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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतGDP अंतिम कसौटी नहीं है, वह जलवायु परिवर्तन के असर को दर्शाने में विफल हो सकता है

GDP अंतिम कसौटी नहीं है, वह जलवायु परिवर्तन के असर को दर्शाने में विफल हो सकता है

कार्बन उत्सर्जन के प्रभावों का सही आकलन करने के प्रयासों में कॉर्पोरेट वाला तरीका अपनाने, पुरानी पड़ चुकी तथा खारिज की जा चुकी परिसंपत्तियों की जगह नयी परिसंपत्तियां बना कर संतुलन साधने की जरूरत है.

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सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी की आधुनिक अवधारणा करीब नौ दशक पुरानी है. 1944 में हुए ब्रेट्टन वुड्स सम्मेलन में इसे प्रमुख आर्थिक पैमाने के रूप में औपचारिक तौर पर अपनाया गया था, इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और विश्व बैंक का भी जन्म हुआ था. उसके बाद से जीडीपी ने जो प्रमुखता हासिल की है उसकी कई आलोचक निंदा करते हैं क्योंकि यह जनकल्याण, असमानता, और मानव विकास आदि की बात नहीं करता. जीडीपी आर्थिक गतिविधियों के चलते पर्यावरण को हुए नुकसान, और जलवायु परिवर्तन के कारण लोगों पर पड़ रहे प्रभावों का भी हिसाब नहीं रखता. विडंबना यह है कि पेड़ों की कटाई, और उसके बाद किए गए वनीकरण से भी जीडीपी में वृद्धि दर्ज की जाती है.

इस वजह से जीडीपी अपनी कुछ वर्तमान विशेषता गंवा सकता है.

कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने और जलवायु परिवर्तन को रोकने के बढ़ते प्रयासों पर विचार करें. अक्षय ऊर्जा की क्षमता बढ़ाने, बिजली से चलने वाले वाहनों के उत्पादन, और इन सबसे जुड़े कई उद्योगों की नयी खोज के लिए भारी निवेश किए जा रहे हैं.

कुछ देशों में बिजली की अतिरिक्त या लगभग पूरी क्षमता अक्षय ऊर्जा की बदौलत पूरी की जा रही है इसलिए कोयले से चलने वाले बिजलीघर बंद किए जा रहे हैं. पेट्रोल और डीजल चलने वाली कारों की बिक्री दुनिया भर में शिखर छू चुकी है. उनकी संख्या अब घटने वाली है और बिजली चालित वाहन उनकी जगह ले रहे हैं. कई विशाल, पारंपरिक उद्योगों को बंद करने की गति आगामी दशक में तेज होने वाली है.

ऐसी उथलपुथल में जीडीपी भ्रामक साबित हो सकती है. इस उथलपुथल को केवल एनडीपी (मूल्यह्रास को जीडीपी में से घटाने के बाद हासिल) ही दर्ज कर पाएगा और मौजूदा परिसंपत्तियों के तीव्र मूल्यह्रास या थोक छंटाई का भी हिसाब रखेगा. अगर कोयले से चलने वाले किसी बिजली संयंत्र की जगह सौर या वायु ऊर्जा संयंत्र को लगाया जाता है, तो आर्थिक गतिविधि में की गई कुल वृद्धि, जिसे एनडीपी द्वारा मापा गया है, कोयले वाले संयंत्र को बंद करने की प्रक्रिया का हिसाब रखेगी जबकि जीडीपी केवल सौर या वायु ऊर्जा संयंत्र द्वारा किए उत्पादन का हिसाब रखेगा.


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जबकि अर्थव्यवस्था की उत्पादक परिसंपत्तियां बढ़ रही हैं, मूल्यह्रास भी महत्व हासिल कर रहा है. पिछली सदी की तीसरी चौथाई में, भारत के जीडीपी और एनडीपी (मूल्यह्रास) के बीच 6 फीसदी से ज्यादा का अंतर था. आज यह अंतर 12 फीसदी का हो गया है. कार्बन उत्सर्जन को घटाने नहीं बल्कि काबू में रखने की मुहिम के कारण परिवर्तन की अवधि के दौरान इन दो पैमानों के बीच का अंतर और बढ़ेगा क्योंकि कार्बन पर आधारित उत्पादन केंद्रों का जीवन औपचारिक रूप से खत्म होने से पहले ही उनकी जगह ज्यादा स्वच्छ उपायों को अपना लिया जाएगा.

उदाहरण के लिए, रेलवे अभी भी नये डीजल इंजिन जोड़ रहा है जबकि उनमें से कई को जल्दी ही दरकिनार कर दिया जाएगा क्योंकि रेलवे सभी ढुलाई मार्गों का विद्युतीकरण करने जा रहा है.

इन सभी तथा ऐसे सभी बदलावों का हिसाब रखना अपेक्षित मूल्यह्रास को पूरी तरह नहीं दर्ज कर पाएगा क्योंकि आम मैक्रो आर्थिक आंकड़े निर्मित पूंजी के मूल्यह्रास को तो दर्ज तो कर सकेंगे मगर प्राकृतिक पूंजी (पानी, वन संपदा, स्वच्छ हवा आदि) की उपेक्षा करते हैं. भारत में भूजल का स्तर दशकों से गिरता जा रहा है और अनाज उपजाने वाले राज्यों में संकट पैदा कर रहा है. वायु प्रदूषण लोगों के स्वास्थ्य को कुप्रभावित कर रहा है. गंगातट के मैदानी इलाके में तापमान में वृद्धि के कारण काम के घंटे प्रभावित हो रहे हैं. हिमालय क्षेत्र में बांधों के निर्माण से पर्यावरण को कैसे नुकसान पहुंच रहा है, यह जोशीमठ वालों से पूछिए. बांध खुद नष्ट हो सकते हैं, जैसे 2021 में जल के प्रवाह में दो बांध टूट गए.

इन सबसे निबटने और औद्योगिक परिवर्तन के लिए जो लागत है वह ऊपर ही जाने वाली है. इसका एक नतीजा यह होगा कि पूंजी-उत्पादन अनुपात बढ़ेगा या उत्पादन की एक इकाई के लिए जरूरी इकाइयों की संख्या बढ़ेगी. पूंजी-उत्पादन के ऊंचे अनुपात के कारण आर्थिक वृद्धि स्वतः सुस्त ही पड़ेगी. ऐसे में आर्थिक गतिविधि के प्रमुख पैमाने के तौर पर जीडीपी कम विश्वसनीय हो जाएगा.

एनडीपी पर नज़र रखना ही काफी नहीं होगा. देश की अर्थव्यवस्था की परिसंपत्तियों और देनदारियों (प्राकृतिक और मानवीय परिसंपत्तियों समेत) की बैलेंसशीट में सालाना होने वाले परिवर्तनों पर अलग से नज़र रखनी होगी. जीडीपी और एनडीपी के साथ-साथ इस बैलेंसशीट पर भी नज़र रखनी होगी, जैसे कंपनी के शेयरधारक उसकी परिसंपत्तियों और देनदारियों की बैलेंसशीट के साथ उसकी आमदनी और खर्च के ब्योरों पर भी नज़र रखते हैं. बैलेंसशीट अक्सर ज्यादा महत्वपूर्ण दस्तावेज़ होता है. जब कि जलवायु परिवर्तन तमाम देशों को समय के मुताबिक ढलने के लिए मजबूर कर रहा है, आर्थिक कदमों में किन बातों पर ज़ोर देना है, इसमें भी परिवर्तन आएगा.

(व्यक्त विचार निजी हैं. बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख़ को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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