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Thursday, 21 November, 2024
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मंत्री के रूप में अमित शाह का प्रर्दशन तय करेगा कि मोदी-शाह की जोड़ी कितनी सफल होती है

मोदी और शाह के बीच सत्ता का ऐसा अनूठा समीकरण है जैसा न तो नेहरू-पटेल के बीच था और न ही वाजपेयी-आडवाणी के बीच था. लेकिन दिल्ली में पार्टी की हार के बाद शाह ने अपने राजनीतिक करियर के नये अपरिचित दौर में कदम रख दिया है. 

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अमित शाह ने पार्टी की बागडोर कुछ दिन पहले जेपी नड्डा को थमा दी है. हालांकि, दिल्ली चुनाव उनके ही एजेंडे का बकाया आइटम है, तब सवाल उठता है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में चल रही भाजपा सरकार के बारे में हम क्या आकलन कर सकते हैं? आगे की इसकी राह कैसी दिखती है?

हमारी 73 वर्ष की आज़ादी के इतिहास में मोदी-शाह सरकार इस तरह की तीसरी सरकार है, जो दो ताकतवर हस्तियों के नेतृत्व में चली, जिसे बराबर की हस्ती रखने वाले दो नेताओं ने मिलकर चलाया. बेशक, अकेले एक नेता के नेतृत्व में या अल्पकाल के लिए चलने वाली नेतृत्व विहीन सरकारें भी रहीं. किनारे खड़े होकर राजनीति का जायजा लेने वाले हम जैसे लोगों के लिए तो इन तीनों तरह की सरकारों पर नज़र रखना एक दिलचस्प काम रहा है. चरण सिंह से लेकर वीपी सिंह, चंद्रशेखर और देवेगौड़ा से होते हुए आइके गुजराल तक की नेतृत्व विहीन सरकारें सबसे मनोरंजक रहीं. उनमें अंदर-अंदर खूब लड़ाइयां चलीं, अंदर की खबरें लीक होती रहीं और वे जल्दी ही धराशायी होती गईं और एक नेता वाली सरकारों (मसलन इंदिरा गांधी और राजीव की) में साज़िशों की कहानियां खूब मिलती रहीं कि कौन है जो ताकतवर चौकड़ी के करीब पहुंच गया, कौन बाहर कर दिया गया. लेकिन बराबर कद वाले दो नेताओं के बीच सत्ता की साझीदारी से चलने वाली सरकारें भी कोई बोर नहीं करतीं.

पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व वाली ऐसी पहली सरकार इतनी दिलचस्प थी कि 75 साल बाद आज भी वह सुर्खियों में आती रहती है, जैसा कि अभी पिछले सप्ताह ही हुआ.

आप कह सकते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार उनके और सोनिया गांधी के बीच आपसी भरोसे के साथ सत्ता की साझीदारी से चली. लेकिन फर्क यह था कि प्रधानमंत्री बराबर के अधिकार रखने वालों में पहले नंबर पर नहीं थे.

दरअसल, दूसरे कार्यकाल में तो वे दूसरे नंबर पर भी नहीं रह गए थे और राहुल गांधी के बाद तीसरे नंबर पर पहुंच गए थे.


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इसके बाद हम क्रमशः अटल बिहारी वाजपेयी की और नरेंद्र मोदी की भाजपा/एनडीए की दो सरकारों पर आते हैं. दोनों सरकारें दो की सत्ता से चलीं- पहली वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की और दूसरी नरेंद्र मोदी और अमित शाह की वर्तमान सरकार. दोनों में अंतर है. वाजपेयी और आडवाणी करीबी मित्र, ‘सगोत्रीय’, लंबे समय से सहकर्मी और हमउम्र थे. उन्हें हमेशा बराबर माना गया, एक ज्यादा लोकप्रिय, सर्वमान्य और उदार थे, तो दूसरे सख्त, ज्यादा सियासती और सिद्धांतवादी. वे एक-दूसरे से असहमत भी होते थे मगर फैसला दूसरे पर टाल देते थे. मैं अक्सर उनकी तुलना ऐसे वृद्ध दंपती से करता था जो एक-दूसरे के प्रति गहरे निष्ठावान, निर्भर और स्नेहिल होते हैं लेकिन अक्सर इस तरह झगड़ते भी हैं कि लंबे समय तक एक-दूसरे से मुंह फुलाए रहें. लेकिन मोदी और शाह बिलकुल अलग ही किस्म के हैं.

