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Friday, 20 December, 2024
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मोदी लहर में टिके रहे तेजस्वी, कहां चूक गए अखिलेश यादव

अगर अखिलेश यादव सपा को सामाजिक न्याय के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं तो उन्हें नई शुरुआत करनी होगी. उनकी पार्टी के पिछले काम और विरासत से उन्हें कोई रास्ता नहीं मिलेगा.

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समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने 2024 लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी को एक नई लाइन थमा दी है और राजनीतिक हलके में इसके चर्चे हैं. उन्होंने अपना और पार्टी का फोकस सामाजिक न्याय, जातिवाद विरोधी और जाति जनगणना पर लगाने का संकेत दिया है और इसी के अनुसार पार्टी संगठन में भी फेरबदल करके पूरा दारोमदार ओबीसी और एससी पर सौंप दिया है. वे बीजेपी पर जातिवादी होने के आरोप भी लगा रहे हैं.

ये बात राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यूपी से लोकसभा की 80 सीटें आती हैं और सपा वहां विधानसभा में प्रमुख विपक्षी दल है. यूपी में होने वाला कोई भी बदलाव देश की राजनीति के लिए महत्वपूर्ण है.

अखिलेश यादव की राजनीति में नजर आ रहा बदलाव विश्लेषकों को दिलचस्प लग रहा है लेकिन मेरी राय है कि ये बदलाव आधे मन से किया जा रहा है और इसके पीछे विचारधारा की ताकत नहीं है. इसलिए इसमें कामयाबी मिलने की उम्मीद भी कम है.

सामाजिक न्याय की राह पर समाजवादी पार्टी

1. समाजवादी पार्टी ने हाल में पार्टी पदाधिकारियों की लिस्ट जारी की है. पार्टी अध्यक्ष पद पर अखिलेश यादव बने हुए हैं. उपाध्यक्ष पहले की तरह बंगाल के पुराने नेता किरणमय नंदा हैं और प्रधान महासचिव का पद हमेशा की तरह रामगोपाल यादव के पास है. लेकिन इसके बाद का जो नेतृत्व है यानी 15 महासचिव, वहां हिंदू सवर्ण जातियों का कोई भी नहीं है. लिस्ट में ओबीसी और एससी नेताओं की भरमार है.

2. महासचिवों की लिस्ट में पार्टी के विधान परिषद सदस्य स्वामी प्रसाद मौर्य का नाम होना महत्वपूर्ण हैं. वे लगातार सामाजिक न्याय और जातिभेद के सवाल पर मुखर रहे हैं और हाल में उन्होंने रामचरितमानस के कुछ अंश को जातिवादी करार देते हुए इस ग्रंथ पर पाबंदी लगाने की भी मांग की है. इसके लिए उन पर मुकदमा भी हुआ है. अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव ने ये भी कहा था कि इस बयान से सपा सहमत नहीं है. इसके बावजूद स्वामी प्रसाद मौर्य को अखिलेश यादव ने महासचिव बनाकर एक संदेश देने की कोशिश की है. स्वामी प्रसाद मौर्य पहले जो बोल रहे थे, वह अब भी बोल रहे हैं.

3. सपा नेता, प्रवक्ता और खुद अखिलेश यादव इन दिनों जो भाषा बोल रहे हैं, उसके लिए सपा जानी नहीं जाती है. पिछले ही महीने अखिलेश यादव ने बीजेपी पर आरोप लगाया कि वह उन्हें शूद्र समझती है और इस कारण उन्हें अपमानित करती है. अखिलेश यादव ने इस बीच जाति जनगणना की मांग तेज कर दी है और वे बीजेपी पर आरोप लगा रहे हैं कि वह जाति के आंकड़े सामने लाने से बच रही है. सपा अब बहुजन महापुरुषों के जन्मदिन पर बधाई देती है और आयोजन भी करती है. ये सपा के लिए नई बात है.


