अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आज सेक्युलरवाद जैसा कमज़ोर, निस्तेज और माफीनामा लिखने की मुद्रा में है वैसा अब से पहले कभी न था. सेक्युलरवाद की इस दीन-दशा के दोषी कोई और नहीं बल्कि खुद सेक्युलरवाद के झंडाबरदार हैं, दोष उनके पाखंड का है और अभिमान का भी. सेक्युलर बुद्धिजीवी और राजनेता हमारे इस संविधानिक आदर्श को आम नागरिक की बोल-चाल और मुहावरे के अनुकूल ढाल पाने में नाकाम रहे.
लेकिन मेरी इन बातों का मतलब ये न निकाला जाय कि यहां मैं सेक्युलरवाद के विचार को खारिज कर रहा हूं. आज के वक्त में अपनी गर्दन तानकर कहने की ज़रूरत है कि सेक्युलरवाद एक पवित्र सिद्धांत है और भारत की अवधारणा से बद्धमूल है. भारतीय राजसत्ता संगठित धर्मों से एक सुविचारित दूरी बनाकर रखे — यह विचार हमांरे संविधान का अनिवार्य हिस्सा है. ये सिर्फ नैतिक आदर्श ही नहीं बल्कि एक राजनीतिक अपरिहार्यता भी है. आगे के वक्तों में या तो सेक्युलर भारत रहेगा या फिर ये यह जोखिम रहेगा कि भारत जैसी कोई शय बचे ही नहीं.
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सेक्युलरवाद बेशक एक पवित्र सिद्धांत है लेकिन सेक्युलर राजनीति इस आदर्श पर शायद ही कभी चल सकी. आज़ादी के बाद से ही सेक्युलर राजनीति एक छलावे में बदल गई. देश के बंटवारे के तुरंत बाद के समय में सेक्युलर राजनीति के भीतर बड़ा मजबूत संकल्प नजर आया था लेकिन धीरे-धीरे मामला राजनीतिक सुविधा और वोट-बैंक की राजनीति से जुड़ी मजबूरियों का बनता चला गया. एक पिलपिले किस्म के अल्पसंख्यकवाद और अल्पसंख्यक तबके के मतदाताओं को अपने खेमे में बंधक बनाये रखने की सनक का नाम सेक्युलर राजनीति हो गया. इसकी प्रतिक्रिया होनी ही थी. आज इसी का नतीजा है जो सेक्युलर राजनीति हथियार डाल देने की मुद्रा में नतमुख खड़ी है. सेक्युलर राजनीति की दीन-दशा को जानना हो तो गौर कीजिए उस तीन पंक्तियों के बयान पर जो कांग्रेस कार्यकारिणी ने अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जारी किया है. इस बयान पर जो प्रतिक्रिया आयी है या फिर अन्य बड़ी पार्टियों ने जो चुप्पी साध रखी है, वह भी अपने तेवर में कुछ अलग नहीं. सेक्युलर राजनीति की दुविधा पर अयोध्या मामले में आये फैसले से कोई पूर्ण विराम नहीं लगने वाला, अन्य कई कठिन मसले सेक्युलर राजनीति का इम्तिहान लेने के लिए आन खड़े हैं.
बहरहाल, पाखंड या फिर दोचित्तापन भारतीय सेक्युलरवादियों की असल मुश्किल नहीं. जरूरी नहीं कि किसी वैचारिक बुराई पर एकाधिकार उन्हीं पार्टियों का हो जो अपने को सेक्युलर कहती हैं. हिन्दू, मुस्लिम या फिर सिख सांप्रदायिकता की राजनीति में भी आपको ऐसे ही शीर्षासनी मोड़ और सियासी चालबाजियां मिलेंगी. मिसाल के लिए गौर करें बीजेपी के नेताओं की इस बात पर कि आस्था का मामला अदालत के जरिये नहीं सुलझाया जा सकता और जरा इस तस्वीर को आज के वक्त से मिलाकर देखिए जब बीजेपी के नेता न्यायपालिका को लेकर एकदम से श्रद्धावनत दिख रहे हैं. बीजेपी और एआईएमआईएम जिस तरह वोट-बैंक की राजनीति करते हैं वैसे ही कांग्रेस और समाजवादी पार्टी भी.
