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Friday, 22 November, 2024
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पाकिस्तान में मौलवी और फौज के अलावा भी तालिबान को मिल रहा समर्थन

‘कट्टरपंथ’ का महिमामंडन पाकिस्तान के कट्टरपंथी गुटों में ही नही बल्कि सरकारी महकमे में भी ‘वाजिब’ माना जाने लगा है

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तालिबानी नेताओं के आपसी झगड़ों और नागरिकों के कई आंदोलनों के कारण अफगानिस्तान की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है. उधर पाकिस्तान एक स्तर पर उतावला हो रहा है और आइएसआइ के प्रमुख फैज हमीद काबुल में बादशाह वाली भूमिका निभा रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां अफगानिस्तान में भारी मानवीय त्रासदी की चेतावनी दे रही हैं और पाकिस्तान को आशंका है कि उसके यहां भारी तादाद में शरणार्थी आ सकते हैं. लेकिन उसे हताश लोगों के आ जाने की चिंता कम करनी चाहिए. इससे भी ज्यादा खतरनाक बात यह है कि पाकिस्तान दशकों से जो दुस्साहस करता आ रहा है उसके प्रभाव अंदर तक पहुंच रहे हैं, जो तालिबान की जीत के बाद और बुरे रूप ले रहे हैं. ये प्रभाव कुछ उन क्षेत्रों में दिख रहे हैं जिनमें उनकी अपेक्षा की जा रही थी, और उन क्षेत्रों में भी जिनमें उतनी अपेक्षा नहीं थी.

जमीनी विश्लेषण

हम जमीनी विश्लेषण करें. तालिबान की जीत पर केवल मजहबी कट्टरपंथी ही नहीं खुश हो रहे हैं, बल्कि गलियों के लोग भी और खासकर पाकिस्तान के क़बायली इलाकों के, जो कि तालिबान रंगरूटों की ‘आराम और तफरीह’ की जगह है, लोग भी इसका जश्न मना रहे हैं. तालिबानी नेतृत्व की तारीफ के पोस्टर पेशावर में लगाए गए, और मिठाइयां भी बांटी गईं. तालिबानी जीत की खूब चर्चा सोशल मीडिया में हुई, जिसमें इसे भारत पर भी ‘जीत’ बताया गया. इससे ऊपर, अकोरा खट्टक में भी जोश देखा गया, जहां दारुल उलूम हक़्क़ानिया है. तालिबान को और इससे पहले मुजाहिदीन को अधिकतर शीर्ष नेता इसी मदरसे ने दिए हैं. इसकी अहमियत उसी समय जाहिर हो गई थी जब इमरान खान की सरकार से इसे 10 लाख डॉलर मिले थे. यह जनरल परवेज़ मुशर्रफ की आधुनिकीकरण की नीति के ठीक विपरीत था. इस मदरसे के प्रमुख मौलाना हमीद-उल-हक़, जो पाकिस्तानी संसद के सदस्य भी रह चुके हैं, अपने शागिर्दों की जोरदार जीत की तारीफ करते हैं और उनकी विचारधारा को पाकिस्तान में भी लागू करवाना चाहते हैं. उर्दू मीडिया भी ‘सुपर पावर मुल्कों और उनके चालीस साथियों पर जीत हासिल करने और उन्हें घुटने टेक कर बातचीत की गुजारिश करने के लिए मजबूर करने’ पर तालिबान का गुणगान करते हुए शरिया कानून की वकालत कर रहा है.

इस बीच, दूसरे मजहबी गुट अपनी साख जताने के लिए बढ़-चढ़कर समारोह कर रहे हैं. उनमें केवल जमात-ए-इस्लामी ही नहीं बल्कि फजलुर रहमान का जमीयत-उल-इस्लाम (एफ) भी शामिल है, जिसने संगठन के दूसरे गुटों की तरह बधाई संदेश भेजे. वफ़ाक़-उल- मदारिस अल अरबिया जैसे मदरसा नेटवर्क भी तारीफ कर रहे हैं. 2019 में पाकिस्तान में 37,517 मजहबी मदरसे थे जिनमें कुल 45.9 लाख छात्रों के नाम दर्ज थे. इसका मतलब यह हुआ बड़ी संख्या में बच्चों के दिमागों को प्रभावित किया जा रहा था. इसके अलावा, जमात-ए-इस्लामी सरीखे संगठनों के 39,000 कार्डधारियों और उनके हजारों समर्थकों को भी जोड़ लीजिए और फिर कई बड़ी पार्टियों और छोटे समूहों को जोड़ेंगे तो संख्या कहीं और बढ़ जाएगी. इन कई हजार लोगों के अलावा तमाम तरह के छोटे गुट युवा दिमागों को प्रभावित करने की कोशिशों को मजबूती देते हैं. उनका खतरनाक असर हाल में तब उजागर हुआ जब इस्लामाबाद में महिलाओं के मदरसे जामिया हफसा पर तालिबानी झंडा फहराता दिखा. वहां बच्चे तालिबान के गुणगान कर रही थीं. यह चीज पूरे पाकिस्तान के मजहबी मदरसों में निश्चित तौर पर दोहराई जा रही है.


