पिछले साल भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को बेमानी किए जाने के बाद कश्मीर को लेकर दुनियाभर में विरोध तेज हुआ, तो ‘स्टैंड विद कश्मीर’ (एसडब्ल्यूके) नामक गुट अमेरिका में भारत विरोध का एक अहम मंच बन गया. वैसे तो इस ‘ग्रासरूट ग्रुप’ का खुला प्रतिनिधित्व शिक्षाविद कर रहे हैं और वे कश्मीर के ‘आत्म निर्णय’ जैसे मसले पर विचार-विमर्श करते हैं, लेकिन उनकी मंशा कहीं ज्यादा खतरनाक लगती है.
‘मिडल ईस्ट फोरम’ नामक अमेरिकी संस्था ने खुलासा किया है कि एसडब्ल्यूके भारतीय सैनिकों और नागरिकों की हत्या में जुटे हिंसक इस्लामवादियों को प्रोत्साहन और समर्थन भी देता रहा है. पाया गया है कि वह पूरे अमेरिका में विश्वविद्यालयों में अपनी शाखाएं बनाने, विरोध प्रदर्शन करने में जुटा है; अपने प्रतिनिधियों को व्याख्यान देने के लिए भेजता है और अमेरिका में जमाते इस्लामी के प्रतिनिधि के तौर पर काम कर रहे ‘इस्लामिक सर्कल ऑफ नॉर्थ अमेरिका’ जैसे इस्लामी संगठनों के साथ मिलकर काम कर रहा है. एसडब्ल्यूके बड़ी तेजी से कश्मीर मसले पर अमेरिका में सबसे प्रभावशाली आवाज़ बन गया है लेकिन कश्मीर और कश्मीरियों के नाम पर इसकी मानवीय अपीलों के पीछे खतरनाक एजेंडा छिपा दिखता है.
उग्रवाद को समर्थन
एसडब्ल्यूके की वेबसाइट से कुछ पता नहीं चलता कि इसे शुरू किसने किया, इसके कर्ताधर्ता कौन हैं. सिर्फ दर्जनों नाम दिए गए हैं जिन्हें इसका ‘एक्सपर्ट’ बताया गया है, जिनमें से कुछ लोग इसके कार्यक्रमों में बराबर इसका प्रतिनिधित्व करते हैं. इनमें से कई तथाकथित एक्सपर्ट अमेरिकी विश्वविद्यालयों में शिक्षाविद हैं और मानवाधिकार, उपनिवेशवाद, स्त्री-पुरुष असमानता जैसे विषयों पर अध्ययन-शोध कर रहे हैं.
उम्मीद के मुताबिक, एसडब्ल्यूके और इसके एक्सपर्ट भारत के खिलाफ कश्मीर के प्रतिरोध को समर्थन देने के लिए उसी वामपंथी भाषा का प्रयोग करते हैं जो इन दिनों समाज विज्ञान के क्षेत्र में प्रचलित है. वे उस क्षेत्र की ‘स्थानीय’ आबादी की हिमायत करते हैं, प्रतिरोध में महिलाओं की भूमिका की तारीफ करते हैं और इस संघर्ष को एक ‘साम्राज्यवादी’ शक्ति के खिलाफ लड़ाई बताते हैं. इसे वे पर्यावरण और ‘जलवायु परिवर्तन’ के सवाल से भी जुड़ा बताते हैं.
लेकिन इन प्रगतिवादी सदीच्छाओं में से खुला उग्रवाद भी उभरता दिखता है. अपने सांगठनिक ढांचे की अस्पष्टता के बावजूद एसडब्ल्यूके सोशल मीडिया पर खूब सक्रिय है. कविताओं, चित्रों और लेखों को तो यह बराबर पोस्ट करता ही है, हिंसक उग्रवादियों का भी समर्थन करता रहता है. हाल में इस संगठन ने हिज़्बुल मुजाहिदीन के रियाज़ नाइकू के मारे जाने पर शोक भी जाहिर किया. हिज़्बुल मुजाहिदीन एक कश्मीरी आतंकवादी गिरोह है, जो दक्षिण एशियाई इस्लामी आंदोलन, जमाते इस्लामी से जुड़ा है. अमेरिकी सरकार इसे इसी तरह देखती है.