भारतीय सेक्युलरवाद की असली समस्या है उसका सांस्कृतिक राजनीति के मोर्चे पर नाकाम होना. राजनीति सिर्फ चुनाव लड़ने, सरकार बनाने, आंदोलन चलाने जैसी चीजों का नाम नहीं. गहरी राजनीति का मतलब होता है अपनी मनोवांछित दिशा में जनमत को मोड़ना और बनाना. राजनीति नये शब्दों को गढ़ने, पुराने शब्दों में नये मायने भरने और लोगों को इन शब्दों तथा मायने को स्वीकार करने के लिए तैयार करने का नाम है. ऐसा साहित्य, सिनेमा या फिर नाटक सरीखे कला-माध्यमों के सहारे किया जा सकता है या फिर ऐसा राजनीतिक भाषण, टेलीविजन की बहसों अथवा अफवाहों के जरिये हो सकता है.
सेक्युलर राजनीति इसी मुकाम पर नाकाम हुई है और यही वो मुकाम है जहां हिन्दुत्व की राजनीति कामयाब रही. हमारे आजादी के आंदोलन के दौर में सेक्युलरवाद हमारे हृदय से उठती हुई किसी गहरी पुकार के मानिन्द थी. इस पुकार को हर किस्म की सांप्रदायिकता से हरचंद परहेज था. लेकिन आज सेक्युलरवाद अनजाना जान पड़ता है, एक ऐसा विचार जिसे कोई हाथ झटककर फारिग हो ले. सेक्युलरों को आजकल ‘सिकुलर’ (बीमारी का शिकार) और लिबरल को ‘लिबटार्ड’ का नाम दिया जाता है. दूसरी तरफ, हिन्दुत्व की मुनादी कुछ इस भांति हो रही है मानो वह इतिहास की गलतियों को दुरुस्त करने वाली शय और आत्मसम्मान तथा राष्ट्रीय पुनरुत्थान का आंदोलन हो.
तस्वीर को एक सिरे से बदल देने वाला यह करिश्मा आखिर हुआ कैसे? सेक्युलरवाद सरीखे आदर्श सिर्फ संविधान में दर्ज कर दिये जाने भर से ही जीते-जागते नहीं रहते. ऐसे आदर्शों को जिलाये-जगाये रखने के लिए लोगों से लगातार संवाद करते रहना होता है, इन आदर्शों को हर नयी पीढ़ी के लिए उसके जामे और मुहावरे में ढालना होता है. सेक्युलर जमात के अभिजन ने ऐसे संवाद से दशकों पहले तौबा कर लिया था.
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दूसरी तरफ संघ-परिवार है जो देश की आजादी के बाद के वक्तों में कलंकित और निहायत कमजोर होने के बावजूद संस्कृति के मोर्चे पर लगातार संवाद-कर्म में जुटा रहा. संघ-परिवार ने आम जनता से उनकी बोली-भाषा, मुहावरे और सांस्कृतिक संवेदना के धरातल को पहचानकर बात की. लेकिन सेक्युलरवादी इस काम से विमुख रहे. हद तो ये हुई कि सेक्युलरवादियों ने अपने को जन-संस्कृति से जोड़े रखने की भी जुगत न की. सेक्युलरवाद अभिजन का सिद्धांत बनकर सिमटता चला गया जबकि हिन्दुत्व (और अल्पसंख्यकों के बीच प्रचलित इसके वैचारिक सगे-संबंधी) लोगों के बीच आम विश्वास बनकर पसरा. ऐसे में लोकतंत्र के जरिये ये सुनिश्चित हुआ कि जिस चीज का लोगों के बीच पसारा है उस विश्वास की जीत होगी.
धर्म और परंपराओं को लेकर एक तटस्थता का भाव रहा और लोगों के आम विश्वास से इसी कारण सेक्युलरवादियों का नाता टूटा, वे विचारों के मोर्चे पर युद्ध हार गये. आजादी के आंदोलन के दौर में हमारे ज्यादातर राजनेता गहरे अर्थों में धार्मिक थे लेकिन साथ ही साथ सेक्युलरवाद में उनकी आस्था अडिग थी. इस मामले में जवाहरलाल नेहरू अपवाद कहे जायेंगे. ज्यादातर नेता किसी एक धर्म और कभी-कभी तो एक से ज्यादा धर्मों में सरापा आस्थावान थे. राष्ट्रवादी खेमे के कई नेताओं ने गीता पर टीका लिखी. मौलाना आजाद सरीखे नेता इस्लाम के आलिम के रूप में प्रसिद्ध थे. विनोबा भावे की विभिन्न धर्मों के निष्णात पंडित के तौर पर प्रतिष्ठा थी. इसके बावजूद ये नेता एक ऐसे भारत के तरफदार थे जहां किसी भी एक धर्म का दबदबा न होगा.
