आखिरकार श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे वायु सेना के एक विमान में देश छोडक़र भागे, मगर शुक्र है कि भारतीय वायु सेना की उड़ान में नहीं चढ़े, जैसा कि सुब्रह्मण्यम स्वामी ने चाहा. एक लम्बे इंतज़ार के बाद गोटाबय राजपक्षे ने राष्ट्रपति पद से गुरुवार को सिंगापुर से अपना इस्तीफा दिया.
बतौर श्रीलंकाई सशस्त्र बलों के कमांडर-इन-चीफ उनके हाथ में कमान और संवैधानिक निर्देश देने की ताकत बची रही थी, जिसके चलते उन्होंने श्रीलंका वायु सेना को उन्हें मालदीव ले जाने का निर्देश दिया. उनकी यह मंजिल भी विडंबनापूर्ण है क्योंकि मालदीव में भी पिछले दो दशकों में जनाक्रोश भडक़ता और सत्ता परिवर्तन देखा गया है. दक्षिण एशिया के दोनों द्वीप देशों में आर्थिक संकटों के चलते बदलाव के लिए जनांदोलन दिखा है.
सुब्रह्मण्यम स्वामी की हस्तक्षेप करने की अपील श्रीलंका की जनभावना, भारत के हितों और सबसे बढकर सेना के कामकाज की मर्यादाओं के खिलाफ थी. भारत की सेना का इस्तेमाल संकट की घड़ी में किसी व्यक्ति या उसके परिवार-भारतीय या विदेशी-के हितों की रक्षा के लिए नहीं किया जा सकता. सेना का प्राथमिक दायित्व भारत, उसके लोगों या मदद मांगने वाले किसी देश की रक्षा करना है. यह अलग बात है कि 1987 में श्रीलंका में हस्तक्षेप संधि पर दस्तखत के बाद से जब भी मौका आया, भारत ने ऐसा कोई दायित्व मंजूर नहीं किया है.
राष्ट्रीय हित पहले
भारत की मालदीव में 1988 में कामयाब हस्तक्षेप दुर्भाग्य से काफी पहले भुला दिया गया है या नीतिगत सबक के रूप में उसकी अहमियत मिटा दी गई है. वह ऑपरेशन कैकटस आगरा स्थित 50 (स्वतंत्र) पैराशूट ब्रिगेड और पैराशूट रेजिमेंट की 6वीं बटालियन ने अंजाम दिया है. भारत को फिर मालदीव में 2012 में, इराक में 2014 में मोसुल के पास पंजाब के 40 मजदूरों को इस्लामिक स्टेट (आइएसआइएस) द्वारा अपहरण के बाद और 2018 में फिर मालदीव में संवैधानिक संकट खड़ा होने पर सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए थी.
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बुजदिली नीतिगत बिरादरी में सिर्फ आंख चुराने का भाव पैदा करती है क्योंकि चीन पड़ोसी द्वीप देशों भारतीय हितों को कुचल डाला और आइएसआइएस ने पंजाब के मजदूरों का निर्ममता से कत्ल कर दिया.
भारतीय सैन्य ताकत की विदेश नीति की पहल की मदद में तैनाती नैतिकता, निष्पक्षता या दुविधा का सवाल नहीं है. न ही ऐसी भावनाएं लंबे दौर में राष्ट्रीय हित के लिए मददगार होता है, भले इससे तात्कालिक सहजता का एहसास मिले. भारत की सैन्य ताकत हर तरह के माहौल में अभियान के लिए खड़ी, प्रशिक्षित और तैयार की गई है, ताकि देश या विदेश में देश हित को बढ़ावा दिया जा सके. ऐसी तैनाती को लेकर अति-संवेदनशीलता नहीं होनी चाहिए. हालांकि सैन्य जीवन का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि सभी अभियान सुरक्षित नहीं होते. दुर्घटनाएं हो सकती हैं और कुछ लौटकर नहीं आते.
लोगों के साथ खड़े हों, व्यक्तियों के साथ नहीं
पूर्व राष्ट्रपति राजपक्षे के लिए मदद भेजने का मामले में ऐसी अपील को मंजूर करने में कोई राष्ट्रीय हित नहीं था. भारत का सरोकार हर मायने में श्रीलंका के लोगों से है. जब राजपक्षे परिवार लंबे समय से सार्वजनिक उपहास का पात्र बन गया था, तो भारत की ओर से ऐसा दायित्व ओढना वाकई बेहद हास्यास्पद होता. हास्यास्पद इसलिए कि महीनों से मूसीबतों के बावजूद श्रीलंका के लोगों ने अपने तंज का भाव नहीं गंवाया है और राजपक्षे परिवार को कुछ उपाधियों से नवाज कर शर्मिंदा किया जा रहा है. मसलन, पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे (और एक बार राष्ट्रपति भी) को ‘मैना’ और पूर्व राष्ट्रपति डॉन एल्विन राजपक्षे के बेटे, वित्त मंत्री बसिल राजपक्षे को ‘कपुतु’ या कौवा कहा जा रहा है.
ऐसी जनभावनाएं के बावजूद अगर भारत ने श्रीलंका के लोगों की नजर से उतर चुके परिवार को बचाने के लिए दखल दिया होता तो वह हार ही होती. ऐसा नहीं है कि भारत ने श्रीलंकाई राष्ट्रपति को पहले नहीं बचाई है. 29 जुलाई 1987 को भारत-श्रीलंका समझौते पर दस्तखत के बाद पूर्व राष्ट्रपति जूनियस रिचर्ड जयवद्र्धने की कुछ महीने तक रक्षा भारतीय विशेष बलों ने की, जब तक जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) का खतरा टल नहीं गया. जेवीपी उस वक्त द्वीप देश के दक्षिणी हिस्से में उत्पात मचा रखा था. उस वक्त हत्याकांड बेहद निर्मम और खूंखार किस्म के हुए.
यह भी आशंका थी कि श्रीलंका सुरक्षा बलों में बिगडै़ल तत्व जयवद्र्धने पर हथियार चला दें, इसलिए भारतीय रक्षा कवच था. खतरा घट गया तो भारत ने अपना कवच हटा लिया, लेकिन यह सब कुछ श्रीलंका के भीतर हो रहा था. इस बेतुकी अपील से एकदम उलट कि राजपक्षे कुनबे को लोगों के गुस्से से बचाने के लिए उड़ा ले जाया जाए. भारत का हित इससे कभी नहीं बढ़ता कि वह श्रीलंका के लोगों की मंजूरी खो चुके परिवार का संकटमोचन बनता. भारत का हित हमेशा लोगों के साथ सधेगा, न कि व्यक्तियों से, जो भले एक दिन अटल लग रहे हों और उसके बाद फौरन भाग खड़े हों.
लोगों की ईच्छा और गोलबंदी का अजीब तरीका होता है और कभी भी खास तरीके और तंत्र से तय नहीं हो सकता. वर्षों के अंतराल में एशिया में लोगों के गुस्से के आगे कई ताकतवर शासकों को भागना पड़ा है. मुहम्मद रजा पहलवी से ताकतवर भला कौन होगा, जो एक वक्त ईरान के शाह, महाद्वीप में सबसे आधुनिक फौज के कमांडर थे. इसलिए राष्ट्रीय हित के खातिर, हमेशा ही लोगों के साथ दिखाना वाजिब है, न कि पसंदीदा शख्सियतों के साथ. वे हमेशा अस्थायी होते हैं.