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लगभग आला ओहदों पर भी…

इसके बाद, वज़ीर-ए-आजम हैं और उनके कुछ करीबी भी. हाल में सीएनएन को दिए इंटरव्यू में इमरान खान ने मजहबी दक्षिणपंथियों के विचारों को दोहराते हुए कहा कि वे अफगानों की आज़ादी पर खुशी क्यों न मनाएं? वैसे, इमरान खान को लेकर शायद ही किसी को अब कोई मुगालता रह गया हो. ‘तालिबान’ खान ने एक साल पहले ही अपना विचार तब स्पष्ट कर दिया था जब उन्होंने कहा था कि भारत के साथ क्रिकेट खेलना एक जिहाद ही है. उन्होंने ओसामा बिन लादेन को शहीद कहा, और यह भी कि पाकिस्तान में बलात्कार के लिए महिलाओं की पोशाक जिम्मेदार है. उनका सबसे दुखद बयान यह था कि तालिबान ने ‘गुलामी की जंजीर’ तोड़ दी है. यह बयान तब दिया गया जब अफगान लोग अपने मुल्क से पलायन करने के लिए धक्का-मुक्की तक कर रहे थे. यह ऐसा बयान था, जो उनके पहले का कोई राजनीतिक नेता नहीं देता, भले ही वह नवाज़ शरीफ की तरह दक्षिणपंथियों से हेल-मेल करने वाला रहा हो. तालिबान के लिए ‘प्रोत्साहनों’ की घोषणा करते हुए और अपनी खुशी न छिपा पा रहे इमरान खान हकीकत से कटे हुए दिखते हैं.

इसके अलावा, उनके सलाहकार हैं. स्पेशल असिस्टेंट राऊफ हसन ने ट्विटर पर तंज़ कसा कि अमेरिका के ताश के पत्तों का महल ढह गया. पाकिस्तान के एक मंत्री जरताज गुल वज़ीर ने घोषणा की— ‘हिंदुस्तान को उसकी आज़ादी की सालगिरह पर माकूल तोहफा मिला.’ सबसे निंदनीय टिप्पणी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ ने की. उन्होंने चेतावनी दी कि अगर दुनिया ने तालिबान को मान्यता नहीं दी तो दूसरा 9/11 कांड हो सकता है. एक बार फिर कह दें कि किसी पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने, अनुभवी सरताज अज़ीज़ ने भी ऐसी टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं की होती. जाहिर है, ‘वफादार’ मंत्री जान-बूझकर ऐसे बयान इस्लामाबाद में हुकूमत को खुश करने के लिए देते हैं. ऐसा लगता है कि पारंपरिक सोच के झीने पर्दे को भी उतार दिया गया है. कट्टरपंथ का महिमामंडन करना कट्टरपंथी गुटों में ही नहीं बल्कि सरकारी महकमे में भी ‘वाजिब’ मान लिया गया है.


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… और सबसे ऊंचाई पर

अगर यह राजनीतिक हलक़ों में विजयोल्लास था, तो पाकिस्तानी हुकूमत की खुशी का अंदाजा ही लगाया जा सकता है. याद रहे कि हाल तक पाकिस्तानी फौज मुल्लाओं को नापसंद करती थी, उनका इस्तेमाल तो करती थी मगर उन्हें अपने इशारे पर चलाती थी. मामला तब खुल कर सामने आने लगा जब फौज ने क़बायली इलाकों में अपनी कार्रवाई शुरू की. फौज में पख्तूनों की संख्या 20-25 प्रतिशत है और उनमें से कई तालिबान से हमदर्दी रखने लगे. खबरें आने लगीं कि फौजी टुकड़ियों ने लड़ने से मना कर दिया, फौज से बाहर जाने का सिलसिला शुरू हुआ. इसके बाद पाकिस्तानी वायुसेना ने जनरल मुशर्रफ पर जानलेवा हमले किए. एक पोत का अपहरण करने की अल क़ायदा की कोशिश में दो सब-लेफ्टिनेंट शामिल पाए गए. इसके बाद, कट्टरपंथी हिज़्ब-उत-तहरीर के साथ संबंधों के आरोप में ब्रिगेडियर अली खान की गिरफ्तारी, अबोट्टाबाद में लादेन की गिरफ्तारी जैसी घटनाओं ने सेना के अंदर खलबली पैदा कर दी. ऐसी एक घटना में एक जूनियर अफसर ने ‘सीओएएस’ अशफाक़ परवेज़ कयानी से सवाल पूछ दिया था. कहा जा सकता है कि ये सब मामूली घटनाएं थीं जिनमें ‘बाहरी तत्वों’ का हाथ था. लेकिन काफी कुछ बदल गया है. यह इस बात से जाहिर है कि आइएसआइ के प्रमुख ने तालिबान मंत्रिमंडल की घोषणा से ठीक पहले काबुल में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने का फैसला किया. आइएसआइ के पुराने प्रमुख ऐसे समय में जरूर काबुल में मौजूद रहते मगर वे पूरी सावधानी बरतते कि वहां उनकी मौजूदगी गुप्त ही रहे. लेकिन यह फैसला एक नये चलन को उजागर करता है कि आतंकियों के साथ अपना रिश्ता उजागर करना एक अच्छी नीति है.

