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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतBJP और RSS के बीच की दूरियां अब स्पष्ट हैं, नरेंद्र मोदी इसके केंद्र में हैं

BJP और RSS के बीच की दूरियां अब स्पष्ट हैं, नरेंद्र मोदी इसके केंद्र में हैं

अगर मोदी 2024 के चुनाव में बहुमत जीतते हैं, तो आरएसएस की पितामह बने रहने की राहें मुश्किल हो जाएंगी, लेकिन अगर वे विफल रहे, तो वो आरएसएस की संघ परिवार मे प्राथमिकता को सिद्ध करेगी.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के मौजूदा रिश्तों की जिस सच्चाई पर अब तक केवल चर्चाएं हो रही थीं, वो अब स्पष्ट है. भाजपा अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि पार्टी अब आरएसएस से स्वतंत्र हो गई है और उसे अब किसी मददगार की ज़रूरत नहीं है.

यह रहास्योद्घटन किसी ऐसे कैसे नही तो खुद भाजपा अध्यक्ष जैसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति ने किया है.

जो बात इसे दिलचस्प बनाती है वो यह है कि यह 2024 के महत्वपूर्ण लोकसभा चुनावों के ठीक बीच में आया है.

इस वक्तव्य में उलझन में डालने वाली बात यह है कि यह आरएसएस की सावधानीपूर्वक विकसित और अंतरनिहित की गई उस रणनीति को तोड़ता है जिसके तहत सार्वजनिक रूप से ऐसी कोई भी बात न कहे या करे जो एक संघ परिवार के संगठनात्मक मोनोलिथ के मेहनत से बनाए गए मुखौटे को नुकसान पहुंचा सके. ऐसा मुखौटा ऐसा जो उसके विरोधियों को लगातार भयभीत रखता हो.

तो, हम नड्डा के इस खुलासे को क्या समझें?

आरएसएस-बीजेपी एक सुर? भ्रम टूट गया

कोई गलती न करें, एक तरह से भाजपा द्वारा आरएसएस से अपनी आज़ादी की एक घोषणा है. यहां इसमें संदेह का कोई कारण नहीं है क्योंकि इसे खुद नड्डा ने इतने सीधे शब्दों में कहा है.

और यह कोई अनायास टिप्पणी नहीं थी जिसे नड्डा ने इसकी गंभीरता को समझे बिना मूर्खतापूर्ण ढंग से कह दिया हो.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा स्पष्ट रूप से उचित समय पर इस मुद्दे को उठाना चाह रही थी और कुछ समय से भाजपा के शीर्ष नेताओं के भीतर जो भावना थी, उसे व्यक्त करने के लिए नड्डा ने अब द इंडियन एक्सप्रेस के इंटरव्यू का इस्तेमाल लिया.

नड्डा का खुलासा, इस भ्रम को खत्म कर देता है कि आरएसएस और भाजपा पूरी तरह से एक-दूसरे के साथ हैं और दोनों के लिए एक दूसरे से परेशानी जैसी कोई बात नहीं है.

वहीं, कई विश्लेषकों का मानना है कि आरएसएस को बीजेपी और मोदी से शिकायत या चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि मोदी ने आरएसएस के मूल एजेंडे को पूरी तरह से लागू कर दिया है. किसी को यहां आरएसएस की मूलभूत विचार प्रक्रिया में गहराई से उतरने की ज़रूरत है.

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि आरएसएस अपने वैचारिक एजेंडे को आगे बढ़ाने की दिशा में मोदी सरकार द्वारा किए गए कार्यों से खुश है, लेकिन निश्चित रूप से यही सब कुछ नहीं है.

आरएसएस अपने एजेंडे को लागू होते देखना चाहता है, लेकिन अपने संगठनात्मक कामकाज के बारे में अपनी मूलभूत विचार प्रक्रिया की कीमत पर नहीं. उस विचार प्रक्रिया के केंद्र में एक अटल सिद्धांत है — कि संगठन को सर्वोच्च शासन करना चाहिए (संघटन सर्वोपरी है) और किसी भी व्यक्ति या किसी विभुती पूजा द्वारा अवरुद्ध नहीं होना चाहिए.

भाजपा से आरएसएस की वर्तमान अस्वस्थता का कारण भी मोदी शासन के तहत पिछले दस सालों में पूरे संघ परिवार के साथ हुआ ठीक यही व्यवहार है.


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मोदी के शासन में आरएसएस से दूरियां

मोदी ने आरएसएस को दूर रखते हुए हिंदुत्व का एजेंडा आगे बढ़ाया है. उन्होंने किसी को भी अपना कमांडर नहीं बनने दिया, यहां तक कि आरएसएस को भी.

रिश्ते के बीच तनाव इतना स्पष्ट था कि इसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता था. प्रधानमंत्री रहते हुए अपने दस साल के शासन के दौरान, मोदी द्वारा आरएसएस से सलाह लेने के शायद ही कोई उदाहरण हों.

आरएसएस के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि जब भी आरएसएस के दूत सरकार को कुछ बताना चाहते थे तो वे व्यक्तिगत रूप से उनसे बात नहीं करते थे.