इस बात की जरा आज के हमारे रोजमर्रा के जीवन से तुलना करें. आज ऐसे कितने राजनेता हैं जो आपको अपने धर्म में खूब आस्थावान मगर साथ ही साथ सेक्युलरवाद के प्रति अडिग विश्वास वाले दिखते हैं? छोड़ दें राजनेताओं को, शिक्षित भारतीय की ही बात करें—आज आपको ऐसे कितने शिक्षित भारतीय दिखते हैं जो अपने धर्मग्रंथों और धार्मिक आचारों के जानकार हों? शिक्षित भारतीयों और राजनेताओं के बीच एक सांस्कृतिक शून्य की सी स्थिति है और इस शून्य में कोई भी धार्मिक विरासत का गार्जियन होने का दावा ठोक सकता है. ऐसी स्थिति का भली-भांति राजनीतिक दोहन किया जा सकता है.
हिन्दू धर्म को लेकर ये बात खास तौर पर सही दिखती है. यों तो सेक्युलर राजनीति हर धर्म को लेकर उपेक्षा का भाव रखती है लेकिन हिन्दू धर्म के प्रति उसके मन में खास हिकारत का भाव रहा. एक तरफ ये दिखता है कि हिन्दू धर्म सरीखे गैर-सामी धर्म-परंपराओं के प्रति आधुनिक और उपनिवेशित होने की नियति से बिंधे दिल-दिमाग वालों की समझ एकदम पोली है तो दूसरी तरफ एक तस्वीर वह भी है जहां नजर आता है कि आधुनिक समतावादी विचारों की एक धारा जो जाति के आधार पर होने वाले अन्यायों को लेकर मुखर है, हिन्दुओं के बीच प्रचलित समाज-व्यवस्था को लेकर रोष में है.
इन दो बातों के मिले-जुले असर से सेक्युलरवादी दायरे में ये धारणा बन चली है कि हिन्दू धर्म दुनिया के सबसे प्रतिगामी धर्मों में एक है. अपनी अधकचरी जानकारी को हथियार बनाकर हिन्दू धर्म पर तंज कसना और हमलावर होना बौद्धिकों के दायरे में एक चलन बन गया था. इससे हिन्दुत्व की राजनीति करने वालों को एक मौका मिला कि वे अपने को पीड़ित बताकर अपने पक्ष में माहौल खड़ा करें.
लेकिन बात यहीं तक सीमित न रही—अपनी जड़ों सी कटी बौद्धिक अभिजन की जमात देसी भाषा में अपनी बात कहने में नाकाम रही. ऐसे में उसका लोगों से जुड़ाव एकदम ही खत्म हो गया. इस मोर्चे पर भी आजादी के आंदोलन के दौर के बरक्स बड़ा साफ फर्क दिखता है. उस दौर के हमारे लगभग सारे ही महान राजनेता अंग्रेजी पढ़ते तो जरूर थे लेकिन लिखते और बोलते अपनी देसभाषा में ही थे. आजादी के बाद के दौर का सेक्युलर अभिजन एकभाषी है, वो सिर्फ अंग्रेजी लिखता-पढ़ता और बोलता है. शासकों और शासितों के बीच की इस खला में ‘खान मार्केट गैंग’ सरीखा सियासी जुमला अर्थ और आकार ग्रहण कर पाता है.
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ऊपर दर्ज ये बातें कड़वी लग सकती हैं— जो लोग इस मुश्किल भरे वक्त में सेक्युलर हिन्दुस्तान का विचार बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं उन्हें ये बातें बहुत चोट पहुंचा सकती हैं. फिर भी, मुझे उम्मीद है कि मेरे ऊपर के निष्कर्षों से ये बात सबक के तौर पर साफ होगी कि सेक्युलर भारत के विचार को उसकी दीन-दशा से उबारने के लिए सिर्फ बीजेपी को हराना भर काफी नहीं बल्कि इसके लिए एक नये तर्ज की सांस्कृतिक राजनीति की जरूरत है जिसमें लोगों के साथ उनकी बोली-भाषा में उनके सांस्कृतिक और नैतिक संवेदना तथा मुहावरे को समझते हुए सतत संवाद हो. रास्ता लंबा है लेकिन इसका कोई और विकल्प नहीं.
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)
ये लेख एक सेक्युलरवादी का माफीनामा भर है ; आजादी से पहले के बिंदुयो से सहमत हुआ जा सकता है | लेकिन ऐसा बिल्कुल जरूरी नहीं कि आपको सेक्युलर होने के लिए धार्मिक होने की जरूरत है | ज्यादा लिखने का अभी मन नहीं है