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Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टमोदी-शाह को 5 अगस्त 2019 को ही अनुमान लगा लेना चाहिए था कि चीन लद्दाख में कुछ करेगा, इसमें कोई रहस्य नहीं था

मोदी-शाह को 5 अगस्त 2019 को ही अनुमान लगा लेना चाहिए था कि चीन लद्दाख में कुछ करेगा, इसमें कोई रहस्य नहीं था

चीन लद्दाख में जो कुछ कर रहा है उससे भारत को हैरान होने की जरूरत नहीं थी, बल्कि उससे इसी की उम्मीद करनी चाहिए थी, खासकर तब जबकि भारत ने जम्मू-कश्मीर का दर्जा बदल दिया है.

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आप कहेंगे कि चीनी सेना पीएलए जब लद्दाख की हमारी सरहद पर आक्रामक हरकतें कर रही है तब मैं भला अमेरिकी व्यंग्यकार पी.जे. ओ’रूर्क को क्यों उदधृत कर रहा हूं?

यह उद्धरण उनके संकलन ‘रिपब्लिकन पार्टी रेप्टाइल’ में संकलित उनकी एक शानदार रचना ‘अ ब्रीफ़ हिस्टरी ऑफ मैन’ से है, जिसे आप इस लिंक पर देख सकते हैं.

एक हज़ार से भी कम शब्दों में यह रचना मानव जाति के पूरे इतिहास को बहुत ही दिलचस्प तरीके से प्रस्तुत करती है. ओ’रूर्क उन सभी महान सभ्यताओं और शासनों पर टिप्पणी करते हैं, इतिहास के क्रम में जिनका उत्कर्ष और पतन हुआ. लेकिन आज के लिए उनकी एक छोटी-सी टिप्पणी बेहद मौजूं है, जिसमें वे चीन को यह कहकर खारिज करते हैं कि ‘उधर चीन में, चीनी थे.’

आप इसकी चाहे जैसे व्याख्या कर लीजिए, मेरा अनुमान यह है कि ‘रहस्यपूर्ण’ चीनियों को लाइलाज मानने का जो भाव है, जो कि पश्चिम में ज्यादा दिखता है, उसे ही ओ’रूर्क अपनी इस सटीक टिप्पणी में रेखांकित कर रहे हैं. लेकिन हम तो पश्चिम वाले नहीं हैं, हम तो सभ्यताओं के उदय के काल से ही उसके ठीक बगल के पड़ोसी हैं.

आज़ादी के बाद से चीन के साथ अपने संबंधों पर अगर हम नज़र डालें तो ऐसा क्या है कि जिसके आधार पर हम उन्हें रहस्यपूर्ण मानेंगे? 1962 में उन्होंने दो मोर्चों पर हम पर जो हमला किया वह हमारे नेताओं के लिए एक सदमा रहा होगा, मगर इसकी वजह यह थी कि वे मतिभ्रम के शिकार थे.

उसके बाद से भारत के मामले में चीन का हर कदम यही बताता है कि वह रहस्यपूर्ण तो कतई नहीं रहा है बल्कि इसके उलट, अनुमेय ही रहा है (यानी वह क्या करेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता था)— चाहे यह 1965 में पाकिस्तान के साथ हमारी 22 दिन की जंग के दौरान चीन की यह धमकी रही हो कि ‘चुराए गए हमारे याक और भेड़ें लौटा दो!’ या इस साल लद्दाख सीमा पर उसकी कथित रूप से ‘आश्चर्यजनक’ हरकतें हों.

नाथु ला (सिक्किम) में 1967 में दबाव शायद भारत की मजबूती का अंदाजा लगाने के लिए किया गया था. तब उसे लग रहा था कि 1962 और 1965 की लड़ाइयां लड़ने, अकालों का सामना करने, अनाज के लिए विदेशी मदद पर निर्भर रहने, राजनीतिक अस्थिरता और इंदिरा गांधी का कद घटने के कारण भारत पस्तहाल होगा. याद रहे कि चीन 1964 में परमाणु मंडली में शामिल हो चुका था.


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लेकिन भारत ने 1967 में उसे जो जवाब दिया था उससे उसने तुरंत सबक सीख लिया. उस संक्षिप्त, तीखी, स्थान-केन्द्रित मगर ऐतिहासिक टक्कर का विस्तृत ब्यौरा प्रोबल दासगुप्ता ने अपनी ताज़ा किताब ‘वाटरशेड 1967: इंडियाज़ फॉरगौट्न विक्टरी ओवर चाइना’ में दिया है, जिसका ब्लर्ब लिखने का गौरव मुझे प्राप्त हुआ है. भारत के उस जवाब के बाद चीन ने 53 वर्षों तक शांति बनाए रखी.