नेहरू और पटेल लगभग एक कद के नेता थे और उनके बीच कई असहमतियां भी थीं, जो सबको पता थीं. लेकिन उस व्यवस्था में बॉस कौन था, इसको लेकर कोई संदेह नहीं था. उनके बीच का तनाव बाद में क्या रूप लेता, यह हम नहीं जान सकते क्योंकि पटेल का जल्दी ही निधन हो गया. वाजपेयी और आडवाणी के बीच अलग तरह का समीकरण था. इसमें शक नहीं कि आडवाणी ने भाजपा को नया जन्म और रूप दिया, नये हिन्दुत्व के लिए जगह बनाई और उसमें पार्टी को मजबूती से खड़ा किया. उन्होंने पार्टी को बनाया भी और चलाया भी.

भाजपा में वे एक जन-नेता भी थे और जुगाड़-नेता भी थे. उन्होंने गठजोड़ बनाए भी और तोड़े भी. वाजपेयी एक रोमानी, मंचीय चेहरा थे. अपने अधिकांश राजनीतिक जीवन में उन्होंने आडवाणी का साथ दिया, भले ही कभी-कभी उनके तरीकों से खीझते और आहत होकर किनारे हो लेते, जैसा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुआ. लेकिन उन्होंने कभी आडवाणी का विरोध नहीं किया और न ही उनकी बात काटी. इसी तरह, जब पार्टी सत्ता में आई तब आडवाणी के सामने सच्चाई का व्यवहार कुशलता के साथ सामना करने का मौका आया. उन्हें पता था कि अलग-अलग विचारधाराओं वाले दलों को वे अपने नेतृत्व में कांग्रेस विरोध की पतली डोर से नहीं बांध पाएंगे. उन्हें सबको साथ लेकर चलने वाले, सबको मान्य, वाजपेयी जैसे नेता की जरूरत पड़ेगी. सो, वाजपेयी प्रधानमंत्री बने लेकिन पार्टी में और कई तरह से सरकार में भी असली सत्ता आडवाणी के हाथ में रही.

इसका शुरुआती प्रमाण हमें तभी मिल गया था जब वाजपेयी को अपने विश्वसनीय और मूल्यवान मित्र जसवंत सिंह को अपने मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करने दिया गया और पार्टी के अंदर झगड़े चलते रहे, क्योंकि आरएसएस के करीबी (और निश्चित ही आडवाणी से बहुत दूर नहीं) लोग उन्हें अपने करीबी ब्रजेश मिश्र और दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य को लेकर परेशान करते रहे. इससे भी अहम यह कि 2002 गुजरात दंगों के मामले में वाजपेयी ने जब मोदी को बर्खास्त करना चाहा तो आडवाणी ने उन्हें रोक दिया. यहां तक कि युद्ध करने, शांति की राह पर चलने जैसे रणनीतिक मसलों पर भी आडवाणी की ही चली. यह एक दस्तावेजी तथ्य है कि जनरल परवेज़ मुशर्रफ के साथ आगरा शिखर सम्मेलन करने और उसे रद्द करने का विचार और फैसला भी आडवाणी का था. लेकिन वाजपेयी-आडवाणी के इर्द-गिर्द आम चाटुकारी और गपबाजी करने वाले हमेश यही कहते रहे कि ‘अरे भाई या राम-लक्ष्मण की तरह हमेशा साथ रहते हैं.’

आडवाणी भी इंतज़ार करके थक रहे थे और उनका अपना एक दरबार भी था. इस स्तम्भ को मैंने 2009 में लिखा था कि उनके इर्द-गिर्द के लोगों ने उन पर दबाव बनाया. इसके बाद कुछ नाटकीय घटनाएं घटीं. ‘जानकार’ सूत्रों ने वाजपेयी के कार्यकाल के आखिरी साल में अफवाह फैला दी कि वे थक चुके हैं और रिटायर होकर बागडोर अपने संभावित उत्तराधिकारी को सौंप सकते हैं. इसने वाजपेयी को अपनी चुप्पी तोड़ने को मजबूर कर दिया. और फिर उनकी हास्य से भरी मशहूर व्यंग्योक्ति आई- ‘न टायर हूं, न रिटायर हूं.’

