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Tuesday, 17 December, 2024
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तेलंगाना में कांग्रेस के पक्ष में चल रही ‘हवा’ क्या आंधी में बदलने जा रही है

चुनावी लहरों का इतिहास बताता है कि एक बार अगर लहर चल पड़ी तो फिर अंतिम क्षणों में अपनाये जाने वाले पैंतरे खास कारगर नहीं होते.

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तेलंगाना का उलट-फेर पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बीच अपने आप में एक अनूठी कहानी है. वैसे तो ‘राष्ट्रीय’ मीडिया का ज्यादातर ध्यान हिन्दीपट्टी के राज्यों में चले कांग्रेस बनाम बीजेपी के चुनावी मुकाबले पर रहा लेकिन स्पष्ट जनादेश शायद भारत के दक्षिणी राज्य तेलंगाना में चले बहुकोणीय मुकाबले से आये. इस जनादेश के निहितार्थ राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से भी बड़े मानीखेज होने जा रहे हैं.

ज्यादा दिन नहीं हुए, बस दो साल पहले तक तेलंगाना में कांग्रेस गर्त में गिरी हुई जान पड़ती थी. साल 2018 में हुई करारी शिकस्त (महज 28 प्रतिशत का वोटशेयर और 119 सीटों वाली विधानसभा में केवल 19 सीटें) और इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी से पीछे तीसरे नंबर पर जा गिरने के बाद लग यही रहा था कि तेलंगाना में भी पार्टी की वही दशा होने जा रही है जो आंध्रप्रदेश में हुई है. चुनावों का इतिहास बताता है कि राज्यों में ऐसी करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस शायद ही कहीं फिर से उठकर खड़ी हो पायी हो. साल 2019 के लोकसभा चुनाव और साल 2020 के ग्रेटर हैदराबाद नगरनिगम के चुनावों में मिली शानदार जीत के साथ बीजेपी का सितारा बुलंदी पर पहुंच रहा था. बीजेपी की ओर से जी-तोड़ कोशिश चल रही थी कि तेलंगाना पश्चिम बंगाल की सी हालत में पहुंच जाए ताकि चुनाव मे नतीजों की बेहतर फसल काटी जा सके.

लेकिन ठीक ऐसे ही वक्त में बदलाव का पहिया बे-अवाज घूमना शुरू हुआ. मलकाजगिरि के सांसद अनुमला रेवंत रेड्डी 2021 के जून माह में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए. साल 2018 में तेलुगु देशम पार्टी(टीडीपी) को छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए रेड्डी की छवि आक्रामक प्रचार शैली और धारदार जबान वाले नेता की है. उन्हें सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति (नया नाम भारत राष्ट्र समिति) और मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) का धुर विरोधी समझा जाता है. आलाकमान से मिल रहे जबर्दस्त समर्थन के बूते रेड्डी पार्टी की शुरूआती अंदरूनी कठिनाइयों से उबरे और आखिरकार उन्होंने हताश-निराश नजर आ रही पार्टी के भीतर नई ऊर्जा का संचार कर दिखाया.

इसके बाद आया साल 2022 में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का पड़ाव. सूबे में ‘यात्रा’ के दो हफ्ते गुजरे और इस दौरान ‘यात्रा’ ने कार्यकर्ताओं में नए सिरे से जोश जगाने का काम किया. और, इसके बाद कर्नाटक में मिली शानदार जीत के साथ तेलंगाना की कांग्रेस इकाई को नैतिक संबल और संसाधनों का वह सहारा मिला जो चुनाव से पहले जरूरी था.

बीजेपी की यात्रा इसके उलट रही. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष, भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) तथा केसीआर के मुखर विरोधी तथा पिछड़े तबके के नेता बंडी संजय कुमार को अचानक और बगैर किसी जायज वजह के पद से हटा दिया गया. इसके साथ एक बात और हुई, दिल्ली आबकारी मामले में केसीआर की बेटी के कविता को गिरफ्तार ना करने का फैसला लिया गया. इन दो बातों से एक जाहिर राजनीतिक संदेश ये गया कि बीआरएस के प्रति केंद्रीय नेतृत्व का रूख नरम है और बीजेपी सूबे में बीआरएस की आसन्न जीत के आड़े नहीं आने जा रही. ऐसे में इस धारणा को बल मिला कि बीजेपी और बीआरएस ने हाथ मिला लिए हैं.