क्या इसे आप चीन के रहस्यपूर्ण होने का प्रमाण मानेंगे? नहीं. उसने हमारा जायजा लिया, और जोर का झटका खाने के बाद हांडी को अलग-अलग समय पर अलग-अलग तरीके से हिलाते हुए इंतज़ार करते रहने का फैसला किया.

1960 के आसपास से अब तक के छह दशकों में चीन भारत के साथ अपने रिश्ते को अपनी गति और अपनी मर्जी से दिशा देता रहा है. पंडित नेहरू को चाहे जिन भयानक भूलों का दोषी ठहराने का आज फैशन चल पड़ा हो, 1962 में वे बेमानी हो चुके थे. चीन को 1962 में जो चाहिए था उसे उसने कब्जे में कर लिया.

सच्चाई यह है कि लद्दाख में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण कुछ छोटे-छोटे टुकड़ों को छोड़ उसने लगभग पूरा कब्जा कर लिया था. उसने अपनी मिल्कीयत का दावा कर दिया और अरुणाचल प्रदेश पर अपने बड़े दावे के बावजूद उसे पूरी तरह भारत के कब्जे में छोड़ दिया, उसे सैन्य चुनौती नहीं दी. लेकिन उस पर अपना दावा उसने कभी छोड़ा नहीं. इस क्षेत्र और पूरी दुनिया में सत्ता समीकरण में अदल-बदल के साथ ही उसके तेवर बदलते रहे.

1986-87 में फिर उसने वांगदुंग-सुमदोरोंग चू (अरुणाचल) में हमें तब आजमाने की कोशिश की जब उसने देखा कि राजीव गांधी ने भारत के रक्षा बजट को ‘न भूतो-न-भविष्यति’, जीडीपी के 4 प्रतिशत के बराबर कर दिया था क्योंकि ‘ऑपरेशन ब्रासटैक्स’ के बाद भारत-पाकिस्तान ने तलवारें खींच ली थीं.

एक बार फिर, उसे ठोस जवाब (जनरल सुंदरजी के ‘एक्सरसाइज़ चेकरबोर्ड’) से मिला और वह पीछे हट गया. यह सबक एक बार फिर मिला कि चीन बेमकसद गोली नहीं दागेगा. या तब तक नहीं जब तक उसे आसानी से जीतने का पूरा भरोसा न हो ताकि ‘एक नौसिखिए को सबक सिखाया जा सके’, जैसा कि उसने 1962 में किया था. यह भी यही बताता है कि वह कतई रहस्यपूर्ण नहीं बल्कि इसके उलट अनुमेय है.

और भी उदाहरण हैं. माओ जेडोंग ने 1970 में बीजिंग में भारतीय दूतावास में महज प्रभारी राजदूत ब्रजेश मिश्र की ओर मोना लीसा वाली रहस्यमय मुस्कान फेंकी थी, जनता पार्टी सरकार के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बीजिंग दौरे के दौरान उसने परमाणु परीक्षण कर डाला था, दलाई लामा के तवांग दौरे पर उसने गरम तेवर दिखाए थे. ये सब इसी प्रवृत्ति को उजागर करते हैं.

1962 से लेकर डोकलाम तक सब कुछ इसी प्रवृत्ति को दर्शाता है कि एक संकेत दे दो, उस पर दावा मजबूत करो, और फिर कदम पीछे खींच लो. हाल में चूमर, देपसांग और डोकलाम समेत हर टकराव का अंत इसी तरह हुआ है. सबका संदेश यही है कि समझ जाओ कि यहां बॉस कौन है. चूमर के मामले में यह संदेश भारत के लिए था, जबकि वह शी जिंपिंग के स्वागत में जुटा था. डोकलाम के मामले में यह संदेश भूटान के लिए था.

हम पत्रकार चाहे जो दिखावा करें, हम ज़्यादातर मामले के विशेषज्ञ तो नहीं होते हैं, चीन के तो और भी नहीं. लेकिन पत्रकारों को जानकार लोगों से जानने-समझने का विशेषाधिकार हासिल है. दशकों से हम दो से ज्यादा पीढ़ियों के विद्वानों से सीखते आए हैं, चाहे वे स्वतंत्र भारत के सबसे महान रणनीति विशेषज्ञ स्वर्गीय के. सुब्रह्मण्यम हों, या जनरल के. सुंदरजी या सी. राजा मोहन आदि. लेकिन आज के संदर्भ में दो हस्तियों से हुई बातचीत प्रासंगिक लगती है.


