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Friday, 1 November, 2024
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औरतों की इस बात पर भारत के ‘महान नायकों’ को धरा जाना चाहिए

एक औरत के तौर पर जब राजनीति और बाकी कलाओं के इन नायकों के जीवन की पड़ताल में आप पाते हैं कि इनके लिए एक स्त्री है और सत्ता, एक जैसी हैं

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किसी राजनेता या कलाकार के बारे में लिखते हुए हम उन्हें आम इंसान से अलग कर देते हैं. ऐसा लगता है कि देश का कानून इन पर लागू नहीं होता. यही नहीं, सामाजिक बंधन भी सिर्फ आम इंसानों के लिए हैं, नायकों के लिए नहीं. औरतों के मामले में ये बात विशेषकर आती है.

जार्ज फर्नांडीज उड़ीसा में अपनी बीवी लैला कबीर के साथ छुट्टियां मना रहे थे. अचानक एक दिन उठकर चले गए. ये कहते हुए कि इमरजेंसी लगी हुई है, मुझे जनतंत्र बचाना है. उसके बाद उनका कुछ अता- पता नहीं चला. बीवी छोटे बच्चे को लेकर विदेश चली गई. 22 महीने बाद जब वो मिले तब तक जार्ज फर्नांडीज देश के बहुत बड़े नेता बन चुके थे. लेकिन चीज़ें पहले जैसी नहीं रही थीं.

जॉर्ज अब एक दूसरी महिला के नज़दीक थे. वो अपने बेटे के लिए पिता जैसा महसूस कर नहीं पा रहे थे. जब जॉर्ज की ज़िंदगी में जया जेटली की एंट्री हो चुकी थी. स्थिति को भांपते हुए लैला ने तलाक के कागज़ भिजवाए. लेकिन जवाब में जॉर्ज ने अपनी मां के कंगन भिजवा दिए. जॉर्ज का ये कंगन भिजवाना एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है. जो राजनीति और कला के बड़े-बड़े ‘नायक’ की बीवियों या प्रेमिकाओं के साथ अक्सर कर देते हैं. देश सेवा की आड़ में ना उसे मुक्त करना, ना उसे पास रखना.

उभरते नेता से इमरजेंसी के बाद ‘जायंट किलर’ बनकर निकले जॉर्ज

जॉर्ज ने लैला कबीर को तलाक भी नहीं दिया और उसे पास भी नहीं रखा. लैला, नेहरू के केबिनेट मंत्री हुमायूं कबीर की बेटी थीं. जिन्हें पाने के लिए जॉर्ज ने हज़ारों जतन किए. आखिरकार दोनों शादी के बंधन में बंध गए. शादी के वक्त जॉर्ज की हैसियत एक उभरते नेता की थी. इमरजेंसी लगी और जॉर्ज-लैला, दोनों की किस्मत बदल गई.

जया जेटली, जो कि लैला-जॉर्ज के बीच दूसरी औरत थीं, वो पहले से शादीशुदा थीं. मगर उन्होंने अपने पति से तलाक ले लिया था. जॉर्ज और जया तीस साल तक साथ रहे. लेकिन जॉर्ज ने अपने रिश्ते को कभी कानूनी या सामाजिक तौर पर वैधता दिलाने की कोशिश नहीं की. बाद में वो अल्ज़ाइमर की बीमारी से ग्रस्त हो गए. तीस साल पहले जया गौरवशाली स्थिति में रही होंगी, वो अब दयनीय स्थिति में आ गईं. यहां दयनीय का मतलब पैसों के मामले से नहीं है, अधिकार के मामले में है.

दोनों स्त्रियों के हिस्से आया दुख

बीमारी के चलते जॉर्ज की पत्नी और उनका बेटा तीस साल बाद वापस आए. लैला कबीर ने उनकी ‘सेवा’ की. दोनों स्त्रियां संपत्ति के बंटवारे को लेकर कोर्ट भी गईं. कोर्ट ने लैला के पक्ष में फैसला दिया. तीस साल से जॉर्ज के साथ रह रही जया के पास उनकी जायदाद का कोई हिस्सा नहीं मिला. कुछ साल बाद कोर्ट ने उनको जॉर्ज से विशेष परिस्थितियों में मिलने का ऑर्डर दिया.

