मोदी सरकार के पास भारतीय सेना के सुधार एवं आधुनिकीकरण का अभूतपूर्व मौका था । किंतु सरकार ने यह मौका गंवा दिया और अब ठोकपीट से काम चला रही है।
कुछ ईमानदार गलतियां करने का अधिकार हर इंसान के पास होता है। लेकिन सुविचारित निष्क्रियता या डेलीब्रेट इनैक्शन के इल्ज़ाम से यह दलील आपको नहीं बचा सकती। एक चूका मौका एक अरक्षणीय और मूर्खतापूर्ण गलती ही मानी जायेगी।
मोदी सरकार की भारतीय सेना एवं देश के रक्षा संस्थानों में मूलभूत सुधार लाने के मौकोण को गंवाने की गलती कुछ ऐसी ही है। मोदी सरकार पूर्णकालिक तो है ही, तीस साल में यह पूर्ण बहुमत वाली पहली सरकार है। यही नहीं, नरेंद्र मोदी की मजबूत छवि और उनका सेना के प्रति लगाव, ये कुछ ऐसी चीज़ें चीज़ें थीं जिनका फायदा उठाकर सेना में कुछ मूलभूत सुधार लाये जा सकते थे। इन गलतियों के लिए पिछली सरकारों को कोसने का कोई फायदा नहीं है। पिछले तीस सालों में किसी सरकार की राह इतनी आसान नहीं थी। उनके पास या तो बहुमत की कमी थी या फिर कमी थी समय और राजनैतिक संसाधनों की। यही कारण था कि मोदी सरकार से उम्मीदें कुछ ज़्यादा थीं। इसके बावजूद रक्षा संबंधित सुधारों के क्षेत्र में ही मोदी सरकार ने सर्वाधिक निराश किया है।
इस सरकार के पास दुनिया की चौथी सबसे बड़ी सैन्य ताकत में क्रांतिकारी बदलाव लाने के साथ ही उसे नया और आधुनिक बनाने का भी मौका था। दुख की बात है कि यह सरकार अब भी घरेलू झगड़ों में पड़ी है और सैनिकों के पास न तो राइफलें हैं ना ही जूते। वायुसेना की बात करें तो बड़ी ही शान से चालीस साल बाद जैगुआर को और एक अपग्रेड दे रही है।
उपकरणों एवं भारी मशीनों में आई गड़बड़ी महत्वपूर्ण ज़रूर है लेकिन उससे भी बड़ी हानि है संस्थागत बदलावों का न हो पाना। चीनी सरकार ने भारत को एक पेचीदा सवाल के रूप में यह काफी क्रूर तरीके से महसूस कराया । चीनी कहते हैं – हमें मालूम है कि हमारी तरफ यह हॉटलाइन हमारे थियेटर कमांडर की देखरेख में होगी जोकि पूरे भारतीय सीमांत का कमांडर होगा, पूर्वी से लेकर पश्चिमी छोर तक। आपकी तरफ यह काम किसके ज़िम्मे होगा?
इसे ऐसे देखें। चीन की पूरी भारत सम्मुख फौज का एक कमांडर है। इन सारी टुकड़ियों के कामण्डर एक आदमी और एक ही मुख्यालय को रिपोर्ट करते हैं। उसके उलट भारत के पास विविधताओं का ऐसा भंडार है जोकि किसी कहानी में ही पसंद आ सकता है, इक्कीसवीं शताब्दी में तो इसे मज़ाक ही कहेंगे। अरुणाचल एवं सिक्किम – भूटान क्षेत्र पूर्वी सेना कमांडर के अंदर आता है। वहीं उत्तराखंड (केंद्रीय ) अंचल केंद्रीय सेना कामण्डर का क्षेत्र है। हिमाचल – तिब्बत सीमा पश्चिमी सेना कमांडर के अंदर आती है और कश्मीर से लेकर लद्दाख से आगे तक उत्तरी सेना के अंतर्गत। यही नहीं, वायुसेना के भी कम से कम तीन कमांड (पूर्वी, केंद्रीय एवं पश्चिमी )इस काम में लगेंगे। जलसेना तो होगी ही।
कुल मिलाकर एक चीनी कमांडर के मुकाबले भारतीय सेना के कम से कम आठ थ्री स्टार कमांडर खड़े होंगे। आधुनिक सेनाएं ऐसे नहीं चलती। यह कुछ कुछ 1962 वाली अव्यवस्था की याद दिलाता है, जो हमारी शक्तिशाली एवं आधुनिक सेना के लिए चिंता का विषय है।
जैसा कि दिप्रिंट के सुजान दत्त ने अपनी गुरुवार की स्टोरी में दिखाया है, हॉटलाइन भी अब प्रोटोकॉल की पेचीदगियों में उलझी है। चीन और भारत के बीच की 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा पर गड़बड़ियाँ होती ही रहती हैं। ऐसा होने की स्थिति में चीनी थियेटर कमांडर से कौन बात करेगा? अगर भारत के सेना मुख्यालय के डी जी एम ओ ऐसा करते हैं तो फिर से प्रोटोकॉल आड़े आएगा। क्या भारतीय आर्मी का डी जी एम ओ एक “अदने” चीनी थियेटर कमांडर से बात करेगा?
