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Saturday, 21 December, 2024
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लद्दाख जैसे संघर्ष के मामलों में भारतीय सेना के पुराने सिद्धांत सैन्य रणनीति को प्रभावित करते हैं: स्टडी

भारत ने अपना अंतिम पारंपरिक युद्ध 1999 में लड़ा था, तब से इसका रणनीतिक वातावरण काफी बदला है. तब से सामने आई भारत की अपरिपक्व प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट है कि उसका सैन्य सिद्धांत और सैन्य संरचना अभी भी अनुकूलित नहीं हुई है.

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भारतीय सैन्य रणनीति में थल सेना का वर्चस्व है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने अपनी अस्थिर उत्तरी सीमाओं पर पांच युद्ध लड़े हैं और जैसाकि लद्दाख के उत्तरी क्षेत्र में चल रही चीनी घुसपैठ से स्पष्ट है. आज भी उसकी सुरक्षा को सबसे चिंताजनक खतरा इन्हीं सीमाओं पर है. भारतीय सेना को सैन्य बजट का एक स्पष्ट और उत्तरोतर बढ़ता अंश और यहां तक कि सैन्यकर्मियों का भी एक बड़ा हिस्सा मिलता है. लेकिन भारत अपनी थल सेना का उपयोग कैसे करता है और वह भारतीय सुरक्षा हितों की कितनी अच्छी तरह रक्षा करती है?

भारतीय सेना और इस तरह भारतीय रक्षा नीति पर एक परंपरावादी आक्रमणात्मक सिद्धांत का वर्चस्व है. यह सैन्य बल के उपयोग का ऐसा दृष्टिकोण है, जो राजनीतिक निर्देश से अपेक्षाकृत स्वायत्त रूप से संचालित बड़ी सेना संरचनाओं पर केंद्रित है. इस मत का विजय का सिद्धांत दंड द्वारा अवरोध के तर्क पर निर्भर है कि भारत की बेहद मंहगी जवाबी कार्रवाई की धमकी उसके दुश्मन को आक्रामकता से रोक लेगी. दंडात्मक कार्रवाई प्रायः मोलभाव कर पाने के लिए दुश्मन के क्षेत्र पर कब्जे का रूप ले लेती है. हालांकि, भारत क्षेत्रीय यथास्थिति बनाए रखने के लिए आमतौर पर रणनीतिक रक्षात्मक युद्ध के लक्ष्य का अनुपालन करता है.

संगठनात्मक सुधारों और पेशेवर सैन्य शिक्षा के माध्यम से संस्थानीकृत और 2018 में जारी नवीनतम लैंड वारफेयर डाक्ट्रिन सहित आधिकारिक प्रकाशनों में संहिताबद्ध किए गए इस परंपरावादी आक्रमणात्मक सिद्धांत का प्रयोग एक के बाद एक कई संघर्षों में किया गया. चूंकि सेना सबसे बड़ी और श्रेष्ठ संसाधनयुक्त सेवा है जो हर युद्ध और तात्कालिक योजनाओं में आगे-आगे दिखती है, भारत की वास्तविक राष्ट्रीय सैन्य रणनीति के रूप में इस सिद्धांत की भूमिका और भी बड़ी हो उठती है.

भारत के रणनीतिक वातावरण में भारी बदलाव के बावजूद परंपरागत आक्रमणात्मक सिद्धांत का अड़ियल प्रभुत्व सेना को राष्ट्रीय नीति का एक कम उपयोगी साधन बना देता है. 1999 में कारगिल जिले और उसके आस-पास के क्षेत्र में भारत द्वारा लड़े गए आखिरी युद्ध के बाद के दो दशकों में, तीन महत्वपूर्ण रणनीतिक रुझानों ने भारत के सुरक्षा वातावरण को आधारभूत रूप से बदला है. परमाणु निवारण/प्रतिरोध ने बड़े पारंपरिक युद्ध की संभावना को कम कर दिया है, चीन की सैन्य शक्ति और हठधर्मिता अब एक अभूतपूर्व खतरा बन गई है, और क्रांतिकारी नई प्रौद्योगिकियों ने सैन्य अधुनातनता की नई परिभाषा रची है.

लेकिन भारत की सुरक्षा नीति बदली स्थिति के साथ कदम मिला कर नहीं चल पाई है. भारत की उत्तरी सीमाओं पर सैन्य शक्ति के संतुलन को देखते हुए, भारत युद्ध के मैदान पर पाकिस्तान या चीन को निर्णायक रूप से नहीं हरा सकता है.

