भारतीय जनता पार्टी का जनता दल (सेक्युलर) से गठबंधन करने का निर्णय पार्टी के नेताओं के गले नहीं उतर रहा है. कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने पार्टी आलाकमान के निर्णय पर कई सवाल उठाए हैं. शनिवार को दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने मुख्यत: तीन बातें कहीं.
सबसे पहले, जहां तक उन्हें पता है कि किसी राज्य नेता से सलाह नहीं ली गई. लेकिन सात वर्षों (2014-2021) से अधिक समय तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में मंत्री रहे गौड़ा को ये बात बेहतर पता होनी चाहिए. हो सकता है की उस समय उनसे उनके मंत्रालयों के निर्णय के बारे में सलाह ली जाती हो . लेकिन उन्हें पता होगा कि आज की भाजपा में विचार-विमर्श कमजोर नेतृत्व की निशानी मानी जाती है.
दूसरा, जद (एस) का ‘थोड़ा एकाधिकार’ पुराने मैसूर क्षेत्र में है वहां भाजपा ने वोट शेयर के मामले में प्रभावशाली प्रगति की है. जो पहले 4-5 प्रतिशत होता था, वो बढ़ कर पिछले विधानसभा चुनाव में 17 प्रतिशत हो गया.बीजेपी का एक नया नेरेटिव भी उभरा है. तो, इन लाभों का त्याग क्यों करें?
तीसरा, जद (एस) अब पुराने मैसूरु क्षेत्र में अपनी चलाएगी.तो फिर भाजपा कार्यकर्ता जिन्होंने कई वर्षों तक कड़ी मेहनत की है, उनका क्या होगा? उन्हें निराश क्यों किया जाए? हालांकि गौड़ा ने इन्हीं शब्दों में ये सवाल नहीं पूछा लेकिन मैंने इसे सरल बना दिया है.
एक और बात है जो वह कह सकते थे, लेकिन उन्होंने नहीं कही: आप गौड़ा की पार्टी को ऑक्सीजन क्यों दे रहे हैं जबकि वह वेंटिलेटर पर है?
ये सभी जरूरी सवाल हैं जिनका उत्तर, भाजपा आलाकमान से नहीं मिलेगा. कर्नाटक भाजपा के कई नेता आश्चर्यचकित हैं कि उनका केंद्रीय नेतृत्व इतना अनिर्णायक और भ्रमित क्यों है. वे पांच महीने से विधायक दल का नेता नहीं चुन पा रहे हैं. राज्य पार्टी अध्यक्ष नलिन कतील का कार्यकाल अगस्त 2022 में समाप्त हो गया लेकिन उन्हें अभी तक कोई री-प्लेसमेंट नहीं मिला है.
उपरोक्त प्रश्न का उत्तर मेरे सहयोगी अमोघ रोहमेत्रा के पिछले विधानसभा चुनाव परिणामों के विश्लेषण और लोकसभा क्षेत्रों में उस डेटा के निष्कर्ष में निहित हो सकता है.
यह हमें बताता है कि यदि विधानसभा चुनाव का रुझान 2024 लोक सभा में जारी रहता है, तो कर्नाटक में भाजपा की लोकसभा सीटें 2019 में 25 से घटकर 2024 में आठ हो जाएंगी अगर पार्टी अकेले चुनाव लड़ती है तो // जद (एस) के साथ गठबंधन में, दोनों कर्नाटक में 28 में से 18 सीटें जीत सकते हैं.
लेकिन ये आंकड़े भ्रमित करने वाले हैं. ये इस धारणा पर आधारित है कि कर्नाटका के लोग विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनावों में एक ही पार्टी को वोट देंगे. हम जानते हैं कि यह धारणा कितनी दोषपूर्ण है. अधिकांश राज्यों में लोग संसदीय चुनावों में मोदी को वोट देने के लिए जाने जाते हैं, भले ही वे विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी को वोट न दें.
तो फिर बीजेपी इतनी असुरक्षित क्यों महसूस कर रही है? पार्टी ने भले ही कर्नाटक में सत्ता खो दी हो, लेकिन अपना 2018 का वोट शेयर- 36 प्रतिशत—2023 में बरकरार रखा है. 2019 के लोकसभा चुनाव में यह 51 फीसदी तक पहुंच गया था. भाजपा आलाकमान ऐसा क्यों सोचता है कि 2024 में भी यही प्रवृत्ति नहीं चलेगी? वे ऐसा क्यों दिखाते हैं कि वे कर्नाटक में कांग्रेस से इतने डरे हुए हैं कि वे पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा की कंपनी में सुरक्षित महसूस करते हैं?
