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Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतकसम सोशल मीडिया की, देशवासियों को कोविड-19 से जंग में जीत की उम्मीदों का लाॅकडाउन गवारा नहीं

कसम सोशल मीडिया की, देशवासियों को कोविड-19 से जंग में जीत की उम्मीदों का लाॅकडाउन गवारा नहीं

कोरोनावायरस महामारी के बीच कहा जा रहा है कि इसने लोगों के दिलोदिमाग पर भी कब्जा कर लिया है, लेकिन सोशल मीडिया प्लेटफार्म इसकी गवाही नहीं देते.

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रेलें बंद हैं, बसें बंद हैं, मेट्रो बंद हैं, विमान बंद हैं, बाजार बंद हैं, धर्मस्थल और पूजास्थल भी बंद हैं. सरकारी तंत्र पर कोरोनावायरस की दहशत कुछ ऐसी तारी है कि जैसे खुले हुए घरों में लोग बंद हैं, वैसे ही खुले हुए अस्पतालों में ओपीडी. कहा जा रहा है कि इस दहशत ने लोगों के दिलोदिमाग पर भी कब्जा कर लिया है, लेकिन सोशल मीडिया प्लेटफार्म इसकी गवाही नहीं देते.

उन पर लोग पहले जैसी बेफिक्री से ही चुहलबाजियां कर रहे हैं. हां, आस्थावादियों, तर्कवादियों और अनीश्वरवादियों में संग्राम भी छिड़ा हुआ है. जानकारों का कहना है कि ये चुहलें व संग्राम दोनों इनसे सम्बन्धित जनों की अपने भीतर समाये डर पर काबू पाने और उसके पार जाने की कोशिशें हैं. लेकिन ऐसा कहने वालों की भी कमी नहीं है कि यह और कुछ नहीं, अचानक हाथ आ गये खाली समय का ‘सदुपयोग’ है.

बेकार की हुज्जत में पड़े बिना इन दोनों की बातें मान लें तो भी इस निष्कर्ष तक पहुंचने में कोई बाधा नहीं है कि फिलहाल कोरोना का कहर कितना भी प्रबल क्यों न हो, उसका रोना जिन्दगी की जीत में आम लोगों के यकीन को कम नहीं कर पाया है. इंसानियत की विजयिनी शक्ति में उनका विश्वास उनसे इस आशय की अपीलें भी करा ही ले रहा है कि ‘जब सारे भगवानों ने अपने दरवाजे बन्द कर लिये हैं, आप अपने दरवाजे खुले रखियेगा. क्या पता किस तकलीफजदा को कब उन्हें खटखटाने की जरूरत पड़ जाये.’

उनके व्यंग्य प्रहार भी पहले जैसे ही हैं- उनकी राजनीतिक छौंक भी और स्वाभाविक ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही उनके पहले निशाने पर हैं. सोशल मीडिया पर एक बहुप्रचारित मैसेज में उनकी बार-बार की विदेशयात्राओं पर इस ‘खबर’ से प्रहार किया जा रहा है: ‘कोरोना वायरस के चलते प्रधानमंत्री अनिश्चितकाल के लिए देश में फंसे.’ एक और मैसेज में ‘विश्वास’ जताया जा रहा है कि ‘कोराना को तो वाकई मोदी जी ही खत्म कर सकते हैं.’ इस विश्वास का आधार भी गजब का है: ‘जब उन्होंने करोड़ों नौकरियां खत्म कर दीं, देश के जीडीपी और बैंकों तक को औकात में ला दिया तो यह कोरोना भला क्या चीज है?’

22 मार्च के ‘जनता कर्फ्यू’ के दौरान लोगों से ‘कोरोना कमांडोज को धन्यवाद के नाद’ देने हेतु तालियां, थालियां व घंटियां बजवाने के लिए प्रधानमंत्री की ‘प्रशंसा’ करने वाला एक और मैसेज प्रचारित हो रहा है: कोई माने या नहीं, देश को ऐसा प्रधानमंत्री न मिला, न मिलेगा, जिसने खौफ के माहौल में भी त्यौहार जैसा समां बंधवाकर दिल खुश कर दिया. जनता कर्फ्यू में जानें कितने दिनों बाद लोगों ने पहले वाला इतवार देखा- ‘पूरा परिवार घर में और सड़कें सूनी. भीड़ में खोया आदमी परिवार में लौट आया.’


