कुछ हफ्ते पहले, कर्नाटक के एक 90 साल से ऊपर के नेता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की. जैसे ही उन्होंने अपनी उम्र के बारे में बात करना शुरू किया, मोदी ने राज्यसभा सदस्य की बात बीच में काट दी: “जब मैं 2029 में शपथ लूंगा, तब भी आप यहां बैठे होंगे.” यह कहानी बताने वाले सूत्र को यह पक्का नहीं था कि पीएम का ‘यहां’ से मतलब संसद था या शपथ ग्रहण समारोह के दर्शकों में होना.
मोदी को इतना आत्मविश्वास क्यों है? “सहूलियत” ऐसा कहते हैं अर्थशास्त्री और पीएम की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य सुरजीत भल्ला — ऐसी सहूलियत, जहां विपक्ष बस ऊपर वाले से कोई चमत्कार होने का इंतज़ार कर रहा है.
बतौर कांग्रेस के नए उपाध्यक्ष जनवरी 2013 में जयपुर के एक ऑडिटोरियम में, राहुल गांधी अपनी पहली बड़ी स्पीच दे रहे थे. उनकी मां, सोनिया गांधी, पिछली रात उनके कमरे में आई थीं और रो पड़ीं क्योंकि, उन्होंने कहा, “वह समझती हैं कि सत्ता ज़हर है.”
यह बात भावनात्मक रूप से कांग्रेस के नेताओं के दिल को छू गई. दर्शक, खासकर वो लोग जो गांधी परिवार के साथ मंच पर बैठे थे, रोने लगे. कैमरे ऑन थे. जनार्दन द्विवेदी, जो उस समय ज़्यादा ताकतवर नेता माने जाते थे, राहुल के जाने के बाद माइक पकड़ते हुए बोल भी नहीं पा रहे थे. दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने प्रियंका गांधी से रुमाल उधार लेकर अपने आंसू और नाक पोंछी.
12 साल बाद, कई वरिष्ठ कांग्रेस नेता निजी तौर पर रो रहे हैं क्योंकि राहुल गांधी लगता है अभी भी मानते हैं कि सत्ता ज़हर है. ऐसा उनकी राजनीति को देखकर लगता है, जब कांग्रेस ने 64 साल बाद गुजरात में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का सत्र आयोजित करने का फैसला किया, तो पार्टी में कई लोगों को लगा कि नेतृत्व आखिरकार संकट को समझ रहा है. वे अहमदाबाद उम्मीद के साथ गए, लेकिन वह अपने भविष्य को लेकर डर के साथ वापस लौटे.
पार्टी में कोई बदलाव नहीं होगा. इस सत्र में भी गांधी परिवार की वही पुरानी चापलूसी हुई — एआईसीसी प्रस्ताव में राहुल को “सामाजिक न्याय के अग्रदूत” के रूप में संबोधित किया गया और “श्री राजीव गांधी के दूरदृष्टि सोच” को पंचायत राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का श्रेय दिया गया. प्रस्ताव में नरसिम्हा राव का कोई ज़िक्र नहीं था, जिनकी सरकार के दौरान इस आरक्षण के लिए संवैधानिक संशोधन लाए गए थे.
प्रस्ताव के मसौदे में “धार्मिक अल्पसंख्यकों” के लिए असुरक्षित माहौल के बारे में बात की गई थी, बिना मुस्लिमों और ईसाईयों का उल्लेख किए. यह तब हुआ जब कुछ सदस्यों ने कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में इसका विरोध किया, तब उन अल्पसंख्यकों का नाम साफ तौर पर लिया गया.
कुल मिलाकर, एआईसीसी सत्र में की गई बहसें ज्यादातर वही बातें थीं जो राहुल गांधी सालों से बोल रहे हैं — जाति जनगणना, आरक्षण, बेरोज़गारी, संस्थाओं पर हमले और इस तरह की अन्य बातें. मूल रूप से, गांधी परिवार के नेतृत्व में कांग्रेस को लगता है कि वही सही काम कर रही है और अपनी दृष्टिकोण में कोई बदलाव की आवश्यकता नहीं है. कांग्रेस को शायद लगता है कि मतदाता एक दिन अपनी गलती समझ लेंगे.
थरूर के सुझाव
हालांकि, कम से कम एक आवाज़ थी, जिसने पार्टी को वास्तविकता को देखने की कोशिश की. यह थी शशि थरूर की आवाज़, जो तिरुवनंतपुरम के सांसद हैं और जिनकी स्पष्टता अक्सर पार्टी में उन्हें मुश्किल में डाल देती है.
कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में संबोधित करते हुए, उन्होंने एक वास्तविकता जांच से शुरुआत की — कि कांग्रेस 20 प्रतिशत समर्थन पर अटक गई है और इसलिए इसे उन लोगों को फिर से जीतने की ज़रूरत है, जिन्होंने कभी इसे वोट दिया था, लेकिन अब वह दूर हो गए हैं. “हम इसे कैसे करें? हमें उन्हें इस तरह से आकर्षित करना होगा कि हम रचनात्मक आलोचक के रूप में दिखें, न कि निरंतर नकारात्मकता की पेशकश करें”, मेरे सूत्रों ने थरूर के शब्दों को ज़िक्र किया. वह सही बात कह रहे थे. मुझे उनके छोटे भाषण से कुछ बिंदुओं का संक्षेप में विवरण देने दीजिए:
- कांग्रेस के बारे में यह जनधारणा कि यह सरकार के हर काम के खिलाफ है, अच्छी नहीं है.
- असमानता को लेकर चिंता ठीक है, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि हमारी सरकार आय का पुनर्वितरण करेगी? (थरूर ने मनीष तिवारी के तर्क को समर्थन दिया कि कांग्रेस को युवाओं की पैसे कमाने और समृद्धि की इच्छाओं को ध्यान में रखते हुए प्रतिक्रिया देनी चाहिए.)
- पार्टी बेरोज़गारी के बारे में बात करती रहती है, लेकिन हम इसके बारे में क्या प्रस्ताव करते हैं? प्रस्ताव में कहा गया है कि हम एआई, रोबोटिक्स, आदि के पक्ष में हैं — जो और अधिक नौकरियां छीनेंगे और बेरोज़गारी बढ़ाएंगे. हम इस विरोधाभास को कैसे सुलझाएंगे?
- कांग्रेस सरकार और भाजपा पर धर्म के आधार पर देश को बांटने का आरोप लगाती है, लेकिन वह यह भी कह सकते हैं कि कांग्रेस जाति के आधार पर देश को बांट रही है.
- केवल टैरिफ की चिंता करने के बजाय, क्यों न हम हमारे किसानों, ऑटो पार्ट्स निर्माताओं, और फार्मास्युटिकल कंपनियों के हितों की रक्षा के लिए रचनात्मक बातचीत का आग्रह करें?
- कांग्रेस का 140 साल का इतिहास है, जबकि बीजेपी का सिर्फ 45 साल का, लेकिन तीन लोकसभा चुनावों ने यह सिखाया है कि मतदाताओं का युवा बहुमत हमारे इतिहास की परवाह नहीं करता. वह यह जानना चाहते हैं कि हम उनके लिए आज क्या करेंगे और उनके लिए हम कल क्या दे सकते हैं. यही हमारे संदेश का मुख्य बिंदु होना चाहिए.
- खोए हुए मतदाताओं को फिर से जीतने और युवा मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए, कांग्रेस को उम्मीद की पार्टी बनना होगा, न कि नाराजगी की; भविष्य की पार्टी बननी होगी, न कि सिर्फ अतीत की; सकारात्मक कहानी वाली पार्टी बननी होगी, न कि सिर्फ नकारात्मक आलोचना.
आप थरूर के कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को दिए गए सुझाव फिर से पढ़ सकते हैं. उनका डायग्नोज़, पूर्वानुमान और इलाज सभी सही थे. राहुल और उनके करीबी लोग कांग्रेस कार्य समिति में थरूर की स्पष्ट बातों से काफी परेशान दिखाई दिए जैसा कि मेरे सूत्रों ने बताया. मैंने दिल्ली और बाहर के कई कांग्रेस नेताओं से उनकी राय जानने की कोशिश की. लगभग सभी ने थरूर से सहमति जताई. मुझे लगता है कि गांधी परिवार भी जानता होगा कि वह सही हैं, लेकिन समस्या यह है कि राहुल कभी गलत नहीं हो सकते.
थरूर की बेबाकी के कारण उनके लिए केरल कांग्रेस में और भी मुश्किल हो सकती है — जो केसी वेणुगोपाल द्वारा नियंत्रित है, राहुल के विश्वसनीय साथी. तिरुवनंतपुरम से चार बार के सांसद कांग्रेस के लिए अगले विधानसभा चुनाव में केरल में सबसे अच्छा चेहरा हैं. वे नायरों के बीच, साथ ही ईसाई और मुस्लिमों के बीच लोकप्रिय हैं और युवाओं के बीच भी उनकी मजबूत अपील है, लेकिन राहुल गांधी उन्हें चेहरा नहीं बनाएंगे, भले ही यह चुनावी जोखिम हो और यह सिर्फ वेणुगोपाल की महत्वाकांक्षाओं के कारण नहीं है.
