भाजपा का उदय- आमतौर पर राम मंदिर आंदोलन के बाद, ख़ास कर मोदी के काल में – बारीकी से निर्मित जातीय गठबंधनों के ज़रिए हुआ है. ये अलग-अलग राज्यों में भिन्न हो सकते हैं, लेकिन इनका एक व्यापक पैटर्न है. इन गठबंधनों में ब्राह्मण-बनिया की उच्च जाति वाले समर्थन आधार को अन्य पिछले वर्ग (ओबीसी) के उन निचले तबकों से जोड़ा गया है जो यादव, जाट या मराठा जैसे प्रभावशाली ओबीसी समुदायों के बीच हाशिये पर पड़ा महसूस करते हैं.
मोदी लहर के बावजूद भाजपा ने उत्तर प्रदेश में 71 सीटें नहीं जीती होती, यदि उसने लोध नेता कल्याण सिंह को पार्टी में वापस नहीं लिया होता, और कुर्मियों की पार्टी अपना दल से गठबंधन नहीं किया होता, जिसने राज्य से एनडीए के लिए बाकी दो सीटें जीती.
हालांकि, जातीय अवरोध के बावजूद भाजपा को वोट दिलाने में मोदी लहर भी मददगार रही थी. नरेंद्र मोदी के 2014 के चुनाव अभियान में उन्हें ऐसे नेता के रूप में प्रचारित किया गया था जिस पर जनता विकास कार्य के लिए भरोसा कर सकती है. इससे भाजपा को कुछ दलित वोट भी मिले थे. मोदी को ऐसे जातीय समूहों का भी समर्थन मिला जो परस्पर एक-दूसरे को इतना नापसंद करते हैं कि उनकी एक ही पार्टी को वोट देने से भी बचने की कोशिश रहती है.
वर्ग, न कि जाति
नरेंद्र मोदी का जातीय समीकरण नोटबंदी के दौरान उभरकर सामने आया, जब वर्ग को जाति पर तरज़ीह देने की कोशिश की गई. मोदी ने गरीब बनाम अमीर के ध्रुवीकरण पर ज़ोर दिया, और अपने भाषणों में वे ‘मित्रों’ की जगह ‘गरीबों’ के संबोधन का इस्तेमाल करने लगे.
तब इस बात को लेकर चिंता जताई जा रही थी कि वर्गों के खेल में भाजपा को कहीं ऊंची जातियों की उपेक्षा का खामियाज़ा तो नहीं भुगतना पड़ेगा. क्योंकि, धनी हैं कौन? ऊंची जाति वाले ही तो हैं, जो भाजपा के मूल समर्थक रहे हैं.
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2017 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में, पार्टी के एक सदस्य ने शिकायत की थी कि सरकार का नोटबंदी का फैसला पार्टी के कतिपय मूल समर्थकों को बिदका रहा है. कहा जाता है कि इस पर अमित शाह का जवाब था: ‘कोर छोड़ो, संपूर्ण देखो.’
नोटबंदी कुछ समय तक गरीबों के बीच इतनी लोकप्रिय थी कि भाजपा को लगा कि वह ऊंची जाति के अपने समर्थकों के विरोध की अनदेखी कर सकती है. व्यापारी समुदाय संख्या में बहुत कम हैं, और वे आखिर जाएंगे भी कहां? धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस की तरफ? यदि कुछ लोग भाजपा का साथ छोड़ भी देते हैं, तो देखिए नए समर्थक पार्टी से कितनी बड़ी संख्या में जुड़ रहे हैं.
गरीबों के बीच नोटबंदी की लोकप्रियता से पार्टी को दलितों के बीच अपनी साख बढ़ाने, और दलित-विरोधी होने के आरोपों को बेअसर करने में मदद मिली. पार्टी के प्रति दलितों के अनुकूल भाव का भाजपा के लिए वोटों से कहीं ज़्यादा अहमियत है. इसका महत्व कथानक की संपूर्णता के स्तर पर है, जिसमें भाजपा हर समुदाय की पसंद बनी दिखना चाहती है. यह जातियों से ऊपर उठकर हिंदुओं को एकजुट करने के भाजपा-आरएसएस के दीर्घकालीन एजेंडे के भी अनुरूप है.
