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शुक्रवार, 23 मई, 2025
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टैलेंटेड लोग अमेरिका छोड़ रहे हैं. भारत को तय करना होगा कि क्या वह इन्हें अपनाने के लिए तैयार है

यूरोप के देशों ने अमेरिका से हो रहे ब्रेन ड्रेन को देखते हुए जल्दी कदम उठाए हैं. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने दुनिया के सबसे होनहार माइंड्स को फ्रांस आने के लिए खुला निमंत्रण दिया है.

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1933 में जर्मनी से वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों का पलायन शुरू हुआ. इस पलायन का स्तर और जो लोग जर्मनी से निकले, खासकर अमेरिका और पश्चिमी यूरोप गए, उनकी गुणवत्ता इतनी प्रभावशाली थी कि उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के विकास को गहराई से प्रभावित किया. इतिहास एक बार फिर खुद को दोहरा सकता है.

हाल के समय में ऐसी खबरें सामने आई हैं कि कई शिक्षाविद अमेरिका से दुनिया के अन्य हिस्सों में जाने की सोच रहे हैं. वर्तमान भू-राजनीतिक स्थिति भले ही 1933 के जर्मनी जितनी गंभीर या नाजुक न हो, लेकिन अकादमिक स्वतंत्रता पर खतरे की आशंका के चलते कई शिक्षाविद देश छोड़ने पर विचार कर रहे हैं. नेचर मैगज़ीन द्वारा कराए गए एक हालिया सर्वे में इस बात की पुष्टि हुई है कि अमेरिका में ब्रेन ड्रेन पहले से ही शुरू हो चुका है. बड़ी संख्या में वैज्ञानिकों में से 75 प्रतिशत से अधिक ने कहा कि वे जल्द से जल्द कहीं और जाने की सोच रहे हैं.

1930 के दशक में जर्मनी से निकाले गए कई वैज्ञानिकों ने विदेश में रहते हुए महत्वपूर्ण योगदान दिए. इन वैज्ञानिकों में अल्बर्ट आइंस्टीन, जेम्स फ्रैंक और एर्विन श्रोडिंजर पहले से ही नोबेल पुरस्कार विजेता थे, जबकि पांच और वैज्ञानिकों को विदेश में किए गए काम के लिए बाद में नोबेल पुरस्कार मिला. ब्रिटेन और अमेरिका में इनका स्वागत करने में कुछ विशेष संगठनों ने मदद की थी, जो इनके पुनर्वास के लिए बनाए गए थे. यह एक निर्विवाद तथ्य है कि युद्ध के बाद अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में नवाचार संस्कृति के कारण उनकी अर्थव्यवस्थाएं तेजी से बढ़ीं, और इन प्रवासी वैज्ञानिकों ने इस संस्कृति को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

स्कॉलर्स को भारत आमंत्रित करना

दिलचस्प बात यह है कि 1930 के दशक में कुछ जाने-माने वैज्ञानिकों ने भारत में बसने के बारे में भी सोचा था. ऐसा ही एक नाम था मैक्स बॉर्न का, जिन्हें 1954 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला और जो मशहूर अमेरिकी वैज्ञानिक जे. रॉबर्ट ओपेनहाइमर के गुरु भी थे. मैक्स बॉर्न ने 1935 से 1936 के बीच छह महीने भारत के बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (IISc) में बिताए थे. उन्हें यह आमंत्रण भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक सी.वी. रमन ने दिया था.

रमन हाल ही में आईआईएससी आए थे और वे चाहते थे कि दुनिया भर से प्रतिभाशाली लोग संस्थान से जुड़ें. जब रमन ने 1935 में मैक्स बॉर्न को पहले छह महीने के लिए और फिर हमेशा के लिए बेंगलुरु आने का न्योता दिया, तो बॉर्न ने बिना किसी हिचक के इसे स्वीकार कर लिया. बेंगलुरु में बिताए गए उनके छह महीने कई महत्वपूर्ण लेक्चर और रमन और उनके साथियों के साथ गहरी शैक्षणिक बातचीत से भरे हुए थे.

