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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतहाथरस पर राहुल, मायावती, अखिलेश के लिए भाजपा को घेरना आसान लेकिन बाबरी मामले पर सब चुप्पी साध लेते हैं

हाथरस पर राहुल, मायावती, अखिलेश के लिए भाजपा को घेरना आसान लेकिन बाबरी मामले पर सब चुप्पी साध लेते हैं

बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले पर न बोलें और हाथरस के मसले पर बोलें, ऐसा नहीं चल सकता क्योंकि एक का ताल्लुक महिलाओं और दलितों की आवाज़ उठाने से है तो दूसरे का मुसलमानों की आवाज़ उठाने से है और इसमें फर्क नहीं किया जा सकता.

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बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले पर विशेष सीबीआई अदालत का फैसला आए एक सप्ताह बीत चुका है मगर इस पर विपक्ष की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. क्योंकि भाजपा राज में हाथरस कांड पर बोलना मुस्लिम वोटरों के पक्ष में बोलने से ज्यादा आसान है. बाबरी मामले पर सब मानो पत्थर के बुत बन गए हैं.

हाथरस में हुए कथित बर्बर बलात्कार कांड पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने योगी आदित्यनाथ सरकार को कठघरे में खड़ा करने के जैसे आक्रामक प्रदर्शन किए हैं उनसे किसी भी राजनीतिक नेता के तौर पर ऐसी अपेक्षा भी की जाती है. उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और अखिलेश यादव ने भी इसके खिलाफ उतनी ही तेज आवाज़ उठाई है. लेकिन एक अच्छे और चतुर नेता की पहचान यही है कि वह अपने राजनीतिक तथा चुनावी जनाधार के सभी मसलों के लिए उठ खड़ा होता है. लेकिन 1992 के शर्मनाक बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में विशेष अदालत के फैसले पर राहुल, प्रियंका, मायावती, अखिलेश समेत पूरे विपक्ष की बहरा कर देने वाली चुप्पी ने उनकी कमजोरी और अवसरवादिता ही उजागर की है.

इस लिहाज से हाथरस कांड पेड़ से लटके ऐसे फल के समान है जिसे तोड़ लेना बहुत आसान होता है. यह कोई विभाजनकारी या विवादास्पद मुद्दा नहीं है. यहां गलत क्या और सही क्या है, यह बिलकुल स्पष्ट है. उत्तर प्रदेश शासन ने एक संवेदनशील मसले को जिस क्रूरता और खुल्लमखुल्ला बेशर्मी से निपटाया उसने विपक्ष का काम और आसान कर दिया.

लेकिन बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले पर आया फैसला एकदम अलग ही मसला है. यह कहीं ज्यादा नाजुक, राजनीतिक व चुनावी दृष्टि से जटिल है और यह इस पर सवाल खड़ा करने वाले को वोटों का संभावित नुकसान कराने वाला मसला है. तो मुसलमानों की खातिर खड़े होने के नाम पर अपने वोटों को जोखिम में क्यों डाला जाए, जिनकी रक्षा करने के वादे आप करते रहे हैं और जिनके वोटों पर भरोसा करते रहे हैं? जब हाथरस में एक दलित युवती के कथित सामूहिक बलात्कार के मामले पर भाजपा पर हमला करना कम जोखिम भरा है और यह ज्यादा सुर्खियां तथा सोशल मीडिया पर ज्यादा प्रचार भी दिला सकता है तब राहुल, प्रियंका, अखिलेश, मायावती मुसलमानों के लिए आवाज़ क्यों उठाएं?

यह इस मामले पर बोलने या उस मामले पर न बोलने का सवाल नहीं है क्योंकि एक का ताल्लुक महिलाओं और दलितों की आवाज़ उठाने से है तो दूसरे का मुसलमानों की आवाज़ उठाने से है. दूसरे मामले में आवाज़ न उठा कर गांधी वंशजों और बड़े विपक्षी नेताओं ने अपने जनाधार से विश्वासघात किया है. बेशक यह अदालत का फैसला है इसलिए इसकी आलोचना करना फिसलन भरे रास्ते पर चलने के समान है. लेकिन राजनीतिक दल इतने तो चतुर होते ही हैं कि अदालत का कोपभाजन बने बिना यह कर सकें.


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महत्वपूर्ण मगर आसान मुकाबला

हाथरस में ऊंची जाति के ठाकुरों द्वारा एक दलित युवती का कथित सामूहिक बलात्कार और प्राणघातक यातना और इस मामले से निपटने के योगी आदित्यनाथ सरकार के समझ से परे तथा घटिया प्रयास, युवती के शव का रातोरात दाहकर्म ऐसा मुद्दा है जिसे उठाने से वह कोई भी शख्स पीछे नहीं हटेगा जो खुद को राजनीतिक नेता कहता हो.

पिछले हफ्ते जमीन पर गिरे राहुल की छवि या इस हफ्ते पुलिसवाले द्वारा प्रियंका का कुर्ता पकड़कर खींचे जाने की छवि योगी सरकार को कई दिनों तक परेशान कर सकती है और विपक्ष को विरोध के लिए मसाला जुटा सकती है. यह एक ऐसी लड़ाई है जो इसे लड़ने वालों को नुकसान नहीं पहुंचा सकती है.