भारी क्षति पहुंचाने की क्षमता के बिना भारत का परंपरागत आक्रमणात्मक सिद्धांत उसके प्रतिद्वंद्वियों को नहीं रोक सकेगा, दोनों ही संघर्ष की कीमत चुकाने का निश्चय किए हैं. बड़े, आक्रामक सैन्य विकल्पों की निरंतर खोज यह जोखिम भी बढ़ाती है कि इसके दुश्मन गहन प्रतिक्रिया-यहां तक कि परमाणु अस्त्रों का उपयोग-कर सकते हैं और क्योंकि यह सिद्धांत जमीनी स्तर पर बड़ी सैनिक संरचना की मांग करता है, यह पहले ही सीमित संसाधनों को आधुनिकीकरण और क्षेत्रीय बल के आयोजन से दूर कर देता है- अब यह समस्या विशेष रूप से बढ़ी है जब कोरोनावायरस महामारी के बीच भारत सरकार कठिन आर्थिक विकल्प अपना रही है.


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अधिक चुनौतीपूर्ण रणनीतिक वातावरण

भारत ने अपना अंतिम पारंपरिक युद्ध 1999 में लड़ा था, तब से इसका रणनीतिक वातावरण काफी बदला है. तब से सामने आई भारत की अपरिपक्व प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट है कि उसका सैन्य सिद्धांत और सैन्य संरचना अभी भी अनुकूलित नहीं हुई है. सैन्य नवप्रवर्तन पर अध्ययन मोटे तौर पर सहमत है कि राज्य के बाहरी वातावरण में परिवर्तन के प्रत्युत्तर में सैन्य रणनीतियों में परिवर्तन की संभावना सबसे अधिक है.

भारत के मामले में, 21 वीं सदी के तीन प्रमुख रणनीतिक परिवर्तन बदलाव के लिए पर्याप्त बाहरी उत्प्रेरक हैं. पहला, भारत और पाकिस्तान द्वारा खुली घोषणा कि उनके पास परमाणु हथियार हैं, जो भारत की सुरक्षा नीति में एक नया और स्तब्ध करने वाला तत्व बना. दूसरा, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) का असाधारण तेजी से आधुनिकीकरण जो चीन की ओर से एक नया और अधिक व्यापक खतरा पैदा करता है. तीसरा, सैन्य प्रौद्योगिकी की जटिलता और प्रभावशीलता में परिवर्तन.

अनुकूलन में विफलता

ढेरों प्रेरणाओं के बावजूद भारत की सैन्य रणनीति तेजी से विकसित हो रहे रणनीतिक वातावरण के प्रति अनुकूलित नहीं हुई है. परिवर्तन के लिए स्पष्ट उत्प्रेरण होते हुए भी बदलाव की प्रक्रियाएं समस्यापूर्ण हैं.

बाहरी परिवर्तनों से अनुकूलन के लिए सटीक रणनीतिक आकलनों और नीतिगत विकल्पों पर तर्कसंगत विचार-विमर्श की आवश्यकता होती है. ऐसे कार्यं एक नियत समय में होनेवाली रणनीतिक योजना प्रक्रिया में सबसे अच्छी तरह से होते हैं. अमेरिकी सरकार के लिए एक लिखित राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बनाना अनिवार्य है. चीन, फ्रांस, जापान, रूस और यू.के. सहित सभी प्रमुख शक्तियां रक्षा नीति श्वेत पत्र तैयार करती हैं. प्रमुख शक्तियों में से भारत ही नियमित रूप से इस तरह के विचारपूर्ण योजना दस्तावेज तैयार न करने वाला अकेला देश है.

सिद्धांत संबंधी परिवर्तन के लिए एक और शक्तिशाली बाधा सेवाओं की संगठनात्मक संस्कृतियां हैं, मनमाने ढंग से काम करने को छोड़ दी गई भारतीय सेना ने परंपरागत आक्रमणात्मक सिद्धांत को पुष्ट करनेवाले गहरी जड़ें जमाए बैठे आचरणों को बरकरार रखा है. उधर, आमतौर पर गैर-विशेषज्ञ, असैन्य नौकरशाही परिवर्तन ला पाने या सेना के आंतरिक विवादों में मध्यस्थता करने में असमर्थ है. यहां तक कि पुनर्मूल्यांकन के कभी-कभार के प्रसंगों ने रणनीति और सिद्धांत के प्रसंग में सेना के मौजूदा स्वरूपों/पैटर्नों को चुनौती देने के बजाय मजबूत किया है.

यह देखते हुए कि सेना द्वारा अपने सामरिक दृष्टिकोण को स्वतंत्र रूप से निरीक्षण करने की संभावना नहीं है, आधिकारिक नागरिक निर्देशन की पारंपरिक अनुपस्थिति सिद्धांत संबंधी परिवर्तन में अंतिम महत्वपूर्ण बाधा रही है. दो निर्णायक चुनावी जनादेशों से सशक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने ऐसे सुधार लागू करने के लिए राजनीतिक शक्तियां प्रदान की हैं जिनकी आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जाती रही है. चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) के पद की स्थापना परिवर्तनकारी बदलाव था- हालांकि अभी तक इस बात का कोई साक्ष्य नहीं है कि यह परिवर्तन सिद्धांत भी बदलेगा.

