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Thursday, 25 April, 2024
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ज़मानत याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट की सिंगल बेंच से सफ़ूरा ज़रगर, सुधा भारद्वाज को जल्दी इंसाफ मिलना चाहिए

सिंगल बेंच द्वारा ज़मानत याचिकाओं की सुनवाई कराने का सुप्रीम कोर्ट का क़दम, सरकारी एलान बनकर नहीं रह जाना चाहिए-जो पढ़ने में तो अच्छा लगता है, लेकिन जिसका नागरिकों के जीवन पर कोई असर नही होता.

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कोविड-19 की वैश्विक महामारी के बाद ही, सुप्रीम कोर्ट ने आख़िरकार फैसला किया कि ऐसे ज़मानती आदेशों से जुड़े स्पेशल लीव पिटीशंस, जिनमें अधिकतम सज़ा सात साल तक है, उनकी सुनवाई सिंगल जज की बेंच करेंगी.

सुप्रीम कोर्ट के नियम 2013 में ये एक अहम बदलाव है, क्योंकि हाल के वर्षों में, नागरिकों के मौलिक अधिकारों और उनकी आज़ादी की सुरक्षा ना कर पाने के लिए, सुप्रीम कोर्ट की सही तौर पर आलोचना होती रही है. अक्सर देखा गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स, बड़ी आसानी से अभियोजन वकीलों की छिछली दलीलों से आश्वस्त होकर, अभियुक्त की अग्रिम या रेगुलर ज़मानत ठुकराते रहे हैं. इन वकीलों में नरेंद्र मोदी सरकार की ओर से खड़े वकील भी शामिल होते हैं.

कई मामलों में अभियुक्त को बेगुनाह मानने, और बिना किसी शक के अपराध साबित करने का ज़िम्मा अभियोजन पर डालने के, सुनहरे नियम को बिल्कुल उलट दिया गया है, ख़ासकर राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में, जिनमें अदालतों ने सुबूत का बोझ अभियुक्त पर डालने में कोई झिझक नहीं दिखाई.


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क्या ये बदलाव काफी है?

लेकिन, ये शक अभी भी बाक़ी है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के नियमों में हुआ बदलाव, उन अभागे नागरिकों को राहत देने के लिए काफी होगा, जो निरंकुश शक्तियों व असीमित संसाधनों से लैस, और बदले की भावना से ग्रस्त सरकार का शिकार होकर, झूठे दिखाई पड़ते आरोपों के चलते जेलों में पहुंच गए.

मसलन, ज़मानत याचिकाएं सुनने का ये नया सिस्टम, क्या दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया की गर्भवती पीएचडी छात्रा, सफ़ूरा ज़रगर को राहत दिलाएगा जो 10 अप्रैल से, नागरिकता (संशोधन) बिल के विरोध में शामिल होने की वजह से, देशद्रोह के आरोप में तिहाड़ जेल में बंद हैं? ज़रगर पर लगे आरोपों के बारे में पूछे जाने पर, दिल्ली पुलिस ने बाद में उनके ऊपर ‘गैर-कानूनी गतिविधियां रोकथाम कानून’ के तहत कड़े आरोप जड़ दिए, जिसमें अभियुक्त के लिए ज़मानत हासिल करना, तक़रीबन नामुमकिन हो जाता है.

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बदलाव से सुनिश्चित होना चाहिए कि कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज को भी तुरंत न्याय मिले, जो भीमा कोरेगांव केस में तक़रीबन दो साल से जेल में हैं, और आनंद तेललुम्बड़े तथा गौतम नवलखा को भी, जिन्हें पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट से अग्रिम ज़मानत याचिका ख़ारिज होने के बाद गिरफ्तार किया गया, ऐसे समय, जब महामारी के चलते पूरा देश लॉकडाउन में है, और जेलों को महामारी से बचाने के लिए, राज्य सरकारें क़ैदियों को रिहा कर रही हैं.

इसी तरह, नए सिस्टम के बाद सुप्रीम कोर्ट को ये भी सुनिश्चित करना होगा, कि राज्य के दबाव के बिना इसका ‘जेल नहीं, बेल’ का नियम लागू हो.

ज़मानत पर आदालतों ने क्या कहा है

कई अहम फैसलों में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जेल एक अपवाद है, जबकि ज़मानत नियम है. अग्रिम ज़मानत देने के मामले में भी, कोर्ट ने कुछ दिशा निर्देश जारी किए हुए हैं.

गुरबक्श सिंह सिब्बिया व अन्य बनाम पंजाब स्टेट मामले में, 1980 में सुप्रीम कोर्ट की एक पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने, हाईकोर्ट्स और निचली अदालतों में अग्रिम ज़मानत याचिकाओं से निपटने के लिए, कुछ गाइडलाइन्स पर अमल करने को कहा था.

कोर्ट ने कहा कि अग्रिम ज़मानत देते समय अदालतों को, अपने विवेक का इस्तेमाल अधिक निष्पक्ष रूप से करना चाहिए, ख़ासकर इसलिए, कि हाईकोर्ट्स निचली अदालतों का आदेश हमेशा उलट सकते हैं, यदि उन्हें लगे कि वहां विवेक का इस्तेमाल सही तरीक़े से नहीं हुआ है.