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अलबत्ता, कुछ नाशुक्रों को इस ‘त्यौहार’ के रंग कतई नहीं भा रहे. वे लिख रहे हैं, ‘कोरोना हुआ है कोई लल्ला नहीं, जो तुम तालियां और थालियां बजवा रहे हो.’ उनके समर्थक भी सुर में सुर मिला रहे हैं, ‘क्या करोगे, भक्त यही समझ रहे हैं कि लल्ला हुआ है.’ मोदी जी के समर्थक भी चुप नहीं ही है. वे पप्पू पर तंज के लिए सोनिया गांधी की ओर से यह ‘अनुरोध’ प्रचारित कर रहे हैं, ‘मोदी जी, प्लीज अब टीवी पर आकर बोल दीजिए कि पांच मिनट पूरे हो गये. मेरा बच्चा रुक ही नहीं रहा, तीन थालियां पिचका चुका है.’

चुहल का ऐसा माहौल हो तो सोशल मीडिया के चुटकुलेबाज ही क्यों कर चुप रह सकते हैं? सो, प्रधानमंत्री की जनता कर्फ्यू की अपील पर उन्होंने भी कई चुटकुले रच, गढ़ और प्रचारित कर डाले हैं. ऐसे ही एक चुटकुले में एक दोस्त दूसरे से पूछता है कि महज नौ घंटों के ‘जनता कर्फ्यू’ से भला क्या होगा? उसे बताया जाता है कि इससे कोरोनावायरस के सामुदायिक संक्रमण की कड़ी टूट जायेगी तो वह भड़क उठता और कहता है, ‘मूर्ख हो तुम. कोरोनावायरस की अपनी हेकड़ी है, वह कांग्रेस की मध्य प्रदेश की सरकार नहीं है कि जिसकी कड़ी एक झटके में टूट जायेगी.

एक चुटकुले में कहा जा रहा है कि कोरोना तो बहुत शर्मीला वायरस है. जब तक आप उसे इज्जत से अपने हाथ घर न ले आइये, आता ही नहीं. एक अन्य चुटकुले में कोरोना के कहर के आगे एचआईवी देवता लगने लगा है. चुटकुला कहता है कि इसी तरह कभी योगी प्रधानमंत्री बन गये तो आज जिन मोदी की बात-बात पर आलोचना की जाती है, वे देवता नजर आयेंगे.

सोशल मीडिया के कवियों की बात करें तो लगता है कोरोना ने उन्हें प्रभूत साहित्य सृजन का सुनहरा अवसर उपलब्ध करा दिया है. ज्ञातव्य है कि इसका शुभारंभ स्टार आफ द मिलेनियम अमिताभ बच्चन ने कोरोना पर कुछ पंक्तियां लिखकर और देशवासियों को समर्पित करके किया था. उनका शुरू किया सिलसिला अब इतना फूलने-फलने लगा है कि न कोरोना सम्बन्धी लोकगीतों का टोंटा है, न गजलों का.

अयोध्या मूल के एक उत्तराखंडवासी युवा कवि ने कोरोना काल में प्रेम पर भी कई कविताएं लिख मारी है- ’कोरोना काल में एक प्रेमी ने कहा’ शीर्षक से: कोरोना के चलते/विश्व बाजार की तरह/चारो खाने चित्त नहीं है/प्रेम का बाजार/प्रेम तो प्रेम है भाई/कोई निफ्टी या सेंसेक्स थोड़े ही है/प्रेमी ने प्रेमिका से/मोहब्बत का इजहार करते हुए कहा/तुम्हें क्या पता/मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं/ये कोरोना काल/हम दोनों के प्रेम का/स्वर्ण काल है/इस वक्त तुम/मेरे लिए सेनेटाइजर जितनी/खास हो/इसके पहले कि/कोरोना भारत छोड़कर/चीन लौट जाये/तुम मुझे अपना बना लो/तुम मेरे लिए साबुन की बट्टी और/सेनेटाइजर बन जाओ/और मुझे अपना मास्क बना लो.