यह मुख्य रूप से इसलिए है क्योंकि स्मार्ट, सोचने वाले और बेबाक राजनेता कांग्रेस में फिट नहीं होते, जो शीर्ष पर राजनीतिक निरर्थक लोगों से नियंत्रित एक संगठन है. तो, थरूर के पास क्या विकल्प हैं?
जैसा कि वह कहते हैं, उनके पास दुनिया भर में लेक्चर देने, कॉलम और किताबें लिखने जैसे कई ऑप्शन हैं और भी बहुत कुछ. तथ्य यह है कि कोई भी पार्टी उनके लिए रेड कार्पेट बिछाएगी या, इस मामले में, मनीष तिवारी, दीपेंद्र हुड्डा, गौरव गोगोई, सचिन पायलट और अन्य सिद्ध विजेताओं जैसे नेताओं के लिए. यह एक अलग बात है कि वह दूसरी पार्टी में नहीं जाएंगे. बीजेपी का तो सवाल ही पैदा नहीं होता क्योंकि उनके मजबूत वैचारिक विश्वास हैं. उन्होंने अपना पूरा राजनीतिक करियर कांग्रेस में बिताया है और भीतर से सही के लिए लड़ने को प्राथमिकता देते हैं.
स्मार्ट नेताओं के लिए कोई जगह नहीं
बड़ी तस्वीर यह है कि भारत में स्मार्ट, स्वतंत्र विचार रखने वाले, और बेबाक राजनेताओं के लिए कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है, खासकर तब, जब उनके पास सही जगहों पर संरक्षक नहीं हों और वह आत्म-सम्मान की परवाह नहीं करें. यह बीजेपी, कांग्रेस और बाकी सभी पार्टियों पर लागू होता है.
देखिए, उन नेताओं की लंबी सूची जो पार्टी में बीजेपी में किनारे पर हैं — यशवंत सिन्हा, उनके बेटे जयंत, रवि शंकर प्रसाद, उमा भारती, वसुंधरा राजे, वरुण गांधी, अभिषेक सिंह और कई अन्य प्रमुख नेता.
याद कीजिए कि कैसे पालयनेवल थियागा राजन उर्फ पीटीआर को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने एक हाई-प्रोफाइल वित्त पोर्टफोलियो से हटा दिया. बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को भी बर्दाश्त नहीं किया और उन्हें पार्टी से निकाल दिया. हालांकि, मायावती ने रविवार शाम को आकाश को माफ कर दिया, जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी ‘गलती’ स्वीकार की. यहां तक कि चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर, जिन्होंने कई शीर्ष नेताओं के साथ करीबी काम किया, वह भी जब नीतीश कुमार के साथ जनता दल (यूनाइटेड) में शामिल हुए, तो उनके साथ नहीं चल पाए. ऐसे कई उदाहरण हैं.
तो, आप राजनीतिक पार्टियों की इस हिचकिचाहट को कैसे समझाएंगे कि वह प्रतिभाशाली, बेबाक नेताओं को क्यों नहीं अपनातीं? कांग्रेस के मामले में, यह मुख्य रूप से असुरक्षाओं से उत्पन्न होता है — या तो गांधी परिवार की असुरक्षा से या केंद्र या राज्यों में उनके विश्वसनीय चाटुकारों की. परिवार को शक्तिशाली, स्वतंत्र विचार रखने वाले क्षेत्रीय नेताओं के साथ हमेशा परेशानी रही है. तो फिर क्यों एक और समस्या पैदा की जाए? इसके कई अन्य कारण हो सकते हैं, जिसमें राजनीति और समाज की गलत समझ शामिल है.
बीजेपी के मामले में इसका कारण बिल्कुल उलट है — हाई कमान का पूरा नियंत्रण क्योंकि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर जीतते हैं, उन्हें बस मोदी की सराहना करनी चाहिए. उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को हाई कमान की इच्छाओं के तहत दबा देना चाहिए. मत पूछिए, हाई कमान की कृपा का इंतज़ार कीजिए. अन्य पार्टियों के मामले में, इसी तरह के कारण — असुरक्षाएं, पूर्ण नियंत्रण, और पार्टी प्रमुखों की मनमानी, आदि—इस प्रवृत्ति को समझाते हैं.
तो, आज के स्मार्ट, महत्वाकांक्षी नेताओं के लिए विकल्प क्या है? जैसा कि बॉब डिलन कहत हैं: जवाब हवा में है.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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