दोनों स्त्रियों का पक्ष जानकर आप किसी की उपेक्षा नहीं कर पाते हैं. लैला कबीर के लिए भी आप हमदर्दी रख सकते हैं और ‘दूसरी औरत’ का दर्ज़ा पाने वाली जया के लिए भी. देखा जाए तो दोनों का दुख ही पीड़ादायक है.

राजनीति ही नहीं बाकी कलाओं के नायक भी रहे हैं दोगले

हिंदुस्तान के बड़े नायकों पर नज़र दौड़ाएं तो रेस में सिर्फ राजनेता शामिल नहीं हैं. ‘सैराट’ फिल्म बनाने वाले नागराज मंजुले की बीवी ने उनपर घरेलू उत्पीड़न का आरोप लगाया था. उनके मुताबिक घर में उन्हें नौकरानी की हैसियत से रखा गया था. उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि मंजुले की सम्पत्ति में उनको कोई हिस्सा नहीं दिया गया और कुछ लाख देकर उनसे पीछा छुड़ा लिया गया. बात यहीं खत्म नहीं होती है. लगभग 3-4 बार उनका ज़बरदस्ती गर्भपात कराया गया. जातीय और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाली फिल्म के निर्देशक की निजी ज़िंदगी ऐसी हो सकती है, इसकी कल्पना हम नहीं कर सकते हैं.

‘भागी हुई लड़कियां’ जैसी क्रांतिकारी कविता लिखने वाले आलोक धन्वा पर उनकी पत्नी क्रांति भट्ट ने यही आरोप लगाया कि उन्होंने तलाक नहीं दिया और ना ही मुक्त किया. आलोक ने जब शादी की तो खुद 45 साल के थे और क्रांति 23 साल की. क्रांति ने 2017 में ‘हाशिया’ नाम के एक ब्लॉग के ज़रिए अपना पक्ष दुनिया के सामने रखा. उनका कहना है कि आलोक पहले से ही एक स्त्री के साथ रहते थे जिनको समाज में वो ‘दीदी’ कहा करते थे. क्रांति शादी के बाद अवाक रह गईं. आलोक ने कहा कि वो औरत मुझसे बड़ी है, इसलिए उससे शादी नहीं कर सकता. बाद में आलोक अपनी कम उम्र की बीवी क्रांति पर ही तमाम चारित्रिक आरोप लगाने लगे.

तुम जो पत्नियों को अलग रखते हो वेश्याओं से

और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो पत्नियों से

कितना आतंकित होते हो जब स्त्री बेखौफ भटकती है

ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों और प्रमिकाओं में !

ये लाइनें लिखने वाला शख्स ही कथित तौर पर उन्हें ‘वेश्या’ जैसे शब्दों से संबोधित करता था. आरोप लगा कि आलोक धन्वा ने भी अपनी बीवी का ज़बरदस्ती गर्भपात कराया. क्रांति लिखती हैं उस परिवार की बहू होने के नाते मुझे कोई अधिकार नहीं दिए गए हैं और यहां तक कि किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी से भी उन्हें एक पैसा नहीं दिया गया. प्रकाशकों को फोन करने पर क्रांति भट्ट को गालियां दी गईं.

दलित नायकों की आत्मकथाओं से गायब हैं पत्नियों के नाम

कुछ ऐसा ही मामला जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे और अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ से ख़ास पहचान बनाने वाले तुलसी राम का था. यूपी के गांव से निकल कर दिल्ली में पहचान बनाई और दोबारा शादी की. लेकिन जिसके साथ बालविवाह हुआ था उस पत्नी को गांव में ही छोड़ दिया और दूसरी पत्नी को इस बात की भनक तक नहीं लगने दी. तुलसी राम पर आरोप लगे हैं कि ना ही उन्होंने पहली पत्नी को अपनी संपत्ति में कोई हिस्सेदारी दी और ना ही अपनी आत्मकथा में उनका ज़िक्र किया.