बीआरएस ना सही आत्मतुष्ट तो भी बड़े आराम से कुर्सी पर काबिज बैठी रही. सूबे में सत्ता-विरोधी कोई जाहिर सी लहर नहीं थी. दो बार से सत्ता में कायम बीआरएस ने तामझाम वाले प्रचार के सहारे मतदाताओं को बूझा-रिझा रखा था कि ‘ये देखिए, प्रदेश की बेहतरी की ये बड़ी-बड़ी परियोजनाएं और यकीन मानिए कि हमारी सरकार ने विकास के खूब काम किये हैं’. इसके अतिरिक्त, सूबे की सरकार ने समाज के विभिन्न तबके के लोगों के खाते में नकदी जमा करने की ‘रैयथू बंधु’ तथा ‘दलित बंधु’ जैसी विभिन्न योजनाएं चला रखी थीं. बीआरएस की इस आरामतलबी में कुछ योगदान चुनावी जनमत-सर्वेक्षणों (ओपिनियन पोल्स) का भी रहा. शुरूआती जनमत सर्वेक्षणों में बीआरएस को बड़ी बढ़त के साथ आगे बताया गया था. हालांकि बाद के चुनावी जनमत-सर्वेक्षणों में यह भी दिखा कि कांग्रेस उभार पर है लेकिन इसके बावजूद हमने जिन 8 जनमत-सर्वेक्षणों का जायजा लिया है उनमें औसतन बीआरएस को 57 सीट तथा कांग्रेस को 49 सीट मिलने की बात कही गई है.


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तेलंगाना की असली तस्वीर

यों सतह के नीचे और हैदराबाद से दूर-दराज के इलाके में हालत ऐसी भी अच्छी नहीं. साल 2021 में तेलंगाना मानव विकास सूचकांक के पैमाने पर 30 राज्यों में 17वें पायदान पर था. द हिन्दू अखबार ने अपने डेटा-प्वाइंट में दिखाया है कि हैदराबाद के आसपास और दूर-दराज के जिलों के बीच सामाजिक-आर्थिक बेहतरी की दशा बताने वाले सूचकांक के लिहाज से बड़ा अन्तर है. सामाजिक विकास की दशा बताने वाले आठ सूचकांकों में चार को आधार बनाएं तो दिखेगा कि तेलंगाना 2019-21 के बीच नीचे के पायदान पर मौजूद 50 प्रतिशत राज्यों में एक है. मानक से कम वजन वाले बच्चों की तादाद के मामले में तेलंगाना 30 राज्यों के बीच 21 वें स्थान पर, मानक से कम लंबाई के बच्चों के मामले में 26वें स्थान पर, आयु-वर्ग 20-24 की अठारह साल से कम उम्र की विवाहित महिलाओं की संख्या के मामले में 23वें स्थान पर और छह साल या इससे ज्यादा उम्र की स्कूल जाने वाली बच्चियों की तादाद के मामले में 30वें (सबसे नीचे) स्थान पर है.

यही नहीं सामाजिक-आर्थिक दशा बताने वाले सात सूचकांकों को आधार बनाकर देखें तो नजर आएगा कि तेलंगाना 2015-16 से 2019-21 के बीच बहुत नीचे खिसक आया है. ऊपर जिन चार सूचकांकों की चर्चा की गई है, उनके अतिरिक्त इसमें शिशु मृत्यु-दर, वजन के अनुपात में मानक से कम लंबाई के बच्चों की संख्या तथा स्वास्थ्य बीमा की सुरक्षा वाले परिवार (कोई न कोई सदस्य) की संख्या बताने वाले सूचकांक शामिल हैं.