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अन्नाद्रमुक और जगन मोहन को प्रणाम
सच तो यह है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अन्य राज्यों में अपनी रणनीति को लेकर भी उतना ही अनिश्चित है. वो गठबंधन के लिए तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के प्रयासों को अनदेखा करते रहे हैं. इस मामले में उन्होंने जनसेना पार्टी के नेता पवन कल्याण के दबाव को भी नजरअंदाज कर दिया. क्योंकि वे एक विश्वसनीय सहयोगी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी को नाराज नहीं करना चाहते थे. भाजपा उनकी निरंतर वफादारी पर भरोसा कर सकती है क्योंकि वह केंद्रीय एजेंसियों से जुड़े कई मामलों का सामना कर रहे हैं. हालांकि, इसका मतलब हो सकता है कि आंध्र में भाजपा के लिए शून्य सीटें आ जाये. पार्टी इसके लिये तैयार दिख रही थी.
लेकिन अचानक केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने गिरफ्तार टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू के बेटे नारा लोकेश को उनके पिता के बारे में जानकारी के लिए अपने नई दिल्ली आवास पर आमंत्रित किया. यह पर्दे के पीछे होने वाली सामान्य राजनीतिक बातचीत नहीं थी. शाह एक संदेश भेजना चाहते थे. इस मुलाकात की खबर आंध्र प्रदेश भाजपा प्रमुख दग्गुबाती पुरंदेश्वरी ने दी. किसी भी भाजपा नेता ने लोकेश के इस दावे का खंडन नहीं किया कि शाह ने उनसे कहा था कि नायडू की गिरफ्तारी “भाजपा को फंसाने” के लिए थी.
तो अचानक क्या बदल गया? बीजेपी जाहिर तौर पर अपनी आंध्र रणनीति पर दोबारा विचार कर रही है. 2014 के लोकसभा चुनावों में, उसने टीडीपी और जनसेना के साथ गठबंधन किया और दो सीटों पर जीत हासिल की. 2019 में बिना गठबंधन के यह एक फीसदी से भी कम वोट शेयर के साथ शून्य पर सिमट गई.
इसलिए, ऐसा लगता है कि संकटग्रस्त नायडू के साथ बातचीत वो कायम रखना चाहते हैं. नायडू को कुछ सहानुभूति वोट भी मिल सकता है. बीजेपी 2014 के फॉर्मूले को पुनर्जीवित करने का सोच सकती है जिससे की आंध्र प्रदेश में भाजपा के पदचिह्नों का विस्तार करने का मौका मिले . ये सारे कयास शाह और लोकेश की मीटिंग के बाद राजनीतिक गलियारे में फिर से शुरू हो गई है. लेकिन बीजेपी रेड्डी को अभी भी छोड़ना नहीं चाहती. जैसा कि कहा जाता है, कभी भी दो नावों पर सवार न हों.
तेलंगाना में, भाजपा कांग्रेस के लिए खेल बिगाड़ने की कोशिश कर रही है. एक समय था जब भाजपा कांग्रेस को हटा कर मुख्य विपक्ष की जगह ले चुकी और फिर इसने वापसी की है. . मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव पर मोदी और अन्य भाजपा नेताओं के हमलों को अब राजनीतिक हलकों में भाजपा को भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के लिए एक चुनौती के रूप में खड़ा करने के प्रयास के रूप में नहीं देखा जाता है. क्योंकि, अगर बीजेपी ऐसा चाहती, तो वह अपने राज्य इकाई के प्रमुख बंदी संजय कुमार को नहीं हटाती, जिनके तीन साल से कुछ अधिक के कार्यकाल में बीजेपी तेलंगाना में एक मजबूत ताकत बन गई.
उनके स्थान पर आए जी किशन रेड्डी ने अपने पूर्ववर्ती की मारक क्षमता बहुत कम दिखाई है. इसलिए, बीआरएस पर भाजपा नेताओं के हमले, खासकर कर्नाटक में पार्टी की हार के बाद, अब कांग्रेस को सत्ता से वंचित करने और इस प्रक्रिया में केसीआर की मदद करने के लिए सत्ता विरोधी वोटों को विभाजित करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है. बाद में, लोकसभा चुनाव में बीआरएस के साथ औपचारिक या अनौपचारिक समझ की संभावना हमेशा बनी रहती है. बीआरएस की एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी होने के बाद, ऐसा लगता है कि भाजपा अब केसीआर के सामने कांग्रेस की चुनौती को कम करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है.
