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Wednesday, 6 November, 2024
होममत-विमतडचों ने दास व्यापार में अपनी भूमिका के लिए माफी मांगी है; अब, भारत को अपनी गलतियां स्वीकार करनी चाहिए

डचों ने दास व्यापार में अपनी भूमिका के लिए माफी मांगी है; अब, भारत को अपनी गलतियां स्वीकार करनी चाहिए

इतिहासकार शिहाबुद्दीन अल-उमरी ने 1296-1316 के बीच अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल का जिक्र करते हुए लिखते हैं, 'हजारों गुलामों की बिक्री के बिना कोई दिन नहीं जाता था.'

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जब अराकान की सेना सैकड़ों पैदल सैनिकों के साथ युद्ध हाथियों को लिए जंगलों में मार्च कर रही थी, तो आसमान में झंडे छा गए और ढोल-नगाड़ों की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं, जैसे कि वे बाघ के शिकार पर निकले हों. पहाड़ों को मैदानी इलाकों से अलग करने वाली नदियों की तमाम धाराओं को सेना द्वारा पार करने में मदद करने के लिए हजारों नावें खड़ी थीं. एक दरबारी इतिहासकार के मुताबिक, “सदाचार की प्रतिमूर्ति, और सुबह के सूरज की तरह वीरता के प्रतीक” राजा सिरिसुधम्मराज मानव शिकार की तलाश में था.

इस हफ्ते, नीदरलैंड के राजा विलेम-अलेक्जेंडर ने दास व्यापार को लागू करने में ऑरेंज-नासाउ राजवंश की भूमिका के लिए औपचारिक रूप से माफ़ी मांगी. राजा ने कहा, डच ईस्ट इंडिया कंपनी के दास व्यापारियों ने व्यक्तियों को वस्तुओं में बदल दिया था, यह एक प्रकार का उत्पीड़न था जो “सबसे दुखद, सबसे अपमानजनक, सबसे नीचे दर्जे का का काम” है.

कई दर्दनाक औपनिवेशिक यादों की तरह, हिंद महासागर में दास व्यापार की कहानी भी हमारी यादों से मिटा दी गई, जिसमें मालाबार, कोरोमंडल तट और बंगाल से इंडोनेशिया के बटाविया में डच ईस्ट इंडिया कंपनी की चौकी तक भारतीयों की तस्करी की जाती थी. किंग विलेम-अलेक्जेंडर की माफी से भारत को पीड़ितों का सम्मान करने के लिए प्रेरित होना चाहिए.

भारतीय दास व्यापार

भले ही सम्राट जलाल-उद्-दीन मुहम्मद अकबर ने 1582 में मुगल साम्राज्य के गुलामों को आज़ाद करने का आदेश दिया था फिर भी मानव तस्करी जारी रही. हालांकि, यूनाइटेड किंगडम द्वारा कई शताब्दियों बाद 1838 में ऐसा किया गया था. हजारों गुलाम भारतीयों को वेरीनिगडे नेदरलैंड्स जियोक्ट्रोएरडे ओस्टिनडिस्चे कॉम्पैनी या डच ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा खरीदा जाना जारी रहा, जिन्हें बंगाल और कोरोमंडल तट से समुद्री डाकुओं, भाड़े के सैनिकों और अराकान के ताउंग-ग्नू शासकों द्वारा अपहरण कर लिया गया था.

इतिहासकार मार्कस विंक ने दिखाया है कि हिंद महासागर का दास व्यापार तीन इंटरलॉकिंग सर्किल्स की तस्करी पर निर्भर करता है – एक अफ्रीकी सर्किट, जो पूर्वी अफ्रीकी तट से मेडागास्कर और मॉरीशस तक चलता है; एक मध्य सर्किट, जो मालाबार से कोरोमंडल और बंगाल तक जाता है; और दक्षिण पूर्व एशिया सर्किट जो कि मलेशिया, इंडोनेशिया, इरियन जया और दक्षिणी फिलीपींस तक जाती थी.

हिंद महासागर में दास व्यापार के कुछ इतिहासकारों में से इतिहासकार इशरत अमीन के काम से हमें इसमें शामिल बर्बरता का अहसास होता है.

1624 में अराकान के राजा द्वारा बंगाल पर सफल हमले के बाद, डच ईस्ट इंडिया कंपनी ने कम से कम 10,000 बंदियों को खरीदने के लिए फ्रिगेट जैगर और मुय्स को मेडेन ब्लिकन नामक यॉट/नाव के साथ भेजा था, जिनके बारे में कहा जाता है कि उसे पकड़ लिया गया था. हालांकि, अधिकांश दास जबरन मार्च के दौरान एक महामारी में मर गए थे, और केवल 93 दास ही बिक्री के लिए उपलब्ध थे.