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जाहिर है कि सपा अपनी ओर से इस दिशा में काफी कुछ कर रही है. लेकिन क्या इन बातों का लोगों के मतदान व्यवहार पर फर्क पड़ेगा और क्या इससे पार्टी को वोट मिलेंगे? सपा के लिए अगला बड़ा चुनाव 2024 का लोकसभा चुनाव है और उसमें अभी काफी समय है. इसलिए इस बारे में कोई आकलन कर पाना तो संभव नहीं है, लेकिन इस बात में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुकाबले जातीय गोलबंदियां कई बार सफल साबित हुई हैं. सपा तो इसका खुद ही बड़ा उदाहरण है क्योंकि इसी आधार पर उसने बसपा के साथ मिलकर 1993 में अच्छा प्रदर्शन किया था, जबकि वह चुनाव 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद के तूफानी माहौल में हुआ था.

2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद उत्तर भारत, खासकर यूपी का सामाजिक और जातीय समीकरण काफी बदल गया क्योंकि बीजेपी ने इस दौरान ओबीसी मतदाताओं के बीच अच्छी पैठ बना ली. इसके लिए बीजेपी ने कई रणनीतियां अपनाईं. पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाने के साथ ही उन्हें ओबीसी नेता के रूप में पेश किया. सांप्रदायिकता का ताप ऊंचा रखा गया ताकि जातियों के आपसी अंतर्विरोध पीछे चले जाएं और हिंदू गोलबंदी हो. इसके साथ बीजेपी ने ढेर सारे ओबीसी नेताओं को पार्टी संगठन और टिकट वितरण में जगह दी, खासकर उन जातियों को जिन्हें सपा और बसपा में पर्याप्त जगह नहीं मिल पा रही थी.

अपनी ओबीसी पोजीशन को नरेंद्र मोदी ने सरकार में आने के बाद लगातार मजबूत किया. उन्होंने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर उसे शक्तियां दीं. मेडिकल एडमिशन के ऑल इंडिया कोटा में ओबीसी आरक्षण लागू करके उन्होंने ओबीसी की एक पुरानी मांग को पूरा किया, इसके अलावा नवोदय स्कूल और सैनिक स्कूलों में भी उन्होंने ओबीसी आरक्षण लागू किया.

तेजस्वी और अखिलेश होने का फर्क

2014 में केंद्र की सत्ता में बीजेपी के आने के बाद उत्तर भारत के दो बड़े नेताओं अखिलेश यादव और राष्ट्रीय जनता दल के नेता और बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने अलग अलग रणनीति पर काम किया और दोनों को अलग तरह के नतीजे मिले.

तेजस्वी यादव ने बीजेपी, सांप्रदायिकता और खासकर सामाजिक न्याय को लेकर अपने स्वर लगातार तीखे रखे, रोहित वेमुला की घटना से लेकर एससी-एसटी एक्ट पर आरजेडी सड़कों पर रही और कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी लहर में बिहार में हुए दोनों विधानसभा चुनावों के बाद उनकी पार्टी विधानसभा में सबसे प्रमुख दल बनकर उभरी.

एक युवा नेता के लिए ये कोई छोटी उपलब्धि नहीं है क्योंकि इस पूरे दौर में उनके पिता और पार्टी अध्यक्ष लालू प्रसाद ज्यादातर समय या तो जेल में या फिर अस्पताल में रहे. 2020 के विधानसभा चुनाव में तो उन्हें प्रचार करने का भी मौका नहीं मिला. फिर भी आरजेडी ने इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया. तेजस्वी यादव सामाजिक न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता लगातार जाहिर करते रहते हैं और इसका लाभ उन्हें चुनावों में मिलता है.

लेकिन यही बात अखिलेश यादव के लिए नहीं कही जा सकती. 2014 में नरेंद्र मोदी के केंद्र में सत्ता में आने के बाद से समाजवादी पार्टी ने कोई चुनाव नहीं जीता है, 2017 में तो 403 सदस्यीय यूपी विधानसभा में सपा की सीटें घटकर सिर्फ 47 रह गई थीं. 2022 में सपा की सीटें बढ़ीं और आंकड़ा 111 तक पहुंचा लेकिन बहुमत से ये संख्या बहुत दूर है.