एक समाचारपत्र की साहित्य डेस्क पर काम करने वाले मित्र ने बताया कि आजकल उन्हें कोरोना पर तुक्कड़ कवियों की अमूमन पचास कविताएं रोज प्राप्त हो रही हैं. डाॅक्टरों के पास भले ही कोरोना जनित महामारी का इलाज न हो और वे सावधानियों को ही उसका बचाव बता रहे हों, तुक्कड़ कवि अपनी कविताओं में उसका ‘अचूक इलाज’ सुझा रहे हैं. एक कवि ने तो कोरोना से यह तक पूछने से गुरेज नहीं किया है कि मोदीराज में इस देश में पहले ही सामाजिक दूरियां कौन-सी कम थीं जो तुम भी सोशल डिस्टेंसिंग का अभियान चलाने आ धमके. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के निवासी वरिष्ठ साहित्यकार विजय बहादुर सिंह ने लिखा है कि जब से कोरोना आया है, मैं टेलीविजन पर भारत के गृहमंत्री का चेहरा देखने को तरस जा रहा हूं.

सोशल मीडिया पर चल रही एक कोरोना स्तुति भी कुछ कम नहीं है, जो ‘वायरस तेरी महिमा अपरंपार’ और ‘वायरस का अद्भुत चमत्कार’ शीर्षकों से की जा रही है : ’प्रकृति’ ने मनुष्य की ’प्रवृत्ति’ पर विजय प्राप्त कर ली. राष्ट्रों की सीमाएं सील हो गईं. युद्ध के नगाड़े थम गये, आतंकवादियों की बंदूकें भी खामोश हो गईं. हाथ मिलाने, आलिंगन व चुम्बन करने का स्थान हाथ मिलाने जैसे मर्यादित आचरण ने ले लिया. क्लबों, स्टेडियमों, पबों, मॉलों, होटलों और बाजारों जैसा मायावी चीजों पर अस्पतालों की महत्ता स्थापित हो गई, अर्थशास्त्र पर चिकित्साशास्त्र स्थापित हो गया. सिरिंज और थर्मामीटर मिसाइलों और टैंकों से अधिक महत्वपूर्ण हो गये. इतना ही नहीं, धर्म पर अध्यात्म जीत गया, पूजास्थलों के बजाय हृदय में विराजमान प्रभु को पूजा जाने लगा.


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यह स्तुति है तो कुछ चुटीले सवाल भी हैं: इन दिनों बन्द पूजास्थलों के कपाट देर से खुलेंगे या हमारी बुद्धि के कपाट? वर्क फ्राॅम होम के पैरोकारों को उन देशवासियों की याद कब आयेगी जिनके पास न वर्क है और न होम? बालकनियों पर खड़े होकर तालियां, थालियां व घंटियां बजाने वालों को यह अहसास कब होगा कि देश में तमाम लोग बालकनियों तो क्या फुटपाथों से भी महरूम हैं? क्या पूरे विश्व में एक भी ऐसा चमत्कारी बाबा नहीं है, जो कोरोना को अपने काबू में ले सके? जन्म से मरण तक टैक्स देने के बावजूद ऐसा क्यों होता है कि जब भी कोई महामारी फैलती है, सरकार की एक मास्क और सेनेटाइजर देने की भी औकात नहीं दिखती? देश के लोग इस पर क्यों नहीं सोचते? क्या सोचने के भी पैसे लगते हैं?
लगते भी हों तो इस बहाने यह समझने में कोई हर्ज नहीं कि भरपूर अंदेशों के बावजूद देशवासियों को कोरोना से जंग में जीत की उम्मीदों का लाॅकडाउन गवारा नहीं है. वे इस विश्वास से भरे हुए है कि अंततः जिन्दगी नहीं, कोरोना को ही हारना होगा.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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