गणतंत्र दिवस के ठीक चार दिन पहले देश की सबसे ऊंचली अदालत ने बड़ी शिद्दत से याद दिलाया है कि अपने गणतंत्र की हिफाजत की लड़ाई अब जनता को लड़नी है.
बड़ी उम्मीद लगी थी, बड़े दिनों से इंतजार किया जा रहा था कि सीएए के विरोध में डाली गई अर्जियों की सुनवाई होगी. सुनवाई शुरु हुई. लेकिन कुछ ऐसे मानो सीएए की मुखालफत वाली अर्जियों कोई आये दिन का मामला हों. कानून के बहुत से विशेषज्ञों को इस बात की आशंका पहले से ही थी. एटर्नी जनरल ने दलील दी कि सीएए के मुखालफत में कुल 140 अर्जियां आयी हैं और इनका जवाब तैयार करने के लिए कुछ और वक्त दिया जाय. अदालत ने दलील को सुनकर चार हफ्ते का और समय दे दिया. अर्जी डालने वालों ने गुहार लगायी थी कि सीएए और एनपीआर के अमल पर रोक लगायी जाय और जो ऐसा नहीं होता है तो अदालत इनपर अमलदारी को कम से कम आगे आने वाले कुछ महीनों तक के लिए टाल दे. लेकिन अदालत वक्त के इस मुकाम पर अर्जी डालने वाले की इस गुहार को सुनने को तैयार नहीं.
बेशक, अदालत के फैसले में कोई खामी नहीं है. कोर्ट ने न्यायिक प्रक्रियाओं के दायरे में अपने को सीमित रखा, मंशा ये जतायी कि सीएए या एनपीआर के मसले पर वो पहले से कोई धारणा बनाकर नहीं चल रही. मामले पर सुनवाई के लिए संवैधानिक पीठ के गठन की जरुरत है ही और ये बात भी सच है कि सरकार को अगर 140 से ज्यादा की तादाद में आयीं अर्जियों का जवाब तैयार करना है तो उसे इसके लिए वक्त की दरकरार होगी. सीएए और एनपीआर पर रोक की अर्जी को खारिज नहीं किया गया है. हां, इस पर सोच-विचार के मसले को बस अगली सुनवाई तक के लिए टाल दिया गया है. और फिर, ये बात भी समझ में आती है कि मामला सुप्रीम कोर्ट में है तबतक उच्च न्यायालयों में उनपर कहीं कोई सुनवाई ना हो. सो, इसी समझ से उच्च न्यायालयों को सीएए या एनपीआर पर कोई सुनवाई ना करने की बात देश की शीर्ष अदालत ने कही है.
नागरिकों के डर को नजरअंदाज करना
लेकिन सीएए या फिर एनपीआर का मसला कोई आम मसला नहीं है. सीएए को लेकर होने वाली कानूनी लड़ाई दरअसल संविधान की देह और आत्मा को बचाने की लड़ाई है. मैं वकील नहीं हूं. लेकिन राजनीति विज्ञान का छात्र होने के नाते मैंने संविधान की पढ़ाई की है और मुझे ये भान है कि हमारा संविधान जिन बातों का पक्षधर है, सीएए उन तमाम बातों के निर्लज्ज उल्लंघन की दलील है. सो, मामले पर क्या रुख अपनाया जाना चाहिए. ये बिल्कुल साफ दिख रहा है. जाहिर है, ऐसे में मुझे ये उम्मीद होगी ही कि अदालत कोई दूसरा रुख अपनाती. मैं ये आस तो खैर नहीं बांध सकता और ना ही ऐसी ख्वाहिश पाल सकता हूं कि अदालत देश में चहुंओर सीएए के विरोध में जो आंदोलन उमड़ा है उसे संज्ञान में ले और उस पर अपना मंतव्य जाहिर करे लेकिन क्या ये उम्मीद लगाना अनुचित है कि हमारे माननीय न्यायधीशगण आगे आयें, कोई ऐसा रास्ता निकालें जिससे कि देश की तमाम जगहों और तमाम वर्गों के करोड़ों भारतीयों के मन में सीएए को लेकर जो डर बैठ गया है वो डर एक हद तक दूर हो जाये ? लोग अभी बड़ी बेचैनी से इंतजार कर रहे हैं कि जिनकी जिम्मेवारी संविधान के हिफाजत की है वे आगे आयें और कोई पुख्ता आश्वासन दें कि संविधान की हरचंद हिफाजत की जायेगी. ऐसे माहौल में सीएए को सामान्य ढर्रे का मामला मानकर उसपर सुनवाई का आम प्रचलित तरीका अपनाना लोगों के दिल में शायद ही कोई विश्वास जगा पाये.