एक कम उपयोगी बल

महत्वपूर्ण सुधारों के न होने को देखते हुए, राष्ट्रीय शक्ति के साधन के रूप में भारतीय सेना कम उपयोगी होती जाएगी अब भी थलसेना, भारतीय सैन्य सेवाओं में सबसे बड़ी और सबसे अच्छे संसाधनों से संपन्न है, रक्षा बजट का 57 प्रतिशत इसे मिलता है (वायु सेना के लिए 23 प्रतिशत और नौसेना के लिए 14 प्रतिशत की तुलना में) और 85 प्रतिशत सैन्य कर्मी (वायु सेना में 9 प्रतिशत और नौसेना में 4 प्रतिशत की तुलना में) इस में हैं.

सेना में पारंपरिक आक्रमणात्मक अभियानों के पक्ष में झुकाव को अधिकारियों की पदोन्नति की एक ऐसी प्रणाली के माध्यम से बनाए रखा गया है जिसमें विशेष रूप से पैदल सेना और तोपखाने के अधिकारियों की तरफ़दारी करने के लिए कोटा का उपयोग किया जाता है. सेना का सामान्य कर्मचारीवर्ग इस संघर्ष-आयुध विशेषाधिकार को दर्शाता है और सिद्धांत और सैन्य संगठन के अपने नियंत्रण के द्वार इसे बनाए रखता है.


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बहरहाल, इसके पास आधुनिक, सूचना-युगीन प्रतिद्वंदी को रोकने या पराजित करने के लिए महत्वपूर्ण सामथ्र्यकारी कारकों की कमी है- विशेष रूप से सेंसर और शूटर को जोड़नेवाली सी4आईएसआर (कमांड/आदेश, कंट्रोल/नियंत्रण, कम्यूनिकेशन/संचार, कंप्यूटर, इंटेलिजेंस/गुप्तसूचना, सर्विलांस/सैन्य निगरानी, और/टोही) क्षमताएं और दुश्मन के महत्वपूर्ण पीछे के क्षेत्रों और संचार लाइनों को निशाना बना सकनेवाले लंबी दूरी के सटीक हमला करने वाले हथियार नहीं हैं.

इसमें संयुक्त रूप से प्रतिरोध और युद्ध लड़ने के लिए संगठन का अभाव है, जिसमें भारतीय भूमि की रक्षा करने और क्षेत्र में आक्रमण शक्ति को प्रदर्शित करने के लिए सैन्य सेवाओं को कमान के उच्चतम स्तर से सामरिक इकाइयों तक एक दूसरे के साथ जोड़ा जाता है.

शायद सबसे मूलभूत रूप से, इसमें विजय के ऐसे सिद्धांत का अभाव है जो राष्ट्रीय राजनीतिक निर्देश के अनुसार भारतीय सेनाओं का उपयोग शत्रु पर बलप्रयोग, बलप्रयोग को रोकने और यदि आवश्यक हो तो युद्ध करने के लिए करें.

भारतीय सेना के लिए सिफारिशें

सिफारिशों को इस तरह तैयार किया गया है कि इन्हें लागू करने में अपेक्षाकृत मामूली अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता हो और इनसे अन्य सेवाओं या नागरिक नौकरशाही के बीच न्यूनतम प्रतिरोध उत्पन्न हो.

विजय के नए सिद्धांतों पर विचार करें. बलप्रयोग और हठधर्मी को रोकने और हराने के लिए भारतीय सेना को अपने सिद्धांत को पुनर्संतुलित करने और प्रत्याख्यान की रणनीतियों के अधिक प्रयोग पर विचार करना चाहिए. पहले किए गए अपराध के लिए दंडित करने की नीति पर निर्भर रहने के बजाय उसे बलप्रयोग और क्षेत्रीय पुनरीक्षण को शत्रु के लिए बहुत ही महंगा या अव्यावहारिक बना देने के और अधिक अवसर तलाश करने चाहिए.

एक संयुक्त बल का सहायक अंग बनने के तरीकों पर विचार करें. भारतीय बलों का कई क्षेत्रों और विभिन्न युद्ध क्षेत्रों में लड़ने के लिए मजबूर होना बढ़ता चला जाएगा, इसलिए सेना को इस बात पर विचार करना चाहिए कि नए अभियानों में उपयोगी भूमिका कैसे निभाई जाए, जहां वह कहीं और चल रहे मुख्य प्रयास में सहयोग कर रही हो.