तमिलनाडु में, जब बीजेपी आलाकमान ने ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) के दबाव के बावजूद अन्नामलाई को राज्य इकाई प्रमुख के पद से हटाने से इनकार कर दिया, तो ऐसा लगा कि पार्टी पूरी ताकत लगाने की तैयारी कर रही है. लेकिन अब ऐसा लगता है कि बीजेपी आलाकमान लोकसभा चुनाव से कुछ समय पहले एआईएडीएमके के नरम पड़ने और बीजेपी को अपने पाले में लेने का इंतजार कर रहा है. अन्यथा, जरा सोचिए कि अगर भाजपा का कोई राजनीतिक विरोधी मुस्लिम कैदियों की रिहाई की मांग करता है, जिसमें 1998 के कोयंबटूर बम विस्फोटों के दोषी लोग भी शामिल हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि उनका लक्ष्य लालकृष्ण आडवाणी को निशाना बनाना था, तो भाजपा की क्या प्रतिक्रिया होगी.
पिछले सप्ताह अन्नाद्रमुक ने ठीक यही किया था. अन्नामलाई ने ऐसी रिहाई का विरोध किया लेकिन वो बस एक खानापूर्ति थी. उनका सामान्य आक्रामक रवैया नहीं दिखा. अन्य भाजपा नेता ने इस बात से अपने आपको परे रखा.
इसके अलावा, अगर भाजपा एक स्वतंत्र रास्ता अपनाने का इरादा रखती, तो वह तुरंत दक्षिणी जिलों में थेवर समुदाय को लुभाने की कोशिश करने के लिए निष्कासित अन्नाद्रमुक नेता ओ पन्नीरसेल्वम, वीके शशिकला और एएमएमके प्रमुख टीटीवी दिनाकरण के साथ गठबंधन की कोशिश करती. भाजपा ऐसा कुछ नहीं कर रही है क्योंकि वह अभी भी अन्नाद्रमुक से गठबंधन की उम्मीद लगाए हुई है.
अश्वमेध लापता हो गया
यह सिर्फ दक्षिणी राज्य नहीं हैं जहां भाजपा आलाकमान की एक कदम आगे-दो कदम पीछे की राजनीति में आत्मविश्वास की कमी दिखती है. 2019 के लोकसभा चुनावों में भी यह पश्चिम बंगाल और ओडिशा में तेजी से आगे बढ़े थे लेकिन अब इन राज्यों में इसकी ज्यादा गतिविधियां नहीं दिखती. यहां तक कि महाराष्ट्र में भी, जहां वह एक समय वर्तमान उप मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस जैसे लोकप्रिय नेता के चेहरे के साथ ड्राइवर की सीट पर दिखती थी, इनदिनों असहाय दिखती है.
सीएम एकनाथ शिंदे और उनके डिप्टी अजीत पवार ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली है, शिंदे ने मराठा नेता के रूप में अपनी जगह बना ली है और अगर गठबंधन सत्ता में लौटता है तो अगले साल के चुनाव में तो बीजेपी को अपना मुख्यमंत्री बनाने में मुश्किलें होंगी.
एक के बाद एक राज्यों में ये घटनाक्रम सवाल पैदा करते हैं: एक पार्टी जिसने 2019 में 50 प्रतिशत से अधिक वोट शेयर के साथ 224 लोकसभा सीटें जीतीं, वह इतनी रक्षात्मक क्यों दिख रही है? वह अश्वमेध कहां गया, जो अब तक नये-नये प्रदेशों में घूम रहा था, कहां गायब हो गया है?
सच तो यह है कि भाजपा नेतृत्व 2024 की चुनौती को इतनी बड़ी और कठिन बना रहा है जितनी वो है नहीं. अभी तक इस बात पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है कि पार्टी को उन 224 सीटों पर बड़ा उलटफेर झेलना पड़ेगा. पार्टी को अपना आत्म-सम्मान और मोदी पर विश्वास इतना नहीं खोना चाहिए कि वह यह सोचने लगे कि वह लोकसभा में बहुमत के लिए अपने दम पर 48 सीटें और नहीं जीत सकती. जब कोई मोदी, शाह और अन्य नेताओं को सुनता है, तो वे आत्मविश्वास से भरे नजर आते हैं. लेकिन जब कोई राज्यों में उनकी रणनीति को देखता है, तो कुछ और ही लगता है.
(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. यहां व्यक्त विचार निजी है.)
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