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1643 में, डच ईस्ट इंडिया कंपनी के मुख्य व्यापारी एरेन वान डेल हेल्म ने अराकान के राजा से लाइसेंस प्राप्त किया, जिससे उसे गोंद, नील, सफेद सूती कपड़ा, चावल और इंसानों को खरीदने की आजादी मिल गई. उस वर्ष, कंपनी ने 600 दास खरीदे, जिनमें से 135 बटाविया जाते समय चेचक से मर गए.

उसी वर्ष, डच ईस्ट इंडिया कंपनी के जहाजों ने बीजापुर में युद्ध में पकड़े गए दासों की तलाश में कोचीन तट का पता लगाया. 1660 में नागपट्टनम में विनाशकारी युद्धों और अकाल के बाद, वाल्विस बे और यूलिसेस के दल बिक्री के लिए सैकड़ों गुलामों का पाने में सफल रहे.

बाद में सदी में, दरें तय की गईं: 20 से 36 साल की उम्र के पुरुषों को 12½ रियाल में, 12 से 25 साल की महिलाओं को 8 रियाल में, 8 से 19 साल के लड़कों को 7½ रियाल में, 7-12 साल की लड़कियों को 6 रियाल में और छोटे बच्चों को 3½ रियाल में बेचा जाता था. यहां तक कि छोटे बच्चों को भी ले लिया जाता था, लेकिन उच्च मृत्यु दर के कारण बिना किसी दाम दिए. एक वयस्क पुरुष दास की कीमत एक टन चावल की कीमत का लगभग एक तिहाई थी.

भारतीय दासों का उपयोग ऐ द्वीप पर जावित्री की खेती के लिए किया जाता था, हालांकि यहां पीने के पानी की कमी थी. बांदा में, उनका उपयोग खेती के लिए परती भूमि तैयार करने के लिए किया जाता था, और बटाविया में उनसे नहरें और जल निकासी के लिए नालियां खुदवाने का काम किया जाता था. गवर्नर-जनरल जेरार्ड रीजेंट ने आत्मसंतुष्टता से कहा कि प्रत्येक गुलाम गर्मी में एक डच कर्मचारी की तुलना में बिना किसी कीमत के दोगुना काम कर सकता है.

गुलामों-वाला भारत

अन्य औपनिवेशिक शक्तियों की तरह, डच ईस्ट इंडिया कंपनी ऐसे भारत में काम करती थी जहां गुलामी आर्थिक जीवन में गहराई से अंतर्निहित थी. इतिहासकार शादाब बानो ने दिखाया है कि मध्ययुगीन उत्तरी भारत में हर महान सैन्य अभियान के कारण बाज़ार, बिक्री के लिए गुलामों से भर जाते थे. इतिहासकार शिहाबुद्दीन अल-उमरी ने 1296-1316 के बीच अलाउद्दीन खिलजी के शासन की स्थितियों को बताते हुए लिखते हैं, “हजारों गुलामों की बिक्री के बिना कोई दिन नहीं जाता था.”

“दिल्ली में एक गुलाम लड़की की कीमत आठ टंका होती है, और जो लड़की सेवा के साथ-साथ रखैल के लिए भी उपयुक्त होती है, उसकी कीमत 15 टंका होती है, जबकि एक किशोर गुलाम लड़के की कीमत चार दिरहम होती है.”

1646-1647 में बल्ख में बादशाह शाहजहां की सेना की हार के बाद, उसके दुर्भाग्यशाली सैनिक गुलाम बन गये. 1589 में, रिकॉर्ड बताते हैं कि एक स्वस्थ भारतीय पुरुष दास को समरकंद में 225 टंका में बेचा गया था, लेकिन हार के बाद, कीमत 84 टंका तक गिर गई.

सम्राट ज़हीर-उद-दीन बाबर के संस्मरणों में दर्ज है कि “काबुल तक, हर साल 7-8 हज़ार या 10,000 घोड़े आते थे, और इसके अलावा, हिंदुस्तान से, 10-15 या 20 हज़ार घरों के मुखियाओं का कारवां हर साल सफेद कपड़ा, मिश्री, परिष्कृत व सामान्य चीनी और सुगंधित जड़ों के साथ गुलामों को लेकर आता था.”

प्रारंभिक आधुनिक मध्य एशिया में, इतिहासकार स्कॉट लेवी लिखते हैं: “वस्तुतः प्रत्येक धनी परिवारों में घर और बगीचे की देखभाल के लिए कई दास शामिल होते थे, और बड़ी संख्या में दासों का उपयोग भूमि पर खेती करने के लिए किया जाता था.” उदाहरण के लिए, 1600 के दशक के अंत में, रईस शेख ख्वाजा सईद के पास “भारतीय, कलमाक और रूसी मूल के 1,000 गुलाम” होने के बारे में पता चलता है.