यहाँ बात केवल प्रोटोकॉल तक ही सीमित नहीं है ना ही यह मज़ाक का विषय है। आधुनिक युद्दकला तेज़ी, कार्यान्वयन, गतिशीलता, गोला बारूद एवं सम्मलित कोशिशों पर आधारित है। हमारा मूल सैन्य ढाँचा (मूलभूत रूप से) ब्रिटेन की तर्ज़ पर बना है जिसमें क्षेत्रीय कमानें होती हैं। चाहे दुश्मन कोई भी हो, मूल बनावट यही होगी। यही नहीं, सेना के अधिकतर कैंट आज़ादी से पहले की औपनिवेशिक ज़रूरतों को ध्यान में रखकर बने हैं। मुझे इस मुद्दे की गंभीरता का अहसास पूर्व जलसेना अध्यक्ष एडमिरल अरुण प्रकाश से बातचीत के दौरान हुआ। एडमिरल प्रकाश की सैन्य समझ विलक्षण है। उन्हींके शब्दों में, “अगर दोक्लम के हालात काबू से बाहर गए” तो कम से कम पाँच भारतीय कमांड वहाँ लगाई जाएंगी। भाषिक दिक्कतों की बात छोड़ भी दें तो इन पांचों कमांडों के लिए तालमेल बिठाना मुश्किल होगा। वहीं दूसरी ओर चीनी पीएलए एक कमांड एवं एक कमांडर के अंदर काम करेगी। क्या आज के समय में, जब युद्ध तेज़ और छोटे होते हैं, क्या ऐसी अव्यवस्था चिंता का विषय नहीं ?
उन्होंने यह भी बताया कि भारतीय सेना 19 अलग अलग कमांडों में बंटी है और उनमें से कोई भी “न ही आसपास हैं, न ही एक उद्देश्य के लिए बनी हैं” । सेना के बारे में जानने वालों को भी इस तर्क को गले से उतारने में समय लगता है ।
आइये कुछ उदाहरण लेते हैं। कोलकाता स्थित पूर्वी सेना कमांड उत्तर-पूर्वी राज्यों के अंदरूनी विद्रोहों के साथ-साथ चीन, बांग्लादेश, भूटान एवं म्यांमार से लगी भारतीय सीमा की देख-रेख करती है। पूर्वी वायु कमांड, जिसे इस कमांड के साथ तालमेल में होना चाहिए था, उसका मुख्यालय ऊपरी शिलॉन्ग के खूबसूरत हरे पहाड़ों के बीच है जहां एक हवाई पट्टी वाला रनवे भी नहीं है। मान लीजिए कोलकाता से शिलॉन्ग तक जल्दी से वायुमार्ग से जाने की ज़रूरत हो – आपको बांग्लादेश के ऊपर से जाना होगा। क्या दोनों कमांडों को एक साथ कलकत्ता में नहीं होना चाहिए था? पूर्वी जलसेना कमांड भी कुछ ज़्यादा ही दक्षिण, विशाखापट्टनम में है।
पूर्वी क्षेत्र का उदाहरण आपको डरावना लग सकता है पर हालात यही हैं। पश्चिमी थल सेना कमांड चंडीगढ़ के बाहर, चंडी मंदिर में स्थित है और पश्चिमी वायुसेना कमांड दिल्ली में। ऐसा क्यों है? यही नहीं, भारतीय वायु सेना के दोनों अध्यक्षों के मुख्यालय एवं इसकी सबसे बड़ी कमांड, ये तीनों एक शहर में पांच मील के घेरे के अंदर हैं। इसका कारण भी शायद अंग्रेजों से पूछना पड़े। मैं मानता हूं कि इन मुश्किलों को आसान बनाने के लिए सेना के अपने संपर्क अधिकारी होंगे। पर उससे कहीं बेहतर होता अगर कमांडर साथ मिलकर काम करते।