एसडब्ल्यूके सभी कश्मीरी कैदियों की तुरंत रिहाई की मांग करता है. उसका मानना है कि ये अहिंसक एक्टिविस्ट हैं, जिन्हें उनके राजनीतिक विचारों के लिए कैद में डाल दिया गया है लेकिन वास्तव में इनमें से कई कैदी खतरनाक आतंकवादी संगठनों से जुड़े रहे हैं, कई तो अल क़ायदा के लोगों के साथ मिल गए हैं और कश्मीर के लिए इस्लामी मंसूबों का खुल कर इजहार करते हैं. एसडब्ल्यूके इंटरनेट पर इन हिंसक आतंकवादियों के परिचय जारी करता है और उनकी तारीफ करता है.
मौत के दूत
सबसे अहम मिसाल आसिया अन्द्राबी की है, जिन्हें एसडब्ल्यूके ‘सामाजिक-राजनीतिक एक्टिविस्ट’ के रूप में प्रस्तुत करता है और मानता है कि उन्हें गलत तरीके से कैद किया गया है. वास्तव में, अन्द्राबी एक जानी-मानी इस्लामी एक्टिविस्ट हैं और भारत में प्रतिबंधित गुट ‘दुख्तराने मिल्लत’ की संस्थापिका हैं.
‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका के मुताबिक, यह गुट ‘आतंकवादियों का समर्थन करता है’ और जिहाद की पैरवी करता है. कश्मीर में कुछ लोग अन्द्राबी को ‘मौत का दूत’ कहते हैं.
अन्द्राबी ने एक इंटरव्यू में कहा कि उन्होंने अल क़ायदा के नेताओं से मुलाक़ात की है और उनसे कह दिया है कि ‘अगर आप लोग शेख ओसामा बिन लादेन के आदमी हैं, तो आपका बहुत स्वागत है क्योंकि वे जिहाद के सच्चे अगुआ थे.’
अन्द्राबी को उम्मीद है कि कश्मीर में तालिबान और अल क़ायदा आएंगे क्योंकि ‘हमारे वे भाई भारत से हमें आज़ाद कराने के लिए जरूर आएंगे.’ 2001 में एक इंटरव्यू में अन्द्राबी ने कहा ‘न केवल भारतीय पुलिसवालों बल्कि सभी नेताओं की भी’ हत्या का समर्थन किया था. उनसे जब पूछा गया कि ‘एक कश्मीरी उग्रवादी गुट ने भारत के प्रधानमंत्री की हत्या का आह्वान किया है’, तो अन्द्राबी का जवाब था कि ‘हम बहुत खुश होंगे, इंशा अल्लाह.’ इसी इंटरव्यू में उनसे उनके आठ साल के बेटे के बारे पूछा गया तो उन्होंने कहा था कि वे चाहेंगी कि ‘वह जिहादी बने और दुनिया में कहीं भी इस्लाम के लिए लड़े.’
एसडब्ल्यूके के एक्सपर्ट कश्मीर के लिए आत्मनिर्णय का अधिकार सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं. अन्द्राबी का कहना है कि यह ‘पूरी तरह से एक इस्लामी संघर्ष है.’ वे आज़ाद कश्मीर के पक्ष में नहीं हैं, बल्कि वे तो कहती हैं कि ‘हमें पाकिस्तान चाहिए’ और ‘तब पाकिस्तान का इस्लामीकरण हमारा पहला और सबसे जरूरी फर्ज़ होगा.’