हाल ही में, जनवरी 2020 में, सुप्रीम कोर्च की पांच जजों की एक बेंच ने कहा कि अग्रिम ज़मानत की कोई तय मियाद नहीं रखी जा सकती. कोर्ट का मानना था कि नागरिकों की स्वतंत्रता से जुड़ी शक्ति को सीमित करना, सामाजिक हित में नहीं होगा.

40 साल पहले गुडीकांति नरसिम्हुलू व अन्य बनाम पब्लिक प्रॉसीक्यूटर, आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट केस में, न्यायविद और उस समय के सुप्रीम कोर्ट जज, वीआर कृष्णा अय्यर ने उपयुक्त रूप से कहा था, कि बेल जज का विवेक होता है, अभियुक्त का अधिकार नहीं. जस्टिस अय्यर ने कहा था: ‘बेल, या जेल?’- मुक़दमे से पहले हो या सज़ा के बाद, आपराधिक न्याय प्रणाली का एक धुंधला हिस्सा है, और ये अधिकतर बेंच के झुकाव पर निर्भर करता है, जिसे न्यायिक विवेक भी कहा जाता है.’

लेकिन उसी फैसले में, जस्टिस अय्यर ने आगाह भी किया, ‘निजी आज़ादी का छिनना, चाहे अल्पकालिक हो या स्थायी, समाज कल्याण के उद्देश्यों से जुड़े गंभीर विचारों पर आधारित होना चाहिए, जिनका ब्यौरा संविधान में है’.

पिछले कुछ समय से हमारी अदालतें, इस अहम विचार की अनदेखी करती दिख रही हैं.

क्या किया जा सकता है?

सितम्बर 2015 में, तत्कालीन केंद्रीय क़ानून मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने, भारत के लिए एक ‘बेल अधिनियम’ बनाने की ज़रूरत पर एक लेख लिखा था, जो कुछ-कुछ ‘यूके और दूसरे देशों के प्रावधानों’ की तरह होगा.

ज़मानत के मामले अदालतें किस तरह तय करें, यह अच्छे से परिभाषित है, कोई क़ानूनी मानक नहीं हैं, और किसी न किसी तरह, इंसाफ की तराज़ू हमेशा अभियुक्त के खिलाफ झुकी रहती है, ख़ासकर उनके, जिनके पास साधन नहीं हैं.

इस समस्या को सबसे अच्छे से मई 2017 में जारी, लॉ कमीशन ऑफ इंडिया की 268वीं रिपोर्ट में समझाया गया है, जो ज़मानत के विषय में थी: ‘ज़मानत से जुड़े मामलों में न्यायपालिका द्वारा एक विस्तृत प्रक्रिया अपनाए जाने के बाद भी, किसी कारणवश ये सिस्टम एक आदर्श व्यवस्था के मानदंडों पर पूरा नहीं उतर पाता, जिससे इस धारणा को बल मिलता है, कि बेल सिस्टम का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता’.

लेकिन लॉ कमीशन ने, जो एक अकेले ‘बेल अधिनियम’ की संभावनाओं का अध्ययन करता रहा था, इस विचार को त्याग दिया, हालांकि अपनी रिपोर्ट में उसने रेखांकित किया कि, ‘भारत में जेलों की 67 प्रतिशत आबादी ट्रायल के इंतज़ार में है’. कमीशन ने कहा, ‘देशभर की जेलों में भीड़ का एक कारण बेल सिस्टम की असंगतियां हो सकती हैं.’ कमीशन ने ये भी कहा कि अधिकतर विचाराधीन क़ैदी-70.6 प्रतिशत-निरक्षर या कम पढ़े लिखे हैं.’


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ये कोई असामान्य नहीं, बल्कि सामान्य बात हो गई है…कि ताक़तवर, अमीर और रसूख़दार लोग, बड़ी आसानी से तुरंत ज़मानत पा लेते हैं, जबकि आम और ग़रीब लोग जेलों में सड़ते हैं.’

सीआरपीसी की कई धाराओं में बदलाव की सिफारिशें करते हुए, कमीशन ने ‘ट्रायल से पहले ग़ैर-ज़रूरी क़ैद’ को कम किए जाने की बात की.

अब समय है कि सुप्रीम कोर्ट की एक संवैधानिक बेंच, ज़मानत देने के मुद्दे पर ग़ौर करे, और कुछ व्यावहारिक गाइडलाइन्स बनाए जिससे, जाने अनजाने में, विवेक के दुरुपयोग पर रोक लग सके.

वरना, सिंगल बेंच द्वारा ज़मानत याचिकाओं की सुनवाई का क़दम, सरकारी ऐलान की तरह बनकर रह जाएगा-जो पढ़ने में तो अच्छा लगता है लेकिन जिसका नागरिकों के जीवन पर कोई असर नही होता.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

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