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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतपंजाब के किसानों का गुस्सा वोटिंग पैटर्न को नहीं बदल पाता; UP, MP, राजस्थान इसके उदाहरण हैं

पंजाब के किसानों का गुस्सा वोटिंग पैटर्न को नहीं बदल पाता; UP, MP, राजस्थान इसके उदाहरण हैं

विपक्ष किसानों को यह समझाने में विफल रहा है कि वह उन्हें कृषि सुधारों का एक मॉडल दे सकता है जो उनके जीवन को बदल देगा. यह चुनावी नतीजों में दिखता है.

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सील की गई सीमाएं और गुस्से से उबल रहे किसान, ट्रैक्टरों, आंसू गैस और ट्रैफिक जाम के नाटकीय दृश्य. बेहतर न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए एक बार फिर दिल्ली की ओर किसानों का बढ़ता काफिला पिछली बार के किसान आंदोलन की याद दिलाता है. लेकिन पहले से जो अलग है वह है- विरोध का समय. यह विरोध प्रदर्शन 2024 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले किया जा रहा है.

अधिकांश दिल्ली निवासियों के लिए, ये तस्वीरें काफी थकाऊं हैं. लेकिन विपक्षी नेताओं के लिए, वे आशा की एक किरण पैदा करती हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी अपनी भारत जोड़ो यात्रा 2 को बीच में ही रोक दिया और आंदोलन में शामिल होने के लिए झारखंड से दिल्ली पहुंच गए. इस तरह के उठाए गए कदमों को सोशल मीडिया पर कुछ लाइक्स तो मिल सकते हैं, लेकिन अगर विपक्षी नेता इनकी वजह से किसी गंभीर राजनीतिक लाभ की उम्मीद कर रहे हैं, तो उनके हाथ निराशा लगने की काफी संभावना है.

उन्हें इस बात का जवाब ढूंढना चाहिए कि देश के बाकी हिस्सों में किसान वास्तव में भाजपा से खुश क्यों हैं और उन्हें वोट देना क्यों जारी रखा हुआ है. इससे उन्हें इस बात का अहसास हो जाएगा कि उनका विरोध कितना निरर्थक है.

इसकी वजह को समझना बिल्कुल आसान है – किसानों के विरोध प्रदर्शन की वजह से पंजाब के बाहर बीजेपी के वोट पर कोई फर्क नहीं पड़ता. यह भारत के कुछ सबसे अधिक कृषि प्रधान राज्यों के मतदान पैटर्न से स्पष्ट है, जहां कांग्रेस या तो हार गई थी या जनता ने उसे गद्दी से उतार फेंका.

किसानों के मुद्दे चुनावों पर असर डालने में विफल रहे हैं

2023 में विधानसभा चुनावों के पहले लगभग लगातार दो दशकों तक बीजेपी शासित हिंदी पट्टी राज्य मध्य प्रदेश में किसानों की शिकायतों का मुद्दा प्रमुखता से छाया रहा. फिर भी, भाजपा ने 230 विधानसभा सीटों में से 163 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल किया. राजस्थान की कहानी भी कुछ ऐसी ही रही, जहां भाजपा ने 200 में से 115 सीटें जीतीं.

मध्य प्रदेश लगभग 70 फीसदी और राजस्थान में करीब 62 फीसदी आबादी कृषि में काम करती है, और विधानसभा नतीजों से स्पष्ट है कि जनता बीजेपी को या तो कांग्रेस को हराकर सत्ता में लेकर आई और या तो बीजेपी तो दोबारा जिताया.

इन राज्यों के लिए सीएसडीएस की चुनाव बाद की स्टडी इस पर और प्रकाश डालती है. मध्य प्रदेश सर्वेक्षण में, केवल 22 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि उनका मानना है कि पिछले पांच वर्षों में किसानों की स्थिति खराब हुई है, जबकि 34 प्रतिशत ने दावा किया कि वास्तव में इसमें सुधार हुआ है.

इसी तरह, राजस्थान में चुनाव बाद सर्वेक्षण में केवल 13 प्रतिशत लोगों ने कहा कि किसानों की स्थिति खराब हो गई है और 33 प्रतिशत से अधिक लोगों ने जवाब दिया कि इसमें सुधार हुआ है.

