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Tuesday, 18 June, 2024
होममत-विमतसंघ की नसीहत BJP को रास्ता दिखाने जैसी है, पार्टी के नेतृत्व में बदलाव न ही RSS की मंशा है और न ही ताकत

संघ की नसीहत BJP को रास्ता दिखाने जैसी है, पार्टी के नेतृत्व में बदलाव न ही RSS की मंशा है और न ही ताकत

संघ-भाजपा के रिश्ते का इतिहास प्रेमियों के बीच होने वाली नोक-झोंक से भरा पड़ा है, लेकिन इस सबसे  शायद ही कोई बड़ा फर्क पड़ा है. यह सोचना कि संघ भाजपा नेतृत्व में कोई परिवर्तन लाएगा, उसकी मंशा और ताकत का गलत आकलन ही होगा

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने पिछले दिनों ताबड़तोड़ जो बयान दिए वो आखिर क्या सोच कर दिए? इन बयानों को भाजपा सरकार की, उसके अहंकार के लिए आलोचना के रूप में देखा जा रहा है.

इन बयानों के चार उदाहरण ये हैं— आरएसएस स्वयंसेवकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम की समाप्ति पर सरसंघचालक मोहन भागवत का भाषण; आरएसएस की कार्यकारिणी के सदस्य और आरएसएस समर्थित मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के प्रमुख संरक्षक इंद्रेश कुमार द्वारा ‘अहंकार’ का विशेष जिक्र करते हुए यह कहना कि भगवान राम ने भाजपा के अहंकार का दंड उसे बहुमत से काफी कम, 240 सीटें देकर दिया है और रामराज्य वाला न्याय यह किया गया कि राम का विरोध करने वाले ‘इंडिया’ गठबंधन को 237 सीटों पर सिमटा दिया गया.

टीवी चैनलों पर और अखबारों में संघ के नजरिए का खुलासा करते रहने वाले आरएसएस बुद्धिजीवी रतन शारदा ने ज्यादा साफ बयान देते हुए भाजपा की आलोचना की कि उसने संघ के जाने-माने आलोचकों को पार्टी में शामिल करके अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को कमजोर किया और इसकी कीमत चुकाई. ‘दिप्रिंट’ के राजनीतिक ब्यूरो की सान्या धींगरा ने उनका जो इंटरव्यू लिया है उसे आप यहां देख सकते हैं.

चौथा उदाहरण आरएसएस के मुख पत्र ‘ऑर्गनाइजर’ में छपा एक लेख है, जिसमें कहा गया है कि महाराष्ट्र में भाजपा की हार एनसीपी के अजित पवार वाले गुट के साथ गठबंधन करने से हुई. इन चारों बयानों पर एक साथ गौर करें तो स्पष्ट होगा कि पिछले एक दशक में यह पहली बार है जब आरएसएस ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की समन्वित आलोचना की है.

वास्तव में, भागवत ने संयम बरतने की सलाह देते हुए कहा कि वे विपक्ष के लिए ‘विरोधी’ की जगह ‘प्रतिपक्ष’ शब्द का प्रयोग करना चाहेंगे. यह हमें हमारे अगले सवाल पर लाता है कि आरएसएस आखिर क्या हासिल करना चाहता है? इन बयानों को लेकर मचे शोर में वे सब योगदान दे रहे हैं जो सत्ता की राजनीति में अपना दांव रखते हैं, या राजनीतिक विमर्श में अपनी एक आवाज रखते हैं.

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सबसे पहले तो उदारवादी जमात संघ के इस ताजा ‘हस्तक्षेप’ पर सबसे ज्यादा खुश हो रही है. दशकों से आरएसएस की विचारधारा से लड़ती रही यह जमात संघ के मुखिया द्वारा की गई इस आम किस्म की आलोचना से जो संतोष हासिल कर रही है वह एक विडंबना भी है और हताशा का परिचय भी. यहां तक कि काँग्रेसी खेमे के कुछ लोगों ने भी कुछ तो भाजपा को चिढ़ाने के लिए और कुछ इस उम्मीद में इस आलोचना का स्वागत किया है कि इससे मोदी कमजोर पड़ेंगे.