याद रहे कि ले.जनरल फैज हमीद अपने पूर्ववर्तियों की तरह यह दावा कर सकते हैं कि 2017 में जिस आतंकी गुट तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) ने ईशनिन्दा के मुद्दे पर नवाज़ शरीफ की सरकार को गिरवा दिया था वैसे गुटों को जन्म देने, काबू में रखने और खुल कर इनाम देने का श्रेय वे ले सकते हैं. बाद में टीएलपी ने चुनाव में 22 लाख वोट हासिल करके शरीफ की पार्टी को दूसरे नंबर पर धकेल दिया था और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी (पीटीआइ) को नंबर वन बनने मदद की थी. इसी गुट ने नवंबर 2020 में जब इमरान सरकार को निशाना बनाया तो उसके प्रमुख खादिम रिजवी की रहस्यमय मौत हो गई. उनके जनाजे पर भीड़ जिस तरह उमड़ी थी उसे देखकर यही कहा जा सकता था कि किसी राज्याध्यक्ष की मौत हुई हो. उनके बेटे साद रिजवी के नेतृत्व में टीएलपी ने हिंसक कार्रवाइयां बढ़ा दी हैं, कई पुलिसवालों तक को बंधक बनाया है. इमरान ने पहले तो इस गुट के खिलाफ कार्रवाई करने की घोषणा की मगर बाद में सेनाध्यक्ष की सलाह पर सुलह कर ली. विडंबना यह थी कि उस अराजकता के दौरान कई सांसद टीएलपी का पक्ष ले रहे थे. और बड़ी पार्टियां खत्म-ए-नबूअत (पैगंबर की सुरक्षा) का समर्थन कर रही थीं. रज़ा रूमी कहते हैं कि टीएलपी के समर्थक सिर्फ मदरसों में ही नहीं हैं बल्कि हर तबके में हैं और यह युवाओं में उसके लिए आकर्षण की तसदीक करता है.

इस बीच, तहरीक-ए-तालिबान से जुड़े रहे मज़हर सईद शाह जैसे उग्रवादी को, जो लंबे समय से आतंकी हिंसा करता रहा है, पीटीआइ ने पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में हाल में हुए चुनाव में एक सीट से नामजद किया और जमात-उद-दावा के नासिर क़यूम ने यूनाइटेड कश्मीर मूवमेंट के झंडे तले चुनाव लड़ा. पिछले आम चुनाव में मजहबी पार्टियों ने 460 उम्मीदवार खड़े किए थे. यह पाकिस्तान के इतिहास में एक रेकॉर्ड है. दूसरे शब्दों में, वे दिन गए जब जमात और दूसरे गुटों को चुनाव जीतने के लिए फौज के संरक्षण पर निर्भर रहना पड़ता था. वे आज इतने मजबूत हो गए हैं कि अपने पैरों पर खड़े हो सकें और कश्मीर तथा अफगानिस्तान में जिहाद छेड़ने को जायज ठहराने के लिए हुकूमत द्वारा पढ़ाए गए पाठ का इस्तेमाल कर सकें. यह वैसा ही है जैसे सांप पलटकर डंस ले.

एक आसान भविष्यवाणी यह की जा सकती है कि अगले चुनाव में कट्टरपंथियों की भागीदारी न केवल बढ़ेगी बल्कि अपना वजूद बचाने के लिए मुख्यधारा की पार्टियां भी शरिया लागू करने की मांग करने लगेंगी. तालिबान की जीत ‘अफगानों को आज़ादी’ के पाकिस्तानी चौखटे से बाहर निकलकर मुल्क के राजनीतिक विमर्श में एक ऐसी विचारधारा के रूप में दाखिल हो सकती जिसने तीन ‘काफिर’ हुकूमतों के खिलाफ जीत दिलाई है. इस बार फर्क यह है कि हुकूमत इसे अपना मकसद पूरा करने में इस्तेमाल करने की जगह इसके प्रति उत्साह दिखा सकता है. आखिर यह काफी फायदेमंद साबित हुआ ही है.

कट्टरपंथी मान्यताओं से बंधा पाकिस्तान अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी खतरनाक होगा चाहे वह उसका ‘फौलादी दोस्त’ चीन क्यों न हो. पाकिस्तानी हुकूमत ने जान लिया है कि कट्टरपंथ का रास्ता किस तरह गुप्त रास्ते बनाता है. यह मुल्क जबकि दक्षिणपंथ की ओर मुड़ ही गया है, ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग सोचने लगेंगे कि क्या ऐसे देश के पास परमाणु हथियार होने चाहिए, जबकि यह गिरावट अर्थव्यवस्था या गरीबी या आम समाधानों के मामले में नहीं है, जो अंतरराष्ट्रीय सेमीनारों में पेश किए जाते हैं. यह मामला उस मुल्क का है, जो अपने शीर्ष कर्णधारों के कारण बुरा बनता जा रहा है.

(लेखिका इन्स्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज़, नई दिल्ली में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @kartha_tara है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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