारी किए जाने वाले बयान न केवल धूर्ततापूर्ण हैं बल्कि उन लोगों को भ्रमित भी करते हैं जिन्हें कानून की जानकारी नहीं है. वैसे, जो संशोधन प्रस्तावित किए गए हैं उनमें से कई को लेकर मुसलमानों को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए.
शियाओं, बोहरों, और आगाखानियों को शामिल किए जाने से किसी को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि पहले से जो अलग वक्फ बोर्ड बने हुए हैं उनके बारे में क्या शिया समुदाय से कभी पूछा भी गया है.
बोहरा समुदाय छोटा, समृद्ध और काफी पढ़ा-लिखा है, जो विशिष्ट हैसियत रखने वाले अपने आध्यात्मिक अगुआ सैयदना का अनुयायी धार्मिक समूह है. सवाल यह भी है कि वे बड़ी संख्या वाले और राजनीतिक रूप से ज्यादा सक्रिय शियाओं और सुन्नियों के साथ खुद को जोड़े जाने को कितना कबूल करेंगे.
बिल में प्रावधान किया गया है कि वक्फ में सरकार द्वारा नियुक्त भूमि सर्वेक्षकों की जगह जिला मजिस्ट्रेटों को शामिल किया जाए. यह एक प्रतिगामी प्रस्ताव है. कलेक्टरों पर वैसे भी काम का बहुत बोझ होता है, जिनमें अदालती कामकाज (मूल मुकदमों और अपीलों समेत) के साथ जिला प्रशासन से जुड़ी जिम्मेदारियां शामिल हैं जैसे कानून-व्यवस्था, विकास आदि के काम, जन शिकायतों का निबटारा, वीआईपी लोगों से निबटना, चुनाव, जनगणना आदि के काम. फिलहाल सरकार द्वारा नियुक्त सर्वेक्षकों को राज्य सरकार के अनुभवी अधिकारियों में गिना जा सकता है.
बिल में यह भी प्रावधान किया गया है कि महिलाओं को भी वक्फ बोर्डों में शामिल किया जाए और उन्हें वक्फ की जायदाद में विरासत का अधिकार दिया जाए. तथ्य यह है कि वक्फ के मामलों में महिलाओं के भाग लेने पर कोई रोक नहीं है. इस्लामी कानून के तहत उन्हें उत्तराधिकार से जुड़े सभी लाभ मिलते हैं और ऐसे कई उदाहरण है कि कई महिलाएं मुतवल्लियों के रूप में या वक्फ की ‘कर्ता’ के रूप में काम कर रही हैं.
दरअसल, यह संशोधन इस व्यापक धारणा की उपज है कि मुस्लिम महिलाओं के साथ बुरा व्यवहार होता है और उन्हें अधिकारों से महरूम किया जाता है. इस लेख के पाठकों को मैं सलाह दूंगा कि वे गूगल करके पैगंबर मुहम्मद का आखिरी उपदेश पढ़ें जिसमें वे बताते हैं कि महिलाओं के प्रति पुरुषों और समाज के क्या-क्या फर्ज़ हैं. इसलिए इस संशोधन का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इससे महिलाओं के मौजूदा हालात और अधिकार और मजबूत ही होंगे.
बिल में एक केंद्रीय डाटाबेस बनाने और छह महीने के अंदर एक पोर्टल पर भारत में हर एक वक्फ के बारे में पूरा ब्योरा उपलब्ध कराने का भी प्रस्ताव किया गया है. डाटाबेस बनाने का विचार तो बहुत स्वागत योग्य कदम है, लेकिन देश के सभी गांवों, शहरों, महानगरों में रजिस्टर्ड लाखों वक्फों की कैटलॉगिंग करने में कई साल लग जाएंगे.
सरकार की भूमिका
गैर-मुस्लिमों को वक्फ बोर्डों में शामिल करने का प्रस्ताव सरकार का एक गलत कदम है. वक्फ मुसलमानों की जायदाद है और जिस तरह हिंदुओं, सिखों, ईसाइयों, पारसियों के ट्रस्ट उनके ही समुदाय के लोग चलाते हैं उसी तरह वक्फ बोर्डों की सदस्यता मुसलमानों को ही सौंपी जानी चाहिए.
सरकार की भूमिका सिर्फ बेहतर प्रशासनिक उपायों और वक्फ बोर्डों के सदस्यों की जांच के जरिए यह सुनिश्चित करने की हो कि ये बोर्ड ठीक तरीके से काम करें.
दुनिया भर में और भारत में भी जबकि राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है, सरकार को अल्पसंख्यक समूहों की भावनाओं का ज़रूर ख्याल रखना चाहिए, चाहे किसी भी राजनीतिक विचारधारा के लोग सत्ता में हों. यह इसलिए ज़रूरी है कि संस्थाओं का जब सियासी मकसदों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है तब अल्पसंख्यक समूह खुद को कमज़ोर महसूस करने लगते हैं.
इस तरह के बिल लाने जैसे कदम लोकतंत्र को बहुसंख्यकवाद के रंग में रंग देते हैं और प्रतिशोध तथा प्रतिकार की संस्कृति को सामान्य बना देते हैं. सामाजिक-राजनीतिक भेदों में सामंजस्य बनाकर चलना किसी भी सरकार की ज़िम्मेदारी होती है ताकि समाज साझा मूल्यों को साथ लेकर आगे बढ़े और भेदों को कम करता चले.
भारत विभिन्न समूहों के मनोबल को कमज़ोर करने वाले कानून बनाने की बजाय अमन, मुहब्बत और सुलह के गांधीवादी सिद्धांतों पर चले. इस मामले में सबसे गौरतलब और अहम बात यह है कि पारंपरिक और सोशल, दोनों तरह की मीडिया ध्रुवीकरण को बढ़ाने और प्रतिध्वनियों का विस्तार करने की बजाय सदभाव को बढ़ावा देने वाले विचारों और बहसों के मंच के रूप में काम करे.
(नजीब जंग पूर्व सिविल सेवक और दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल हैं. अमोघ देव राय एडवांस स्टडीज इंस्टीट्यूट ऑफ एशिया (ASIA) के रिसर्च डायरेक्टर हैं. लेख में व्यक्त विचार निजी हैं.)
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