इसी तरह, जब पं. मदन मोहन मालवीय को जर्मनी में बुद्धिजीवियों की परेशानी का अहसास हुआ, तो उन्होंने तुरंत कदम उठाने की जरूरत समझी और अल्बर्ट आइंस्टीन को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) आने का न्योता भेजा. उन्हें उम्मीद थी कि आइंस्टीन को बीएचयू का पढ़ाई-लिखाई का माहौल पसंद आएगा और शायद वे वहां पढ़ाने का प्रस्ताव भी स्वीकार कर लेंगे. रमन और मालवीय, दोनों में उस समय की हालात को समझने की जबरदस्त दूरदर्शिता थी और वे बेहतरीन लोगों को अपने संस्थान में जोड़ने के लिए पूरी तरह तैयार थे.

Letter written by Pt Madan Mohan Malaviya to Albert Einstein in 1931
पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा 1931 में अल्बर्ट आइंस्टीन को लिखा गया पत्र
Sir CV Raman’s letter to Max Born offering him a position at IISc, Bengaluru
सर सी.वी. रमन का मैक्स बोर्न को पत्र जिसमें उन्हें आईआईएससी, बेंगलुरु में पद की पेशकश की गई थी.

अमेरिका से प्रतिभाओं का पलायन

अगर आज ब्रेन ड्रेन होता है, तो यह अमेरिका की दुनिया के सबसे इनोवेशन फ्रेंडली वाले देश और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में स्थिति को कमजोर कर सकता है. इस पर कई स्वतंत्र विशेषज्ञों ने भी अपनी राय दी है. इसी कारण यूरोप के कई देशों ने अमेरिका से हो रहे ब्रेन ड्रेन को लेकर तुरंत कदम उठाए हैं. जैसे कि फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने दुनिया के सबसे होशियार लोगों को फ्रांस आने के लिए खुला न्योता दिया है।

क्या भारत बड़ी संख्या में प्रतिभाशाली शिक्षाविदों को, और वो भी बहुत कम समय में, अपनाने के लिए तैयार है? 1930 के दशक की स्थिति आज से काफी अलग थी. उस समय कुछ ज़िम्मेदार लोगों ने दूरदर्शिता और हिम्मत के साथ ऐसे फैसले लिए थे. साथ ही, उस समय भारत में विश्वविद्यालय और संस्थान धीरे-धीरे बन रहे थे, जिससे कई लोगों को उनमें जगह और मौका मिल पा रहा था.

इसके बावजूद, रमन को मैक्स बॉर्न को लंबे समय तक भारत में रखने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. दूसरी तरफ, आज के शैक्षणिक संस्थान 1930 के दशक के मुकाबले काफी ज्यादा परिपक्व हो गए हैं. लेकिन इसी परिपक्वता के साथ ऐसी सरकारी औपचारिकताएं (नौकरशाही अड़चनें) भी आ गई हैं, जो किसी बहुत खास और प्रतिभाशाली व्यक्ति को पहचानने और उन्हें संस्थान में जगह देने में रुकावट बनती हैं.

अगर भारत वाकई इस मौके का फायदा उठाना चाहता है और दुनिया की सबसे बेहतरीन प्रतिभाओं को आकर्षित करना चाहता है, तो एक नया और रचनात्मक तरीका अपनाना होगा. सरकार विशेष उद्देश्य वाले तंत्र बना सकती है और असाधारण प्रतिभाशाली शिक्षाविदों को वापस लाने के लिए तुरंत निर्णय ले सकती है. कई नवस्थापित निजी विश्वविद्यालय, जो शायद नौकरशाही प्रक्रियाओं से मुक्त हैं, इसमें पहल कर सकते हैं.

बेशक, आज की जटिल भू-राजनीतिक स्थिति को देखकर, ऐसे खास और प्रतिभाशाली लोगों को भारत लाना हमारी अर्थव्यवस्था के लंबे समय तक बढ़ने में मदद करेगा. अब समय बताएगा कि भारत इस मौका लेकर फायदा उठाता है या फिर इसे गंवा देता है.

(शेखर सी. मांडे, सीएसआईआर के पूर्व महानिदेशक हैं. अभी वे सावित्रीबाई फुले पुणे यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं. उनका एक्स हैंडल @shekhar_mande है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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