मामला सिर्फ चुनाव हारने का होता, तो सपा को ज्यादा परेशानी नहीं होती. चुनावों में पार्टियों की जीत-हार होती रहती है. बीजेपी ने भी अपनी जबर्दस्त ढलान देखी है. सपा की असली समस्या ये है कि उसका राजनीतिक विचार और एजेंडा खो गया है. खासकर सामाजिक न्याय का एजेंडा तो उसने तब खोया, जब अखिलेश यादव सत्ता में थे. 2013 में सपा के एक सांसद ने एससी-एसटी का प्रमोशन में आरक्षण बिल फाड़ दिया, जिसके सपा को लेकर काफी दलित अब भी नाराज हैं और ये नाराजगी वाजिब भी है. अगर पार्टी ने ये सोचा था कि ऐसा करने से सवर्ण वोटर उसकी तरफ आएंगे तो ये नहीं हुआ क्योंकि तब तक मोदी का उभार शुरू हो चुका था और सवर्ण बीजेपी के खेमे में जा चुके थे.

इसी तरह की एक गलती अखिलेश सरकार से यूपी लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में त्रिस्तरीय आरक्षण को लेकर हुई. हाईकोर्ट के फैसले के बाद सपा सरकार ने त्रिस्तरीय आरक्षण का आदेश वापस ले लिया और ये भी कह दिया कि ये आरक्षण गलत था. जबकि सरकार के पास सुप्रीम कोर्ट जाने समेत कई विकल्प थे. इससे सपा के कोर समर्थक हताश हुए.

उस समय तक सपा की कोशिश किसी भी तरह सवर्णों को खुश रखने की थी. इस चक्कर में उसके खासकर ओबीसी समर्थक छिटक गए. 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद भी पार्टी सामाजिक न्याय को लेकर मजबूत रुख नहीं अपना पाई. 2017 विधानसभा चुनाव में सपा ने सवर्णों को 65 टिकट दिए. पर कोई बात नहीं बनी. 2022 में सवर्णों को सपा ने 71 टिकट दे दिए. (स्रोत – अरविंद कुमार का शोध कार्य)

यूपी में 89 सीटें रिजर्व हैं. मुसलमान सपा के ठोस वोटर हैं तो जाहिर कि सपा को मुसलमान उम्मीदवार देने पड़ते हैं. ये सब करने के बाद सपा के पास हिंदू ओबीसी को देने के लिए बहुत कम टिकट रह जाते हैं. इस मामले में बीजेपी उसे लगातार पीट रही है. इस समस्या के मूल में ये फैक्ट है कि सपा सवर्ण नेताओं को काफी टिकट दे रही है, लेकिन सवर्ण सपा को वोट दे नहीं रहे हैं.

सपा से ये चूक इसलिए हो रही है क्योंकि सामाजिक न्याय की कोई मजबूत विरासत सपा के पास नहीं है. उसका लोहियावादी समाजवाद काफी हद तक नारा ही है. यहां तक कि जब मंडल कमीशन लागू हुआ और चंद्रशेखर ने वीपी सिंह की सरकार गिराने के लिए गोलबंदी की तो मुलायम सिंह चंद्रशेखर के खेमे में खड़े पाए गए. ये बात पुरानी हो चुकी है और लोग भूल भी जाते पर मुलायम सिंह खुद इसका जिक्र भी करते थे.

अब अगर अखिलेश यादव सपा को सामाजिक न्याय के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं तो उन्हें नई शुरुआत करनी होगी. उनकी पार्टी के पिछले काम और विरासत से उन्हें कोई रास्ता नहीं मिलेगा. उनके लिए सामाजिक न्याय का चैंपियन बन पाना आसान नहीं होगा.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.)


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