भागवत के बयान का हवाला देते हुए कई लेख लिखे गए हैं और सोशल मीडिया पर कई पोस्ट किए गए हैं, जिनका आम स्वर कुछ यह रहा है कि ‘हमें मालूम है कि आप (मोदी जी) हमारी बात नहीं सुनेंगे, लेकिन मोहन भागवत की तो सुनिए’. नये साहसी पोस्ट ‘4 जून यूनिवर्स’ (4 जून की दुनिया) में आरएसएस के मुखिया को मोदी-शाह की भाजपा के मुक़ाबले कम अनुदार और ज्यादा स्वीकार्य बताया गया है.

इसे स्थिति का अविश्वसनीय रूप से भ्रामक आकलन ही माना जा सकता है. तथ्य यह है कि आरएसएस-भाजपा के रिश्ते का इतिहास प्रेमियों के बीच जब-तब होने वाली नोक-झोंक से भरा पड़ा है. लेकिन इन नोक-झोंक से शायद ही कोई बड़ा फर्क पड़ा है. यह सोचना कि संघ भाजपा नेतृत्व में कोई परिवर्तन लाएगा, उसकी मंशा और ताकत का गलत आकलन ही होगा.

इस चुनाव ने मोदी के आलोचकों को दिखा दिया है कि मोदी को शिकस्त दिया जा सकता है. लेकिन अगले पांच साल तक एक के बाद एक कई राज्यों में चुनाव लड़ते हुए उन्हें मात देने के लिए इन आलोचकों को कहीं ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी. यह किसी तरह के आंतरिक विद्रोह से तो नहीं हो सकता, चाहे उसे आरएसएस का वरदहस्त प्राप्त हो या नहीं. इसके अलावा ऐसा कुछ भी नहीं है, बिलकुल नहीं है जिससे यह संकेत मिले कि आरएसएस अपनी सरकार को अस्थिर करने का इरादा रखता है.

अगर वे गुरु हैं और भाजपा का वर्तमान नेतृत्व उनका शिष्य है, तो इस आलोचना को अपने चहेते शिष्यों के अनमने प्रदर्शन के लिए निराश गुरु की डांट माना जा सकता है. ऐसा नहीं है कि आरएसएस और भाजपा अलग-अलग समय पर एक-दूसरे के आमने-सामने न खड़े हुए हों. हम यहां ऐसे तीन मामलों का जिक्र करेंगे. लेकिन इस बार चुनाव के बाद जो सामने आया है यह उन जैसा नहीं है.

इस भाजपा का गठन 1980 में जनता पार्टी से टूटे मूल भारतीय जन संघ के अवशेष से हुआ था. भारतीय जन संघ का 1977 में जनता पार्टी में विलय हुआ लेकिन वह पार्टी टूट गई. उसके बाद से हम देख रहे हैं कि आरएसएस-भाजपा संबंध किस तरह से रहा है. 1984, 2004, और 2024 को याद कीजिए.

पहला उदाहरण : 1984 में गलती भाजपा की नहीं थी. बात यह हुई थी कि पंजाब संकट को लेकर चिंतित आरएसएस राष्ट्रीय हित की मांगों के दबाव में आ गया था. उस संकट के दौर में उसने फैसला किया कि भारत ऐसी किसी दूसरी गठबंधन सरकार (जिसमें भाजपा भी शामिल हो) की जगह राजीव गांधी की सरकार के अधीन ज्यादा सुरक्षित रहेगा. उस दौरान राजीव गांधी और सरसंघचालक बाला साहब देवरस की कथित मुलाक़ात की खबरें भी आई थीं.

मैंने उस चुनाव को कवर किया था, खासकर मध्य प्रदेश और दिल्ली के लिए. मैंने पाया था कि आरएसएस के कार्यकर्ता न केवल भाजपा के चुनाव अभियान से अलग थे बल्कि ‘स्थिरता और राष्ट्रहित’ के लिए काँग्रेस को वोट देने के संदेश प्रसारित कर रहे थे. आरएसएस को भाजपा से कोई शिकायत नहीं थी, सिर्फ इतना था कि वह समय यह सब करने का नहीं था.