अभी यह कहना मुश्किल है कि इससे कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को राजनीतिक लाभ ही हासिल होगा. लेकिन किसी को इससे नुकसान नहीं होने वाला. महिला उत्पीड़न और वह भी इस तरह के बर्बर उत्पीड़न के मामले को उठाने पर कोई भी आपको गलत नहीं कहेगा. उसमें भी जाति वाला पहलू बेहद अहम है. आखिर, बसपा की पूरी राजनीति दलितों को ताकतवर बनाने पर केंद्रित रही है और सपा का जनाधार भी कभी ऊंची जातियों में नहीं रहा. कांग्रेस एक समय ऊंची जातियों पर ध्यान देती थी मगर उत्तर प्रदेश में वह धीरे-धीरे दलित-मुस्लिम-ओबीसी वाले समीकरण पर केंद्रित होती गई है. उसके प्रदेश अध्यक्ष अजय लल्लू ओबीसी नेता हैं जिन्हें कमान सौंपना साफ है कि इस प्रदेश में कांग्रेस की रणनीति में क्या बदलाव आया है.

राहुल, प्रियंका, मायावती, अखिलेश को अच्छी तरह पता है कि इस लड़ाई में उनका पलड़ा भारी ही रहेगा. इसी तरह उन्हें यह भी मालूम है कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने पर सवाल उठाने के क्या राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं.


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पेचीदा मामला

सीबीआई की विशेष अदालत ने बाबरी मामले के 32 आरोपियों को पिछले हफ्ते बरी कर हमें बता दिया कि मस्जिद गिराई तो गई मगर उसके पीछे कोई पक्की साजिश नहीं थी बल्कि वह ‘क्षणिक आवेश’ में घटी घटना थी इसलिए किसी को इसकी सज़ा देने की जरूरत नहीं है.

भाजपा ने अपनी विभाजनकारी और जहरीली राजनीति रामजन्मभूमि आंदोलन पर ही खड़ी की. और 28 साल बाद आज देशभर के मुसलमानों को फैसला सुना दिया गया है कि उसने कोई गलती नहीं की. कांग्रेस, सपा, बसपा, सभी अपने-अपने हिसाब से कम-ज्यादा, अल्पसंख्यकों को रिझाने और उनके वोट बैंक की राजनीति करती रही हैं लेकिन किसी ने इस फैसले के खिलाफ खड़े होने का साहस तो क्या, आवाज़ तक उठाने की शालीनता तक नहीं बरती है.

हां, कांग्रेस ने एक अधिकृत बयान जरूर जारी किया कि यह फैसला ‘सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है और संविधान की भावना के विपरीत है’. अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद विध्वंस को ‘अवैध’ कहा था. लेकिन गांधी परिवार के ट्विटर प्रेमी और ‘सड़क पर संघर्ष’ करने वाले योद्धाओं ने अभी तक एक भी शब्द नहीं कहा है. दरअसल, उनके लिए यह पेचीदा मामला है क्योंकि उनके पिता, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1989 में ‘राम राज्य’ का वादा किया था और अयोध्या में विवादित स्थल पर शिलान्यास की अनुमति दी थी. दशकों बाद उनके पुत्र ‘जनेऊधारी ब्राह्मण’ के अवतार में प्रकट हुए थे. कांग्रेस नरम हिंदुत्व का खेल खेलती रही है और उसे डर है कि इस फैसले के खिलाफ बोलने से उसके हिंदू वोट खराब हो सकते हैं. यही नहीं, उसने तो अगस्त में अयोध्या में हुए भूमि पूजन का स्वागत किया था. प्रियंका ने ट्वीट किया था- ‘राम सबके हैं’.

इस बीच, सपा ने यादव-मुस्लिम समीकरण तैयार किया है तो बसपा ने जाटव-मुस्लिम समीकरण बनाया है. फिर भी बाबरी मसले पर इनके नेताओं और इनकी पार्टियों की चुप्पी, कोई बयान देने से परहेज, हैरान करता है. वास्तव में सुप्रीम कोर्ट ने पिछले नवंबर में जब विवादास्पद स्थल पर मंदिर निर्माण के लिए रास्ता साफ कर दिया था तब सपा-बसपा ने इसका स्वागत किया था.

मुस्लिम वोट सबको चाहिए मगर सब-के-सब भाजपा के उग्र हिंदुत्ववाद से इतने आक्रांत दिखते हैं कि अल्पसंख्यकों के हक में कुछ बोलने से डरने लगे हैं. उत्तर प्रदेश में तीन बड़े विपक्षी दलों में उस व्यवस्था पर सवाल उठाने की जरा भी हिम्मत नहीं दिखी जिसने एक मस्जिद को ढहाने और इसके बाद मुसलमानों के खिलाफ भारी हिंसा की छूट दी. राहुल, मायावती, अखिलेश की चुप्पी यही जताती है कि हिंदुत्व विजयी हुआ है, कि भाजपा और खासकर नरेंद्र मोदी-अमित शाह की उग्र बहुसंख्यकवादी राजनीति ने विपक्ष को एक कोने में दुबकने को मजबूर कर दिया है, जहां से वह उन्हीं मुद्दों पर आवाज़ उठा सके जिनके लिए लड़ना उसे सुविधाजनक लगता है और उस वोटर से जुड़े मसले पर चूं तक करने की हिम्मत न करे जिसे भाजपा ने अप्रासंगिक बना देने की कोशिश की है जिस वोटर का नाम है- मुसलमान.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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