नई उपयुक्त क्षमताओं पर विचार करें. सेना संयुक्त युद्ध में अधिक मजबूत खुफिया, निगरानी और टोही क्षमताएं विकसित करके और लंबी दूरी के सटीक प्रहार के लिए अपनी क्षमता में वृद्धि करके बहुत अधिक और गुणात्मक रूप से अलग तरह से योगदान कर सकती है.

निष्कर्ष

भारत और उसकी सेना एक बड़े युद्ध की संभावना या दोनों मोर्चों पर एक साथ टकराव की आशंका को नजरअंदाज नहीं कर सकती. इसलिए इसे महत्वपूर्ण पारंपरिक संचालन क्षमता को बनाए रखना चाहिए. भारत की सीमाओं की लंबाई और पाकिस्तान की सेनाओं और चीन की सेनाओं के आकार को देखते हुए उसके लिए एक बड़ी पारंपरिक सेना बनाए रखना आवश्यक होगा. बहरहाल, भारत को न केवल सबसे खतरनाक स्थिति के लिए, बल्कि दुश्मन की अधिक संभावित कार्रवाइयों के लिए भी तैयार रहना चाहिए.

जैसा कि भारतीय सेना का अपना लैंड वारफेयर डाक्ट्रिन स्वीकार करता है, अस्पष्ट और मिलेजुले जटिल (ग्रे जोन और हाइब्रिड) खतरे समकालीन और भविष्य के रणनीतिक वातावरण की एक मुख्य विशेषता है. उन खतरों का सामना करने के लिए उसे महत्वपूर्ण संसाधन निवेश की नहीं बल्कि अपनेे पारंपरिक आक्रमणात्मक सिद्धांत पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है.

भारतीय योजनाकारों और रणनीतिकारों ने आवश्यक चर्चा शुरू कर दी है. बहरहाल, औपचारिक योजना प्रक्रियाओं की कमी, सेना के संगठनात्मक हितों और बेतरतीब नागरिक-निर्देशित परिवर्तन के कारण सुधार के प्रयास बाधित होते चले जाते हैं. जबतक राजनीतिक नेता आधुनिकीकरण में दीर्घकालिक निवेश की कीमत पर डींगहांकू अल्पकालिक दिखावटी कामों पर ध्यान केंद्रित करते रहेंगे तबतक शीर्ष से शुरू हो कर नीचे की ओर आनेवाला बदलाव अधूरा रहेगा.

आधुनिकीकरण केवल नए उपकरण और संगठन नहीं, उस से अधिक है. इसमें विजय के नए सिद्धांत और संघर्ष के पूरे आयामों पर प्रतिक्रिया करने की गुंजायशवाले सैद्धांतिक परिवर्तन भी शामिल हैं. बड़े पैमाने पर गोलाबारी करते हुए दुश्मन के क्षेत्र में दंडात्मक घुसपैठ युद्ध में विरले ही प्रभावी होती है. यह शांतिकाल या संकट के समय में बलप्रयोग के विकल्प के रूप में और भी कम उपयोगी होता है. यदि भारतीय सेना पारंपरिक आक्रमणात्मक अभियानों पर केंद्रित रहती है तो वह राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के एक उपकरण के रूप में तेजी से अप्रासंगिक हो जाएगी.

(अर्ज़न तारापोर स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में वाल्टर एच. शोरेंस्टीन एशिया पैसिफिक रिसर्च सेंटर में दक्षिण एशिया पर रिसर्च स्कॉलर हैं. लेख में प्रस्तुत विचार उनके व्यक्तिगत विचार हैं.)

(यह द आर्मी इन इंडियन मिलिट्री स्ट्रैटेजी में प्रकाशित लेखक के पर्चे: रीथिंक डॉक्ट्रिन ऑफ रिस्क इर्रेलेवेंस का संपादित अंश है जो पहली बार कार्नेगी इंडिया द्वारा प्रकाशित किया गया था.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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5 टिप्पणी

  1. The print always against India ..
    पक्षपाती रिपोर्टिंग , घटिया सोच

  2. कितनी लडाई लडी है गुप्ता ने आज तक..हसी आती है तुम्हारी सोच पर..क्या साबित और किसको खुश करना चाहते हो इस वाहयात विश्लेष्ण से.. पूर्वाग्रह से ग्रसित,एक निहायती कूडे का ढेर है..idiotic act nothing else ????

  3. कितनी लडाई लडी है गुप्ता ने आज तक..हसी आती है तुम्हारी सोच पर..क्या साबित और किसको खुश करना चाहते हो इस वाहयात विश्लेष्ण से.. पूर्वाग्रह से ग्रसित,एक निहायती कूडे का ढेर है..idiotic act nothing else ????

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