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जनता ही अपने जनतंत्र को बचाने की लड़ाई लड़ेगी
बेशक हमें आगे की सुनवाई को देखना-परखना चाहिए और इस देख-परख के बाद ही किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना उचित होगा. लेकिन, एक सबक साफ उभरता नजर आ रहा है और वो सबक ये कि मौजूदा सुप्रीम कोर्ट संविधान की रक्षा में खड़ी अभेद्य दीवार जैसी नहीं जान पड़ रही जबकि उसे बनाया इसी सोच के साथ गया था. बेशक, अब भी सुप्रीम कोर्ट से कोई छोटी-मोटी राहत भरी चीजें संविधान की हिफाजत में होती दिखती हैं. लेकिन मौजूदा सत्तापक्ष के आक्रामक तेवर से संविधान की रक्षा करने के लिए जो चीजें जरुरी हैं, वो इस सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं है. मौजूदा सुप्रीम कोर्ट एक ऐसा योद्धा जान पड़ रहा है जो बड़े बेमन से संविधान-रक्षा की लड़ाई के मैदान में आन खड़ा हुआ हो. और, कभी-कभी तो ये भी कह पाना मुश्किल हो जाता है कि हमारे माननीय न्यायाधीशगण संविधान-रक्षा की लड़ाई में दरअसल खड़े किस तरफ हैं.
इसी कारण, भारतीय गणतंत्र को बचाने की लड़ाई अब अदालत और संसद के किले या फिर ऐसी ही किसी प्रतिष्ठानी जगह से नहीं लड़ी जा सकेगी. लोकतांत्रिक और अहिंसात्मक तरीका अपनाते हुए लड़ाई को अब सड़कों तक खींच लाना होगा. अब जनता ही अपने जनतंत्र को बचाने की लड़ाई लड़ेगी. संविधान की प्रस्ताव में आये ‘हम भारत के लोग’ को ही अब संविधान की रक्षा करनी होगी.
समान नागरिकता के मौजूदा आंदोलन की असल बात यही है. अब अदालत की सुनवाई पीछे की बात हुई और आगे बड़ी लंबी कानूनी लड़ाई का रास्ता दिख रहा है तो हमें वक्त के इस मुकाम पर ठहरकर समान नागरिकता के देशव्यापी आंदोलन के लिए भविष्य की राह सोचनी होगी. एक अर्थ में देखें तो वक्त के इस मोड़ पर आकर आंदोलन का एक चरण पूरा होता है. देश के ज्यादातर हिस्सों में आंदोलन की इस चरण को पूरा करने के संकेत के तौर पर 30 जनवरी के दिन एक मानव-श्रृंखला बनायी जायेगी, कई संगठनों और मंचों ने ऐसी योजना बनायी है. उत्तरप्रदेश इस मामले में एक अपवाद की तरह है क्योंकि यहां लगभग एक माह तक किसी भी किस्म के विरोध-प्रदर्शन पर पुलिस की सख्ती रही सो यूपी में सीएए विरोधी आंदोलन ने अभी रंग पकड़ना शुरु ही किया है.