सबको साथ लेकर नहीं चलना
एसडब्ल्यूके से जुड़े शिक्षविदों का दावा है कि कश्मीरी संस्कृति को भारत से खतरा है. वे कश्मीरी महिलाओं के मसले को आगे बढ़ाते हैं. एसडब्ल्यूके की एक्सपर्ट हुमा डार ने ‘कश्मीरी महिलाओं, समलैंगिकों और किन्नरों के प्रतिरोध’ विषय पर परिचर्चा का भी आयोजन किया. लेकिन इसकी संभावना शायद ही है कि अन्द्राबी जिस इस्लामिक कश्मीर का सपना देखती हैं उसमें किसी समलैंगिक या किन्नर को कबूल किया जाएगा, क्योंकि वे ‘पारंपरिक कश्मीरी संस्कृति’ के प्रति अपना विरोध जता चुकी हैं और चाहती हैं कि ‘हमारी महिलाएं इस्लामी संस्कृति को फिर से अपनाएं’.
लेकिन एसडब्ल्यूके के प्रतिनिधि अन्द्राबी की अलग ही छवि पेश करते हैं. कोलोराडो विश्वविद्यालय के एंथ्रोपोलोजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर और एसडब्ल्यूके की एक ‘एक्सपर्ट’ अतहर ज़िया ने अपने एक लेख में अन्द्राबी को कश्मीरी महिलाओं के संघर्ष की अग्रणी हस्ती बताया है. ज़िया ने इस्लाम का जिक्र किए बिना इस बात पर ज़ोर दिया है कि इन कश्मीरी महिलाओं को ‘मजहबी उसूलों की आड़ में महिलाओं के साथ होने वाले जुल्म का शिकार नहीं बनाया जा सकता’, न ही उन्हें ‘मर्दों के संरक्षण में छोड़ा जा सकता है, जो उन्हें उनके कपड़ों, उनकी बोली और हावभाव के आधार पर तौलते हैं.’ गौरतलब है कि एसडब्लूके की इस ज़िया ने हाल में मारे गए हिज़्बुल आतंकवादी रियाज़ नाइकू के लिए शोक जताते हुए कहा— ‘भारतीय कब्जे का नाश हो!’
खुल्लमखुल्ला दोमुंहापन
एसडब्ल्यूके को मालूम है कि अन्द्राबी लंबे समय से हिंसक उग्रवाद का जिस तरह समर्थन करती रही हैं वह उसके इस दावे को खोखला ही साबित करता है कि अहिंसा में यकीन रखने वाले आंदोलनकारियों को उनके राजनीतिक विचारों और शांतिपूर्ण संघर्ष के लिए अत्याचार का सामना करना पड़ रहा है. यह संगठन और उसके समर्थक शिक्षाविद दरअसल अन्द्राबी की हिंसक गतिविधियों और उनसे उनके जुड़ाव का जिक्र करने से कतराते रहे हैं और केवल यह शोर मचाते रहे हैं कि अन्द्राबी और उनके दो साथियों को गिरफ्तार किया गया. दरअसल, इन दो साथियों— सोफी फहमीदा और नाहिदा नसरी— को एसडब्ल्यूके की वेबसाइट पर ‘महिला राजनीतिक एक्टिविस्ट’ बताया गया है, जो ‘कश्मीर में आत्म निर्णय के अधिकार के लिए आंदोलन कर रही हैं.’
एसडब्ल्यूके बताता है कि वे दुख्तराने मिल्लत की, जिसे सिर्फ ‘महिला संगठन कहा गया है, सदस्य हैं. लेकिन एसडब्ल्यूके के मुताबिक, इन दोनों को दुख्तराने मिल्लत की आतंकवादी गतिविधियों के लिए नहीं बल्कि ‘राजनीतिक गतिविधियों’ को रोकने की भारत की नापाक कोशिशों के तहत गिरफ्तार किया गया था.
यह दोमुंहापन— जिसमें प्रमुख अमेरिकी विश्वविद्यालयों के शिक्षाविद भी शामिल हैं— यहीं खत्म नहीं होता. एसडब्ल्यूके जिस दूसरे कैदी का मामला भी ज़ोर-शोर से उठाता रहा है वे हैं यासीन मलिक, जिनके बारे में वह कहता है कि उन्होंने ‘अहिंसक प्रतिरोध का रास्ता चुन लिया है.’ एसडब्ल्यूके यह नहीं बताता कि उन्हें ‘इसलिए गिरफ्तार किया गया था क्योंकि उन्होंने 2010-16 में अलगाववादी आंदोलनों के दौरान हिज़्बुल कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने पर कश्मीर में असंतोष को भड़काया था.’