1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की पहली गठबंधन सरकार के गठन पर आरएसएस ने जश्न मनाया. वाजपेयी का व्यक्तित्व और स्वभाव तत्कालीन सरसंघचालक के.एस. सुदर्शन के व्यक्तित्व और स्वभाव से मेल नहीं खाता था. यह तनाव 2003 तक आते-आते उजागर हो गया. आरएसएस ने 2004 के चुनाव में पूरा उत्साह नहीं दिखाया, जिसे वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने समय से पांच महीने पहले ही करवाया था. लेकिन वे हार गए थे, बेशक मामूली अंतर से.

इनमें से कई खीझों का जिक्र सुदर्शन ने अप्रैल 2005 में ‘एनडीटीवी’ के ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में दिए गए इंटरव्यू में किया था. इस इंटरव्यू के लिए सरसंघचालक के कार्यालय से अनुरोध आया था, मैंने इसके लिए आग्रह नहीं किया था क्योंकि आरएसएस के सरसंघचालक शायद ही किसी को इंटरव्यू दिया करते थे. वाजपेयी की हार के बाद सुदर्शन का लहजा कुछ इस तरह का था कि ‘यही होना था. काश उन्होंने हमारी बात सुनी होती’. इस समय तक आरएसएस युवा नेता के रूप में मोदी के उभार पर गौर कर रहा था, जो उसकी विचारधारा के प्रति ज्यादा वफादार थे.

अब 20 साल बाद वह खीझ 2024 के चुनाव अभियान में फिर उभर आई. भाजपा को अब विश्वास हो गया था कि उसे सिर्फ मोदी के नाम पर अभियान चलाने की जरूरत है, कि इस बार का अभियान उसकी खातिर एक व्यक्ति पर आधारित ही होगा. आरएसएस ने खुद को कुछ तिरस्कृत महसूस किया होगा, खासकर जमीनी स्तर पर, बावजूद इसके कि उसके कई वैचारिक लक्ष्यों— कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370, राम मंदिर, तीन तलाक़ आदि—को पूरा किया जा चुका है. मोदी ने राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में भागवत को सम्मानित स्थान भी दिया था.

संघ की विचारधारा को कभी कमजोर नहीं किया गया, लेकिन स्वयंसेवकों को यह जरूर एहसास कराया गया कि वे अब उतने अपरिहार्य नहीं हैं. इस सप्ताह भागवत ने अपने भाषण में कहा कि इस बार चुनाव में भी आरएसएस ने वही किया जो वह पहले के चुनावों में करता रहा है— जनमत को मोड़ने का. लेकिन भाजपा ने खुद कहा कि उसे यह विश्वास हो गया है कि वह इतनी मजबूत हो गई है कि अपने पैरों पर चल सके, कि उसे आरएसएस की छोटी उंगली पकड़कर चलने की जरूरत नहीं रही. हो सकता है, इसी वजह से दोनों तरफ उदासीनता हावी हुई हो.

लेकिन यह तो चुनाव के नतीजे आने से पहले की बात है. बात जता दी गई, मामला खत्म हुआ. आरएसएस जबकि अपनी 100वीं वर्षगांठ के समारोह करने जा रहा है, उसे सरकार और मोदी-शाह की ताकत के बिना काम नहीं चलेगा. इसीलिए उसकी टिप्पणियों का मतलब सिर्फ एक स्नेही गुरु की ओर से अपने चहेते शिष्य को पिलाई गई डांट ही है. इसमें इससे ज्यादा कुछ पढ़ने की कोशिश एक खराब आकलन, और मोदी के ‘प्रतिपक्ष’ के लिए खुशफहमी पालना ही होगा. यह कॉलम जब लिखा जा रहा है, भागवत गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के साथ यह विचार कर रहे होंगे कि भाजपा को उत्तर प्रदेश के गांवों में मजबूत करने के लिए क्या-क्या किया जाए.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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