पार्टी के खिलाफ़ दलितों का गुस्सा रोहित वेमुला, जिग्नेश मेवाणी और चंद्रशेखकर आज़ाद के रूप में सामने आया था. भाजपा का मानना था कि उस गुस्से को नोटबंदी के सहारे की गई वर्गों की राजनीति के ज़रिए दबा दिया गया.
संपूर्ण को भूलें, कोर को बचाएं
पर नोटबंदी का उत्साह ज़्यादा दिन तक नहीं चला. अर्थव्यवस्था में आई अघोषित मंदी की स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ने के साथ ही, यह लगातार स्पष्ट होता जा रहा है कि मोदी सरकार के खराब दिन की शुरुआत नोटबंदी से ही हुई थी. नोटबंदी की नाकामी का अर्थव्यवस्था पर बुरा असर हुआ, जिसने भाजपा के वर्गों वाले कथानक को हल्का कर दिया है. मोदी ने हर दूसरे वाक्य में गरीब, गरीबी, गरीबों कहना बंद कर दिया है.
इसका पहला संकेत मार्च 2018 में नरेश अग्रवाल को पार्टी में शामिल किए जाने से मिला. उत्तर प्रदेश में बनिया समुदाय के नेता अग्रवाल भाजपा और इसकी हिंदुत्व विचारधारा के पुराने आलोचक रहे थे. उन्हें लिए जाने से पार्टी में, ख़ास कर उत्तर प्रदेश में, बहुतों को गुस्सा आया. पर व्यापारी वर्ग में अपनी स्थिति सुधारने के लिए पार्टी को नरेश अग्रवाल की ज़रूरत थी.
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून को कथित रूप से नरम बनाने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला मोदी सरकार के गले की हड्डी बन गया. दलितों का गुस्सा चरम पर था. किसी भी दल के लिए भारत पर शासन करना मुश्किल होगा यदि 16.6 प्रतिशत आबादी सरकार के खिलाफ़ विद्रोह पर उतर आए. सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेअसर करने वाला अध्यादेश लाने को बाध्य हो गई.
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इसने मोदी सरकार के लिए शाहबानो वाली स्थिति खड़ी कर दी. ऊंची जातियों को लगा कि मोदी सरकार दलित तुष्टिकरण के लिए सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ़ तक जा सकती है. जबकि उसी दौरान पार्टी, बाबरी मस्जिद मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतज़ार करने की बात कर रही थी.
मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के खिलाफ़ ऊंची जातियों का गुस्सा उबल पड़ा. पूरे उत्तर भारत में ऊंची जाति के वोटर नोटा (उपरोक्त में से कोई नहीं) का बटन दबाने या मतदान के लिए नहीं निकलने की धमकी देते रहे हैं. यदि वे भाजपा को वोट देते हैं तो भी उनमें उत्साह की कमी, जनभावना को पक्ष में करने के पार्टी के प्रयासों के लिए एक बड़े झटके के समान है. आप भला चुनावी लहर पैदा करने की कोशिश भी कैसे कर सकते हैं, जब आपके मूल समर्थक कुपित प्रेमियों जैसा बर्ताव कर रहे हों?
ऊंची जातियों को आरक्षण देकर खुश करने का प्रयास कर रही भाजपा के लिए माया मिली ना राम वाली स्थिति बन सकती है. दलित और ओबीसी की निचली जातियां बेरोज़गारी और ग्रामीण इलाक़ों में बनी संकट की स्थिति जैसे आर्थिक कारणों के चलते पार्टी से छिटक सकती हैं. हिंदी पट्टी के तीन प्रदेशों, ख़ास कर छत्तीसगढ़ में, हम इसका ट्रेलर देख चुके हैं जहां ओबीसी वोटर बड़ी संख्या में दूर हुए हैं. कार्यान्वित किए जाने से पहले ही ओबीसी के उपवर्गीकरण की पार्टी की योजना का, कम से कम अहम राज्य उत्तर प्रदेश में, उल्टा असर दिखने लगा है.
सभी जातियों को खुश करने की कोशिश कर, भाजपा कहीं सबको निराश ना कर दे. अमित शाह के शब्द, ‘कोर छोड़ो, संपूर्ण देखो’, शायद भविष्य में उन्हें परेशान करें.
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