नामदेव ढसाल, जिन्हें पूरे देश दलित आंदोलन और दलित साहित्य के भीष्म पितामह कहा जाता है, उन पर भी उनकी पत्नी ने ऐसे आरोप लगाते हुए किताब लिखी. हमारे आस-पास ऐसे कई उदाहरण हैं जहां पुरुष सामाजिक लड़ाई के नायक बनकर उभरे लेकिन अपनी पत्नियों/प्रेमिकाओं को वो दर्ज़ा नहीं दिया जिनकी वो हकदार रही हैं. ये उदाहरण संकेत देते हैं कि समाज में समानता और प्रतिष्ठा के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाइयों में महिलाओं की समानता की लड़ाई शामिल नहीं है. हमारे नायक लोकतांत्रिक होने के बजाय पुरुष-वर्चस्व से ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं.

स्त्री और सत्ता, दोनों को ही एक तरह देखा जाता है

एक औरत के तौर पर जब राजनीति और बाकी कलाओं के इन नायकों के जीवन की पड़ताल में आप पाते हैं कि इनके लिए एक स्त्री है और सत्ता, एक जैसी हैं. जब तक पा नहीं लिया तब ये लड़ते रहे और पाने के बाद बुरे हाल पर छोड़ा. क्रांति भट्ट ने इसपर लिखा है कि एक स्त्री को भोग कर छोड़ दिया जाता है. वैसे ही हाल सत्ता का है. उसे हासिल सबको करना लेकिन उसे सम्मान नहीं देना है. जनता को सत्ता के न्याय की दुहाई देते ये नायक अक्सर ही उसी सत्ता की धज्जियां उड़ाते नज़र आते हैं.

भारत के कानून में है मान-सम्मान और अधिकार देने की व्यवस्था

देश की कानून व्यवस्था आपको तलाक लेने की अनुमति देती है. आपको दोबारा शादी करने की आज़ादी है. सम्पत्ति में से हिस्सा दे सकते हैं. एक स्त्री को उचित दर्ज़ा देने का आपके पास विकल्प है. लेकिन फिर भी अगर आप उसे वो दर्ज़ा ना देना चुन रहे हैं तो आपकी मंशा पर सवाल उठाए जा सकते हैं.

ऐसा लगता है कि महिलायें इन नायकों के लिए किसी सीढ़ी की तरह हैं. किसी काल्पनिक दुनिया में रहते हुए ये नायक फिलॉसफर हो जाते हैं जिनमें इनको सिर्फ खुद के अधिकार और इच्छाएं नज़र आती हैं. अगर यही चीज़ें किसी आम आदमी के जीवन में घटित हों तो उसके लिए तमाम कानूनी दांव-पेंच लगाये जायेंगे और तरह तरह के नाम रखे जायेंगे.

पुराने समय के राजाओं की सौ-सौ रानियों के रखे जाने की कहानियां जब सामने आती हैं तो हम अचंभित होते हैं. लेकिन गौर से देखेंगे तो पता चलता है कि चाहे वो रानियां चाहे प्रेमिकाओं के तौर रखी गईं हों या शादी करके लाई गईं हों या फिर दूसरे राज्यों से जीत कर लाई गईं राजकुमारियां हों, महल में उन्हें उनके अधिकार तो थे. इसके बावजूद हम इन कहानियों के लिए आलोचनात्मक नज़रिया रखते हैं. एक सभ्य समाज के तौर पर सोचते हैं कि कहीं उनका शोषण तो नहीं हुआ. क्या उनको उनके अधिकार मिले? लेकिन भारत की राजनीती के नायकों को प्रेमियों के तौर पर स्थापित कर हम उन्हें उनकी ज़िम्मेदारियों से आज़ाद कर देते हैं.

महिलाओं की जो स्थिति राजतंत्र में थी, वही प्रजातंत्र में भी मालूम पड़ती है.

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