पूरी लिस्ट गिनाने का कोई मतलब नहीं बनता क्योंकि हर जगह यही गड़बड़ियाँ हैं। पश्चिमी कमांड पुणे में है जोकि बहुत ज़्यादा इनलैंड या अंतर्देशीय है। यह कमांड है पुणे में लेकिन इसका क्षेत्र पाकिस्तान से लगा गुजरात- राजस्थान का रेगिस्तानी क्षेत्र है। इस कमांड की पूरक वायुसेना कमांड दक्षिण पश्चिमी होगा, जोकि गांधीनगर में स्थित है। वैसे तो वायुसेना की एक दक्षिणी कमांड तिरुअनंतपुरम में भी है लेकिन उसका क्षेत्र मुख्यतः प्रायद्वीप है। थलसेना की दक्षिण-पश्चिमी कमांड जयपुर में है जबकि उसकी पूरक वायुसेना कमांडों के मुख्यालय क्रमशः दिल्ली (पश्चिमी) एवं गांधीनगर (दक्षिण पश्चिमी ) में हैं। कभी-कभी तो इलाहाबाद की केंद्रीय कमाण्ड भी साथ आती है। अगर आप पूरी लिस्ट को देखेंगे तो पाएंगे कि कोई भी दो सेना कमानें “न ही आसपास हैं, न ही एक उद्देश्य के लिए बनी हैं”। ऐसी एकमात्र त्रिसैन्य कमांड अंडमान में है या फिर दिल्ली स्थित नवनिर्मित स्ट्रेटेजिक रक्षा मुख्यालय।
इसखिचड़ी के बीच पूर्वी आर्मी कमांड , जो पहले से ही काफी बोझ उठा रही है, के अंतर्गत एक माउंटेन स्ट्राइक कोर का गठन हुआ और फिर उसे ठंडे बस्ते में भी डाल दिया गया। रक्षामंत्री निर्मला सीतारमन की इस मामले में की गई प्रेस कॉन्फ्रेंस स्वागतयोग्य है। यह कॉन्फ्रेंस भी दिप्रिंट में सुजान दत्त द्वारा किये खुलासे के बाद ही हुई।उन्होंने कहा कि फैसला सेना पर छोड़ दिया गया है। अगर ऐसा सच है तो मेरी समझ से सेनाध्यक्ष ने बुद्धिमत्ता और बहादुरी का परिचय देते हुए विचारहीन सैन्यविस्तार के ऊपर सुविचारित दृढ़ीकरण या कंसॉलिडेशन को तरजीह दी है। उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण उनका इस मूल सांस्थानिक मुद्दे पर दी गयी सही प्रतिक्रिया है। उन्होंने कहा कि सरकार संयुक्त थियेटर कमांड बनाये जाने के पक्ष में है। पर यह हम पहली बार नहीं सुन रहे हैं। क्या कभी किसी सरकार ने ऐसा प्रस्ताव दिया है? पुरानी सरकारों के पास ऐसा वृहद लेकिन ज़रूरी सुधार कर पाने लायक राजनीतिक शक्ति नहीं थी लेकिन मोदी सरकार की क्या मजबूरी है?
रक्षामंत्री के मुताबिक थियेटर कमाण्ड पर आधारित पुनर्गठन एवं तालमेल को प्रधानमंत्री मोदी का समर्थन प्राप्त है। यह बहुत ही खुशी की बात है। दुख इस बात का है कि सरकार का कार्यकाल काफी हद तक पूरा हो चुकने के बावजूद इस मामले में कोई फैसला नहीं लिया गया है। मंत्रीजी कहती हैं कि देरी का कारण सरकार के काम करने का तरीका है जोकि ‘टॉप डाउन’ यानी ऊपर से संचालित न होकर ‘बॉटम्स अप’ है। वैसी हालात में यह काम चार साल पहले शुरू हो जाना चाहिए था। एक घरेलू थिंकटैंक के गठन के साथ एक कार्यान्वयन टीम भी होनी चाहिए थी जो इस मिशन पर काम करती । ऐसा तो है नहीं कि भारतीय सैन्य ढांचे की यह गड़बड़ियाँ किसीसे छुपी हों।
मोदी सरकार के आलोचक अब प्रमाणिकता के साथ कह सकते हैं कि इस सरकार ने बड़े वादे तो किए पर ज़मीन पर कुछ नहीं हुआ। कम से कम यह तो कह ही सकते हैं कि यह सरकार एक ऐसी क्रिकेट टीम की तरह है जिसने अपने पावरप्ले के ओवर आत्मसंतुष्टि में गंवा दिए और अब आखिरी समय में बुरी तरह से उत्तेजित है। लोकतंत्र में शासन करना वैसे भी सीमित ओवरों का खेल है