हालांकि चुनावी जनमत सर्वेक्षणों में बीआरएस को दौड़ में आगे बताया गया है लेकिन बारीकी से देखने पर कहानी कुछ और ही नजर आती है. सी-वोटर के सर्वे में उत्तरदाताओं की एक बड़ी तादाद (57 प्रतिशत) ने कहा कि हमलोग ‘सरकार से नाराज हैं और इसे बदलना चाहते हैं.’ विधानसभाई चुनाव वाले अन्य राज्यों में इसी एजेंसी ने जो चुनावी सर्वेक्षण कराए हैं उनकी तुलना में तेलंगाना में सरकार से खुद को असंतुष्ट बताने वाले उत्तरदाताओं का प्रतिशत ज्यादा है. चुनाव वाले पांच राज्यों के लिहाज से देखें तो तेलंगाना में मौजूदा विधायक के प्रति लोगों का रोष सबसे ज्यादा ( सर्वेक्षण में शामिल 57 प्रतिशत उत्तरदाता) है.

चुनावों की घोषणा होने के साथ यह छिपा हुआ असंतोष सामने आया. चुनावी दौड़ में बढ़त के मामले में बीआरएस और कांग्रेस के बीच जो अन्तर चंद माह पहले 6 प्रतिशत का था वह चुनाव के एक माह पहले घटकर 2 प्रतिशत पर आ गया. भारत जोड़ो अभियान के सहकर्मियों के साथ बीआरएस के गढ़ कहे जाने वाले इलाकों की योगेन्द्र यादव (इस लेख के लेखकद्वय में से एक) यात्रा से बदलाव की बयार बह चली. बेशक, सड़कों और गली-मुहल्लों में नजर आने वाले लोग केसीआर से नाराज नहीं दिखते और वे सड़कों तथा ‘करेंट’ (बिजली) की हालत बेहतर बनाने में सरकार के योगदान को सराहना के भाव से स्वीकार करते हैं. साथ ही, नकदी-हस्तांतरण की योजना के फायदे भी गिनाते हैं लेकिन लोगों में ये भाव भी घर कर गया है कि अब इन बातों से आगे बढ़ते हुए कांग्रेस को मौका देने का वक्त आ गया है.

6 कारण

एक तो यही कि केसीआर के नेतृत्व में सूबे ने जो कुछ हासिल किया है वह उनके वादे और दावे की तुलना में बहुत कम है. दूसरी बात, केसीआर और उनके बेटे केटी रामा राव ने स्थानीय स्तर की सरपरस्ती और दमन का जो तंत्र खड़ा किया है वह लोगों पर स्वयं केसीआर पर लगे भारी-भरकम भ्रष्टाचार के आरोपों से कहीं ज्यादा भारी है. बीआरएस के कई विधायक भ्रष्टाचार और अहंकार के कारण लोगों के मन से उतर गए हैं. तीसरी बात, सूबा रोजगार के मोर्चे पर खस्ताहाली का शिकार है और प्रदेश के युवा मतदाताओं के मन में सरकार के प्रति आक्रोश का जैसे पारावार उमड़ रहा है. चौथी वजह ये कि नकदी हस्तांतरण की कुछ योजनाओं में चुनिन्दा तौर पर लाभार्थी बनाने के चलन से ‘अंधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपने को देय’ की धारणा बलवती हुई है. पांचवां कारण ये कि मुसलमान जो बीते वक्त में बीआरएस के समर्थक रहे हैं और बीआरएस से उन्हें कोई खास शिकायत भी नहीं थी, बीआरएस पर बीजेपी से मिलीभगत करने के आरोप से आशंकित हैं और यह सत्ताधारी पार्टी के लिए बुरी खबर है.

इस सिलसिले की आखिरी बात ये है कि आपस में विविध मतवादों में बंटे हुए ईसाई अल्पसंख्यक जिनकी तादाद आधिकारिक जनगणना (2 प्रतिशत) से कहीं अधिक है, मणिपुर-प्रकरण के बाद से मानो एकजुट हैं कि इस बार वोट उसी पार्टी को डालना है जो राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी का विकल्प बनकर उभरने का माद्दा रखती है.