एसडब्ल्यूके इस तथ्य को भी नहीं बताता कि भारत की राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के मुताबिक, मलिक ने पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के मरी में लश्कर-ए-तय्यबा के कैंपों में जाकर उसके लोगों को संबोधित किया था. लश्कर-ए-तय्यबा को अमेरिकी कानून के तहत आतंकवादी संगठन घोषित किया जा चुका है और उसे मुंबई पर हमलों के लिए जिम्मेदार माना जाता है, जिनमें 160 लोगों की हत्या की गई थी. मार्च 2020 में जम्मू की अदालत ने घोषणा की कि उसके पास ‘इतने सबूत हैं’ कि मलिक पर ‘1990 में श्रीनगर में भारतीय वायुसेना के चार निहत्थे अधिकारियों की हत्या के मामले में’ मुकदमा चलाया जा सके.
कैदियों की एसडब्ल्यूके की सूची में अल्ताफ़ अहमद शाह, पीर सैफुल्लाह और आफताब हिलाली शाह के नाम भी शामिल हैं. इन तीनों को 2017 में दूसरे अलगाववादियों के साथ इस आरोप में गिरफ्तार किया गया था कि वे ‘आतंकवादी गतिविधियों के लिए पैसे स्वीकार कर रहे हैं और कोश जमा कर रहे हैं.’ एनआईए के अनुसार, ये आतंकवादी ‘हिज़्बुल मुजाहिदीन, दुख्तराने मिल्लत और लश्कर-ए-तय्यबा के सक्रिय आतंकवादियों से साठ-गांठ में काम कर रहे थे.’
असली चेहरा
एसडब्ल्यूके अमेरिका में अपना राजनीतिक रसूख बढ़ाता जा रहा है. अक्टूबर 2019 में इसने भारत की खोजी पत्रकार आरती टिक्कू सिंह की निंदा की जबकि उन्होंने अभी कश्मीर के राजनीतिक हालात पर अमेरिकी कांग्रेस में हुई सुनवाई में गवाही भी नहीं दी थी. सुनवाई के दौरान प्रतिनिधि इलहन उमर ने टिक्कू पर हमले के लिए आश्चर्यजनक रूप से उन्हीं तर्कों का सहारा लिया. छह महीने बाद कांग्रेस की इस सदस्य ने ‘नस्लीय इंसाफ’ और ‘कश्मीर में सैन्यीकरण’ के मसले पर आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया.
क्या एसडब्ल्यूके के एक्सपर्ट, विख्यात शिक्षाविद इतने भोले और लापरवाह ज्ञानी हैं कि उन्हें यह नहीं पता चला कि वे आतंकवादियों का समर्थन कर रहे हैं? या क्या वे जानबूझकर अल क़ायदा के समर्थकों और जिहादियों का पक्ष ले रहे हैं और उन्हें शांतिवादी राजनीतिक एक्टिविस्ट बता रहे हैं? जो भी हो, ऐसा लगभग निश्चित लगता है कि एसडब्ल्यूके शांतिपूर्ण प्रगतिशीलता के नाम पर आतंकवादियों को जान-बूझकर समर्थन दे रहा है. जैसे-जैसे एसडब्ल्यूके का प्रभाव बढ़ता जाएगा और इसके एक्सपर्ट कश्मीरी ‘प्रतिरोध’ के बारे में भ्रामक दावे करते रहेंगे, इस बात की जरूरत बढ़ती जाएगी कि मीडिया इसका खुलासा करे कि इस संगठन के पीछे कौन हैं, और नीति बनाने वाले लोग इसके असली एजेंडा से वाकिफ हों.
(लेखक मिडिल ईस्ट फ़ोरम के इस्लामिस्ट वॉच प्रोजेक्ट की रिसर्च फेलो हैं. यह उनके निजी विचार हैं)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
Very good work sir….it’s a long better…we support u….