मोदी उस तरह की विनम्रता वाले आखिरी व्यक्ति के लिए बिल्कुल भी नहीं जाने जाते. प्रधानमंत्री बनने के बाद उनका आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार और उनके उत्तराधिकारी एमएस गोलवलकर की नागपुर स्थित समाधियों/स्मारकों पर न जाना और उन्हें पीएम बनने में मदद करने के लिए आरएसएस का ऋणी होने की भावना व्यक्त न करना इस संगठन के प्रति उनकी उदासीनता का प्रमाण है.

मोदी किसी को भी खुश रखने के लिए कुछ भी करने में विश्वास नहीं करते, जब तक कि उन्हें एक प्रभावशाली स्थिति में बनाए रखने के लिए इसकी सख्त ज़रूरत न हो.

पिछले दस साल में हमने जो स्पष्ट रूप से देखा है वो यह है कि मोदी संघ परिवार के गुरुत्वाकर्षण का केंद्र बन गए हैं और हर चीज़ उनके इर्द-गिर्द घूम रही है.

यह कुछ ऐसा है जो आरएसएस के मूलभूत सिद्धांत के खिलाफ है कि कोई भी संगठन से ऊपर नहीं है, यहां तक कि आरएसएस प्रमुख भी नहीं.

आरएसएस ने अपनी स्थापना के बाद से ही किसी भी व्यक्ति को अधिनायकवाद को दूर रखने के लिए भगवा ध्वज को गुरु मानने पर जोर दिया है.

“संगठन में ही शक्ति है” यह निर्विवाद है और इसलिए इस पर कोई आंच नहीं आने दी जाती है.

मोदी ने अपने विशिष्ट अधिनायकवादी अंदाज़ में उस सिद्धांत का उल्लंघन किया है और यही आरएसएस की उनके प्रति बेचैनी का कारण है.


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आरएसएस के रुख में द्वंद्व

आरएसएस के इस मूल आधार में एक विडंबना है — जबकि आरएसएस सैद्धांतिक रूप से, लेकिन चतुराई से इस परोपकारी तानाशाह के विचार को बढ़ावा देता है, यह संघ परिवार संगठन के भीतर किसी भी व्यक्ति को यह भूमिका निभाने के लिए तैयार होने नही नहीं दे सकता है.

आरएसएस का मानना है कि जिस क्षण संगठन किसी व्यक्ति के अधीन हो जाता है, यह उसके लिए लौकिक मौत की घंटी साबित हो सकता है.

सरकारें आएंगी और जाएंगी, लेकिन संगठन रहना चाहिए. यह अपने इस अस्तित्व की चिंता है जिसने आरएसएस को पूरे संघ परिवार की तुलना में नरेंद्र मोदी की कार्यशैली से अलग कर दिया है.

इसके साथ ही मोदी की भाजपा कई आरएसएस कार्यकर्ताओं को सरकार के साथ-साथ पार्टी संगठन के भीतर भी महत्वपूर्ण पदों और महत्वपूर्ण भूमिकाओं के लिए आकर्षित कर रही है. इसने संगठन के प्रति निःस्वार्थता के उस मूल्य को काफी हद तक भ्रष्ट कर दिया है जिसे आरएसएस बचपन से ही अपने कार्यकर्ताओं के भीतर विकसित करता आया है.

इसीलिए आरएसएस इस चुनाव में ज़ाहिर तौर पर खुद को बीजेपी से अलग रख रहा है. मोदी के लिए इसकी अघोषित चुनौती है: अगर आपको लगता है कि आपको आरएसएस की ज़रूरत नहीं है, तो जाइए और अपने दम पर जीतिए.

इस चुनाव में आरएसएस की ओर से उत्साह की कमी का कारण अलगाव की भावना के अलावा और कुछ नहीं हो सकता और यह इस बेहद महत्वपूर्ण चुनाव से आरएसएस की दूरी है जो चुनावी मौसम के ठीक बीच में आरएसएस से आज़ादी की नड्‌डा की संक्षिप्त घोषणा के पीछे हो सकती है.

नड्डा यह भी कहते हैं कि आरएसएस एक “वैचारिक मोर्चा” है जबकि यह मूल संगठन है और भाजपा इसका राजनीतिक मोर्चा है.

क्या नड्डा ने जानबूझकर आरएसएस के लिए “मोर्चा” शब्द का इस्तेमाल किया या भाषाई कौशल की अपर्याप्तता के कारण यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन यह संघ परिवार के भीतर आरएसएस के व्यापक महत्व को कम करता है.

तो, आरएसएस और भाजपा के बीच यह “दूरियां” किस ओर जा रही हैं? हमें चुनाव के नतीजे आने तक इंतज़ार करना होगा.

अगर मोदी बहुमत जीतते हैं, तो आरएसएस के लिए पितामह बने रहने की राहें मुश्किल हो जाएंगी, लेकिन अगर वे विफल रहे, तो वो आरएसएस की संघ परिवार मे प्राथमिकता को सिद्ध करेगी. इसके बाद यह संघ परिवार के संरक्षक के रूप में अपना गौरव फिर से हासिल करने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है.

(लेखक नागपुर स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जिन्होंने द इंडियन एक्सप्रेस के साथ काम किया है. उनका एक्स हैंडल @vivekd64 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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