इन तमाम कारणों से सत्ताधारी पार्टी तेजी से ढलान पर है. बस इतना भर जानना शेष रह गया है कि सत्तारूढ़ पार्टी की यह गिरावट कितनी तेज है. कांग्रेस को पिछले चुनाव के 14 अंकों के घाटे की भरपाई (बीआरएस को 47 प्रतिशत और कांग्रेस को अपने बूते 28 प्रतिशत तथा साथी दलों के साथ 33 प्रतिशत) और बीआरएस पर बढ़त बनाने के लिए अपने पक्ष में एक भरी-पूरी ‘लहर’ की जरूरत है. साल 2018 में बीआरएस ने पूर्ववर्ती 11 जिलों में 10 में (पूर्वी जिला खम्मम ही एकमात्र अपवाद रहा) झाड़ू-बुहार अंदाज में जीत दर्ज की थी, पार्टी को 119 में से 88 सीटें हाथ लगी थीं जबकि कांग्रेस-टीडीपी गठबंधन को केवल 21 सीटें मिलीं. कांग्रेस को जीत के लिए अपने पक्ष में 10 प्रतिशत वोटों का घुमाव चाहिए और लगभग इसी पैमाने पर वोटों का घुमाव बीआरएस के विरूद्ध भी.

यह कठिन है लेकिन असंभव नहीं. ग्रेटर हैदराबाद के शहरी हलकों तथा राज्य के उत्तर के जिलों को छोड़कर जहां बीजेपी कांग्रेस का खेल बिगाड़ सकती है, बाकी जगहों पर बीआरएस के खिलाफ लहर दिखाई दे रही है. असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) को जिसका रुख सूबे में बीआरएस के प्रति दोस्ताना रहा है, संभवत: इस बार पुराने शहर के अपने ही गढ़ में कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. बीजेपी का प्रदर्शन कांग्रेस की राह की आखिरी बाधा साबित हो सकती है.

खबरों के मुताबिक, कमजोर स्थिति में होने के बावजूद बीजेपी कम से कम 40 सीटों पर बीआरएस के विरोध में जाने वाले वोट बांट सकने की हालत में है. बीजेपी ने बहुसंख्यक पिछड़ा वर्ग के लोगों से वादा किया है कि प्रदेश में पिछड़े तबके का मुख्यमंत्री होगा और दलित समुदाय के मडिगा जाति के लोगों से पार्टी ने वादा किया है कि एससी कोटा के भीतर उनके लिए अलग से उप-कोटा की व्यवस्था की जाएगी. कांग्रेस के वोटों में ये वादा भी कुछ सेंधमारी कर सकता है. इन सीटों पर बीजेपी के आखिरी जोरदार प्रयास से बीआरएस के लिए राहत की स्थिति बन सकती है. इस बात की भी प्रबल आशंका है कि सत्तारूढ़ पार्टी आखिरी के लम्हों में रूपये के दम पर अपनी झोली में वोट ना बटोर लें.

बहरहाल, चुनावी लहरों का इतिहास बताता है कि एक बार अगर लहर चल पड़ी तो फिर अंतिम क्षणों के ये पैंतरे खास कारगर नहीं होते. ये भी संभव है कि कांग्रेस के पक्ष में कड़ी से कड़ी जुड़ती जाए और अनिर्णय की स्थिति वाले, खासकर अल्पसंख्यक तबके के मतदाता एकबारगी कांग्रेस के पक्ष में होकर चल रही ‘हवा’ को आंधी में तब्दील कर दें. नए और विश्वसनीय सर्वे के अभाव में ये कहना फिजूल होगा कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिलने जा रही हैं लेकिन नाटकीय बदलाव के बावजूद अगर कांग्रेस को आसान बहुमत या फिर भारी-भरकम बहुमत से जीत हासिल नहीं होती तो इसे आश्चर्य ही कहा जाएगा.

(योगेन्द्र यादव भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक हैं।.श्रेयस सरदेसाई भारत जोड़ो अभियान से जुड़े एक सर्वेक्षण शोधकर्ता हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन: अलमिना खातून)
(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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