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डॉ. मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री थे, उन्होंने संपादकों के एक ग्रुप की अच्छी क्लास ली थी. उन्होंने कहा था कि चीन भारत को हमेशा अस्थिर रखने के लिए पाकिस्तान को बड़ी सफाई से मोहरा बना रहा है. हमारा भविष्य इस पर निर्भर है कि हम इस ‘त्रिशूल’ की तोड़ निकालें. उनका सुझाव यह था कि हम पाकिस्तान से अच्छे रिश्ते बनाने की कोशिश करें. उनका मानना था कि ज्यादा विशाल, ज्यादा ताकतवर चीन को भारत की बजाय पाकिस्तान से शांति करना ज्यादा मुफीद लगेगा. वैसे भी, भारत को पाकिस्तान से उलझाए रखना चीन के लिए कम महंगी रणनीति होगी.

‘त्रिशूल’ को तोड़ने की मनमोहन की रणनीति यही थी. लेकिन आज पाकिस्तान से दुश्मनी मोदी-भाजपा राजनीति का जिस तरह केंद्रीय तत्व बन गया है उसके चलते यह विकल्प बेमानी हो गया है. मोदी-भाजपा राजनीति तो पाकिस्तान से ज्यादा चीन से सुलह को तरजीह देगी. यही वजह है कि चीनी नेताओं के साथ निरंतर बैठकें होती हैं, उनका गर्मजोशी से स्वागत किया जाता है. वैसे, लक्ष्य वही है—‘त्रिशूल’ से बचना.

दूसरी बातचीत वाजपेयी के साथ हुई थी, जिन्होंने चीन की वार्ता शैली का खुलासा किया था— ‘देखिए, आप और हम बैठे हैं और वार्ता कर रहे हैं. हम दोनों कोई समाधान चाहते हैं. मैं आपसे कहूंगा कि थोड़ी रियायत कीजिए, आप मना कर देंगे. मैं कहूंगा, ठीक है इससे कम रियायत कर दीजिए, आप फिर मना कर देंगे. अंततः आप मान जाएंगे और उस थोड़े को गंवा देंगे. लेकिन चीनी कभी ऐसा नहीं करेंगे.’

ये दोनों नेता यही स्पष्ट करते हैं कि चीन अपनी बात पर कायम रहता है और अनुमेय है. इसलिए उसने लद्दाख में जो कुछ किया है उसको लेकर हमें हैरत में नहीं पड़ना चाहिए. इसका अनुमान हमें पिछले साल 5 अगस्त को ही लग जाना चाहिए था जब हमने जम्मू-कश्मीर में भारी बदलाव किए थे. हम इस तथ्य से नावाकिफ नहीं थे कि वहां के भौगोलिक पेंच में एक तीसरा पक्ष भी है, और वह चीन है.

गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में यह बयान देकर कोई भी रास्ता नहीं छोड़ा कि ‘हम अपनी जान की बाज़ी लगाकर भी अक्साई चीन को हासिल करके रहेंगे.’ इसके बाद नये नक्शे आए, ‘सीपीईसी’ (चीन-पाकिस्तान एकोनोमिक कॉरीडोर) को भारतीय क्षेत्र से बनाने पर और मौसम की रिर्पोट पर आपत्तियां आईं. लद्दाख-अक्साई चीन में 1962 के बाद से भौगोलिक दृष्टि से यथास्थिति जैसी बनी हुई थी.


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अब यह मत पूछिए कि लद्दाख में जमीनी स्तर पर वास्तव में क्या हो रहा है. चीनी सेना एलएसी के उस ओर है या इस ओर? मैं यह नहीं जानता. मैं उपग्रह से भेजी तसवीरों को नहीं समझ सकता. दूसरे लोग उन्हें किस तरह देखते-समझते हैं यह इस पर निर्भर है कि वे राजनीतिक विभाजन रेखा के किस तरफ हैं. आज जब हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन जैसी बेहद सस्ती, 86 साल पुरानी दवा को लेकर भी ध्रुवीकरण हो जाता है, ऐसे समय में निर्जन, नंगी पहाड़ियों की उपग्रह तस्वीरों के मामले में ईमानदारी बरती जाएगी इसकी शायद ही उम्मीद की जा सकती है.

मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि इसका अनुमान तभी लगा लेना चाहिए था और तैयारी भी तभी कर लेनी चाहिए थी जब 5 अगस्त 2019 को चाल चली गई थी. इन 60 वर्षों में जो कुछ हुआ है उन्हीं की तरह चीनी कदमों को भी अप्रत्याशित नहीं माना जा सकता. और जहां तक इन कदमों को उठाने का समय चुनने की बात है, तो बस बर्फ के पिघलने का इंतज़ार था.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. शानदार लेख
    यथार्थ और सामरिक दूरदर्शिता की तरफ इशारा करता लेख विषय वस्तुओं की चीन द्वारा एक दूसरे से कड़ी दर कड़ी जोड़ने की वकालत करता है

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