उनकी कुछ कहानियां अभी भी बची हैं: मिन्हाज सिराज, जो 1269 में अफगानिस्तान में अपनी बहन को उपहार भेजने के लिए दासों के साथ दिल्ली से मुल्तान गए थे; फ़ारसी व्यापारी फखर-उद-दीन सफ़हानी द्वारा खरीदा गया मथुरा मूल निवासी हिंदू खान; सुम्बुल, वह भारतीय जो कॉन्स्टेंटिनोपल के दरबार में सेवा करता था.

ईस्ट इंडिया कंपनी के खुफिया अधिकारी मोहन लाल कश्मीरी, बुखारा में एक गुप्त अभियान पर थे, उन्होंने देखा कि भारतीयों और यहूदियों के साथ “बुरा व्यवहार” किया जा रहा था – लेकिन “उन्हें गुलामों के रूप में नहीं बेचा गया, क्योंकि किसी ने उन्हें खरीदा नहीं था, उन्हें निचले दर्जे का और अशुद्ध माना जाता था.”

उनके वरिष्ठ, आर्थर कोनोली ने, खुलम में दास बाज़ार का दौरा किया और पुरुषों को “एक बहुत ही सुंदर फ़ारसी लड़की के लिए सौदेबाजी करते देखा, इतनी सुंदर कि, मैं कहना चाहता हूं, मैंने उसके जैसी कभी नहीं देखी थी.”

“एक हाथ लंबी गर्दन, प्याले जितनी बड़ी आंखें, उसके आंसू वसंत ऋतु में बारिश की तरह गिर रहे थे, और वह पूरी तरह से दुःख में इतनी खो गई थी कि उसे अपनी कोई सुध-बुध नहीं थी.”

भूलने की अजीब बीमारी

संभवतः, दास व्यापार के साथ भारत में हिसाब-किताब की कमी का इस बात से कुछ लेना-देना है कि यह प्रथा भारतीय आभिजात्य वर्ग के जीवन से कितनी उलझी हुई थी. सम्राट अकबर के बाद, मुही-उद-दीन मुहम्मद औरंगजेब ने दासों के निर्यात को रोकने की कोशिश की – यह महसूस करते हुए कि इससे घरेलू श्रम बाजार को नुकसान होगा. 18वीं शताब्दी के बाद से, मध्य एशिया में भारतीय दासों की संख्या कम हो गई, रूसियों के साथ-साथ ईरानियों की आबादी भी बड़ी हो गई.

हालांकि, भारत के अंदर गुलामी की प्रथा बनी रही. इतिहासकार सुमित गुहा ने लिखा है कि 1743 में पेशवा शासक बालाजी बाजीराव अपने एक सहयोगी को चेतावनी देते हुए कहते हैं: “तुम्हें दस साल की दो खूबसूरत लड़कियों को खरीदकर मेरे पास भेजने का निर्देश दिया गया था. इसके बावजूद आपने उन्हें नहीं भेजा. इसे एक अनुस्मारक मानें. एक अन्य पत्र में, बाजीराव ने एक यूरोपीय संगीत वाद्ययंत्र और “सर्वोत्तम गुणवत्ता वाली दो महिलाओं” के उपहार के लिए जयप्पा देसाई को धन्यवाद दिया.

इतिहासकार बरकुर उदय हमें बताते हैं कि 1801 में, ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासकों ने अनुमान लगाया था कि कनारा के दक्षिणी बागानों में 396,672 श्रमिकों की कुल आबादी में से 52,022 दास थे. पुरुषों के लिए कीमतें 0.12 रुपये से 0.26 रुपये, महिलाओं के लिए 0.10 रुपये से 0.24 रुपये और एक बच्चे के लिए 0.8 रुपये तक थीं.

इतिहासकार मुकेश कुमार ने पाया है कि 19वीं सदी तक, बिहार और पटना के जिलों में 1839 में 56,370 गुलाम थे, सात साल से कम उम्र के बच्चों को 10 रुपये में और 15-30 साल के बच्चों को 50 रुपये में बेचा जाता था. अकाल के समय में हालांकि, कीमतें तेजी से गिरकर 12 आना तक आ गईं, क्योंकि परिवार भूख से तड़प रहे अपने बच्चों को बेच देना चाहते थे और भूख से तड़प रहे लोग खुद को भी बेच देना चाहते थे.

1983 की एक रिपोर्ट में, दिप्रिंट के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता ने पाया कि अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में गुलामी अभी भी है. कानूनी रूप से खत्म होने के बावजूद आज भी देश के कई हिस्सों में बंधुआ मजदूरी खत्म नहीं हो पाई है.

राजा विलेम-अलेक्जेंडर की माफी को स्वीकार करने के लिए, भारतीयों को दासता की एक विशाल इंडस्ट्री के साथ अपने पूर्वजों के सहयोग और भागीदारी की दर्दनाक सच्चाई का सामना करना होगा. हालांकि, इसका हिसाब-किताब काफी लंबे समय से लंबित था.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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