मामला तब और भी उलझ गया जब हिन्दी पट्टी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में पार्टी की जीत से उत्साहित आडवाणी ने वाजपेयी पर दबाव डालकर आम चुनाव समय से पहले 2004 में करवाया. चुनाव अभियान के बीच ही वाजपेयी के थके होने और उम्रदराज होने की कहानियां फैलने लगीं कि वे अगली पारी में आडवाणी को बागडोर सौंपने जा रहे हैं. वाजपेयी इससे बहुत नाराज हुए और उन्होंने इसे छिपाया भी नहीं. एनडीए चुनाव में हार गया तो उन्होंने यह खुलासा करने से परहेज नहीं किया कि किसके ‘लालच और पाप’ के कारण यह दुर्गति हुई.

मोदी-शाह समीकरण कई तरह से अलग किस्म का है. इनमें से तीन सबसे बड़े अंतरों पर नज़र डालते हैं. पहली बात यह कि ये दोनों करीब दो दशकों से साथ-साथ हैं. एक तो सर्वविजयी जननेता हैं और दूसरे एक तेजतर्रार पार्टी प्रभारी हैं. दोनों की भूमिकाएं स्पष्ट हैं और दोनों अपने-अपने हुनर में महारत रखते हैं. एक जो है वह वोट लाता है, तो दूसरा अपनी पार्टी एवं चुनावी मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त रखता है, ताकि उन वोटों को इकट्ठा किया जा सके. इस लिहाज से यह सचमुच में नंबर वन और नंबर टू वाला रिश्ता है, जैसा कि कॉर्पोरेट दुनिया में सीईओ और सीओओ का या मुख्यमंत्री और उसके सबसे भरोसेमंद मुख्य सचिव का या कमांडेंट और सार्जेंट मेजर का होता है और हालांकि हाल में ‘टाइम्स नाउ’ के हाल के एक आयोजन में शाह ऐसी तुलना से मना कर चुके हैं, लेकिन आप उनके रिश्ते की तुलना चन्द्रगुप्त मौर्य और चाणक्य के रिश्ते से भी कर सकते हैं.


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दूसरी बात यह कि सार्वजनिक जीवन को लेकर दोनों का नज़रिया बिलकुल अलग है. एक बाह्यमुखी जननेता हैं, जो दुनियाभर में अपनी प्रशंसा से प्रसन्न होते हैं, जबकि दूसरे नेता को नेपथ्य में रहकर सत्ता की डोर खींचने में मजा आता है और जो प्रमुख देशों के राजदूतों से भी मिलने में कतराते हैं. एक हैं, जो जनता को अपनी ओर खींचते हैं, तो दूसरे ऐसे हैं जो पार्टी के वफ़ादारों को प्रेरित-उत्साहित करते हैं. एक हैं जो अच्छे पुलिसवाले की भूमिका निभाने की पूरी सावधानी बरतते हैं, तो दूसरे को अपनी अस्थाओं पर चलने में संतोष मिलता है भले ही इसका मतलब खराब पुलिसवाले की भूमिका निभाना हो और तीसरी बात यह कि, पहली दो जोड़ियों के विपरीत इस जोड़ी में नंबर दो जो है वह नंबर वन से काफी छोटा (14 साल) है. इसलिए उसका राजनीतिक भविष्य नंबर वन से काफी आगे तक जा सकता है.

दिल्ली के इस चुनाव के साथ पार्टी के बॉस के तौर पर शाह की पारी समाप्त हुई है. वे तो यही चाहते कि इस चुनाव का नतीजा अलग होता. लेकिन हरियाणा से दिल्ली और झारखंड तथा कुछ हद तक महाराष्ट्र के वोटरों ने उन्हें एक कड़वे सच का एहसासा कराया है कि ‘मोदी को वोट’ का मतलब ‘भाजपा को वोट’ नहीं है और निश्चित ही ध्रुवीकरण वाली इसकी विभाजनकारी विचारधारा को वोट नहीं है.

इस एहसास के साथ शाह अपने राजनीतिक जीवन के अपरिचित और दिलचस्प दौर में कदम रख रहे हैं. अब उनकी सफलता या विफलता एक महत्वपूर्ण महकमे के मंत्री के तौर उनके कामकाज से आंकी जाएगी. मोदी के साथ मिलकर उन्होंने हमारे राजनीतिक इतिहास की सबसे ताकतवर एवं दिलचस्प जोड़ी बनाई. अब आगे राजनीति पर जो कुछ लिखा जाएगा वह उनके बीच के समीकरण के स्वरूप से प्रभावित होगा और समय बीतने के बाद शाह की कहानी से ज्यादा प्रभावित होगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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