उत्तर प्रदेश में, जिन स्थानों पर पहले के तीन (अब निरस्त) कृषि कानूनों पर जहां विरोध प्रदर्शन हुए थे वहां भी कुछ इसी तरह का रुझान देखने को मिला. 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव बाद सर्वेक्षण से पता चला कि 42 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि किसानों की स्थिति खराब हो गई है. फिर भी, योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार न केवल फिर से चुनी गई, बल्कि उसका वोट शेयर बढ़कर 41.29 प्रतिशत हो गया, जो 2017 में 39.67 प्रतिशत था. और ये चुनाव दिसंबर 2021 में किसानों के विरोध 1.0 के समाप्त होने के कुछ ही महीनों बाद संपन्न हुए.

2019 के लोकसभा चुनावों में भी इसी तरह का पैटर्न देखने को मिला. नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज द्वारा जून 2019 में प्रकाशित एक संक्षिप्त विवरण में निष्कर्ष निकाला गया कि “किसानों में संकट के बावजूद”, भाजपा ने अपने सभी विरोधियों को धता बताते हुए, पूरे हिंदी क्षेत्र में किसानों का वोट हासिल करने में सफलता हासिल की.

 

ज्यादा बातचीत, बेहतर सवालों की ज़रूरत

मैं यह नहीं कह रहा कि पंजाब के बाहर के किसान बहुत अच्छी स्थिति में हैं. वास्तव में, स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) के आंकड़ों के अनुसार, एक औसत भारतीय कृषि परिवार विभिन्न स्रोतों से प्रति माह 10,218 रुपये की आय अर्जित करता है. हालांकि, पंजाब में यह आंकड़ा 26,000 रुपये से अधिक है जो कि बड़े कृषि प्रधान राज्यों में देश में सबसे अधिक (मेघालय को छोड़कर जहां कि औसत आय 29000 रुपये से अधिक है, छोटे राज्यों को इसमें शामिल किया जा सकता है) है. स्पष्ट रूप से, अधिकांश किसान उस जीवन स्तर को वहन करने के लिए पर्याप्त कमाई नहीं कर रहे हैं जिसकी वे अपेक्षा करते हैं.

तो फिर किसान अपना असंतोष मतपेटी के ज़रिए से व्यक्त क्यों नहीं कर रहे हैं?

मेरे विचार में, अमीर किसानों को गरीब किसानों को यह समझाने की ज़रूरत है कि कुछ नीतियां उनके लिए नुकसानदायक हैं जिससे वे वोटिंग पैटर्न को प्रभावित कर पाएंगे. और यही वास्तविक ‘किसान एकता’ की अग्नि परीक्षा हो सकती है. पंजाब की सबसे बड़ी समस्या यह है कि कृषि क्षेत्र में सफल होने के बावजूद यह असफल रहा क्योंकि पंजाब आद्योगिक विकास में असफल रहा. जिसकी वजह से राज्य में लोगों के अंदर भारी गुस्सा है इसीलिए राज्य को “उबलता पंजाब” कहा जाता है. किसानों को अपने नेतृत्व से और अधिक पूछने की ज़रूरत है – उदाहरण के लिए, वे कृषि-प्रसंस्करण उद्योग स्थापित करने में क्यों विफल रहे हैं जो उनके अनाज को उच्च मूल्य वाली वस्तुओं में बदल सकती है, जिससे सभी को लाभ हो सकता है.

लोकतंत्र के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि यह बहुमत के हाथों में वह ताकत देता है कि अगर वे चाहें तो अपने नेता को बदल सकते हैं. हालांकि, विपक्ष भी किसानों को यह समझाने में असफल रहा है कि वह उन्हें कृषि सुधारों का एक ऐसा मॉडल दे सकता है जो उनके जीवन को बदल देगा. और यही हिंदी पट्टी के चुनावी नतीजों में देखने को मिलता है.

किसानों के विरोध प्रदर्शन से केवल कुछ लोगों की सोशल मीडिया फॉलोइंग बढ़ेगी, साथ ही इसके इसकी वजह से सिखों की बदनामी होगी और पंजाब व उसके लोगों की छवि खराब होगी. वे किसी और को नहीं बल्कि खुद को नुकसान पहुंचा रहे हैं.’ याद रखें कि 2019 के चुनावों में, केवल 1.2 प्रतिशत मतदाताओं ने किसानों या कृषि मुद्दों पर मतदान किया था.

(निखिल रामपाल अर्थशास्त्र के एक छात्र और पूर्व डेटा पत्रकार हैं. उनका एक्स हैंडल @NikhilRampal1 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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