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आंदोलन के पहले चरण ने अपनी उपलब्धियों के खाते में जो कुछ हासिल किया है उसके बारे में एक माह पहले तक सोच पाना भी मुश्किल था. पहली बात तो यह हुई है कि चुप्पी का लगातार बना चला आ रहा घेरा टूटा है. ऐसा खासकर मुस्लिम समुदाय के मामले में देखने को मिला जो लगातार पांच सालों से गहरे भय के साये में चुप चला आ रहा था. मुस्लिम समुदाय को आंदोलन के पहले चरण में आवाज मिली है और जरुरी आत्मविश्वास भी. दूसरी बात ये कि आंदोलन ने पहले चरण में एक बड़े दायरे में अपनी छाप छोड़ी है और इस छाप को किसी भी अन्य आंदोलन की तुलना में कम करके नहीं आंका जा सकता. तीसरी बात, आंदोलन ने लोगों की स्वत:स्फूर्त प्रतिक्रियाओं को आधार बनाया, नेता और संगठन इसके बाद लोगों के बीच दाखिल हुये. युवाओं और महिलाओं की उल्लेखनीय भागीदारी रही जो बड़ा मूल्यवान सिद्ध होने जा रहा है. चौथी बात ये हुई है कि देश में चहुंओर नेता के तौर पर नये चेहरे नमूदार हुये हैं. इन नये चेहरों ने अपने-अपने इलाकों में स्थापित नेताओं और मठाधीशों का घेरा तोड़कर नेतृत्व की बागडोर थामी है. पांचवी बात ये कि जमीनी कार्रवाई और संवाद-संचार के मामले में आंदोलन में गजब की रचनात्मकता देखने को मिली है.
लेकिन, इन बातों के आधार पर अभी से अपनी पीठ थपथपाना ठीक ना होगा. अगर सरकार सीएए के मसले पर अड़ी हुई नजर आ रही है तो बस इसलिए कि उसे अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा फिर से हासिल कर लेने का विश्वास है. सरकार की कोशिश रही कि वो पूरे आंदोलन को मुसलमान लोगों की उत्पाती भीड़ का कारनामा बताकर लोगों के जेहन में बैठा दे. लेकिन सरकार की ये कोशिश कामयाब ना हुई. लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि पूर्वोत्तर से बाहर के इलाकों में सीएए को लेकर होने वाले विरोध-प्रदर्शनों में एक बड़ी तादाद मुस्लिम समुदाय के लोगों की थी. बेशक, बड़ी रैलियां और शक्तिशाली धरना-प्रदर्शन हुये हैं लेकिन ताकत का ये इजहार लोगों में हमदर्दी जगाने की जगह भय भी जगा सकता है. स्वत:स्फूर्त होना निश्चित ही आंदोलन की ताकत साबित हुआ और उमड़े हुये जोश के अभी मंद पड़ने के कोई लक्षण नहीं दिखायी दे रहे लेकिन कई किस्म के धरना-प्रदर्शन एक दूसरे के आड़े भी आ सकते हैं. असम में चल रहे आंदोलन और नौजवानों तथा मुस्लिम समुदाय के लोगों के बीच चल रहे आंदोलन के बीच फिलहाल ठीक-ठाक तालमेल नहीं बन पाया है.
तीस जनवरी यानी विराट मानव-ऋंखला बनाये जाने के बाद, सीएए विरोधी आंदोलन अपने दूसरे चरण में प्रवेश करेगा. अब ध्यान इस बात पर लगाया जाना चाहिए कि लामबंदी महानगरों और बड़े शहरों से निकलकर छोटे शहरों और गांवों में पहुंचे. आंदोलन का संदेश मुख्य रुप से अबतक उन लोगों पर केंद्रित था जो सीएए के मुखालफत के विचार से सहमत हैं या फिर जिन लोगों पर सीएए का सीधा असर पड़ने वाला है- लेकिन अब आंदोलन के संदेश को शेष जनता तक पहुंचाना होगा जो ज्यादातर हिन्दू समुदाय से है और नागरिकता को लेकर बने नये कानून से विशेष आशंकित नहीं. दलित, आदिवासी और घुमन्तू समुदाय के लोगों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि नागरिकता के नये कानून की विशेष चोट इन्हीं समुदाय के लोगों पर पड़नी है. जहां तक प्रतिरोध के रुप और तरीके का सवाल है, जरुरत शाहीन बाग सरीखे प्रतिरोध के रुप को अपनाने की है. इससे शेष जनता में हमदर्दी के भाव जाग सकते हैं. आंदोलन को अपना सकारात्मक अजेंडा तैयार करना होगा, सिर्फ एनपीआर-एनआरसी और सीएए के विरोध पर टिके रहने से बात नहीं बनेगी. अभी आर्थिक संकट चहुंओर महसूस किया जा रहा है. सो, आंदोलन को इस पहलू से भी जोड़ना होगा. समान नागरिकता का नया आंदोलन भारत के विचार को पुनर्जीवन देने के सोच से चलाना होगा.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)
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