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Thursday, 19 December, 2024
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मोदी के लिए कड़ा संदेश- राजनीतिक हवाएं राष्ट्रवाद से हटकर अर्थव्यवस्था और रोजगार की तरफ मुड़ गई हैं

नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता घटी नहीं है मगर महज 5 महीने में इतने ज्यादा मतदाताओं ने पाला बदल लिया जो इस बात का संकेत है कि राष्ट्रवाद और धार्मिक जोश की जिन हवाओं ने आर्थिक स्थिति और बेरोजगारी जैसे ‘मामूली’ सरोकारों को बेमानी बना दिया था वे हवाएं अब उलटी दिशा में लौट रही हैं.

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मानसून इस साल कुछ लंबा खिंच गया. लेकिन हवा का रुख अंततः उलट रहा है. राजधानी में हवा में नमी खत्म हो रही है, यह पश्चिम से आने लगी है और पंजाब तथा हरियाणा में जल रही पराली का धुआं लेकर यहां पहुंच रही है. राजधानी में शरद ऋतु दस्तक देने लगी है.

मौसमी हवा की तरह समय से पहले तो नहीं, मगर सियासी हवा भी बदलने लगी है. करीब दो वर्षों से जबकि अर्थव्यवस्था स्थिर है, भाजपा ने धर्म की पूरी छौंक के साथ उग्र राष्ट्रवाद को हवा देना जारी रखा है. यह आम चुनाव से पहले के महीनों में खासकर बालाकोट और अभिनंदन प्रकरणों के बूते अपने चरम पर पहुंच गया था.

एक बार तो मतदाता को यह विश्वास दिला दिया गया कि सत्तर वर्षों से भारत के वजूद को पाकिस्तान से खतरा बना रहा लेकिन किसी ने इसका कुछ नहीं किया और अब अंततः नरेंद्र मोदी इस समस्या को निबटा रहे हैं. ऐसा वे मुख्यतः ‘निर्णायक, प्रतिकारक और निडर’ फौजी कार्रवाई के जरिये कर रहे हैं. और इसी के साथ पाकिस्तान को दुनिया में ‘अलगथलग’ करते हुए वे भारत की वैश्विक हैसियत को ऊपर उठा रहे हैं. ऐसी बातों पर जब पर्याप्त तादाद में मतदाता एक बार यकीन करने लगते हैं तब वे दूसरी पारंपरिक सियासी वफ़ादारियों और समीकरणों को भूल जाते हैं.

बाकी काम अपने आप होने लगता है- पाकिस्तान मुस्लिम मुल्क है, वह जिहाद के नाम पर आतंकवाद फैला रहा है, खून के प्यासे जिहादी पूरी दुनिया के लिए महामारी हैं. यानी अंतर्निहित कटाक्ष यह है कि खतरा इस्लाम से है, और भारत के मुसलमान इससे अछूते नहीं हैं, कि हिंदुओं को एकजुट होना पड़ेगा. बेशक यह सब विश्वसनीय नहीं हो सकता था अगर गरीबों की भलाई के लिए 12 लाख करोड़ रुपये का नाटकीय कुशलता से वितरण न किया गया होता- रसोई गैस, शौचालयों, आवासों, और ‘मुद्रा’ ऋणों के मदों में. इन सबके बारे में मैं चुनाव अभियान के दौर में काफी लिख चुका हूं.

चुनावी नज़रिये से देखें तो राष्ट्रवाद, धर्म और जनकल्याण का घालमेल काफी मारक था. विपक्ष ने नोटबंदी के बाद आर्थिक सुस्ती और बेरोजगारी जैसे सामयिक मुद्दों की उपेक्षा करके राफेल का जो राग छेड़ा उसका उपहास ही उड़ाया गया.


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पिछले हफ्ते दो विधानसभाओं के चुनाव ने पहला संकेत दे दिया है कि हवा का रुख बदल रहा है. मोदी की लोकप्रियता निश्चित ही घटी नहीं है. अगर ऐसा होता तो भाजपा हरियाणा में तो हार ही जाती. मोदी के आकर्षण ने ही मतदाताओं को पर्याप्त संख्या में भाजपा के साथ बनाए रखा है. वैसे ऐसे मतदाताओं की संख्या में पिछले पांच महीने में ख़ासी कमी आई है. उदाहरण के लिए, हरियाणा में यह गिरावट 58 प्रतिशत से घटकर 36.5 प्रतिशत की यानी प्रतिशत अंक के लिहाज से 21.5 अंक की है. लेकिन अभी भी यह संख्या इतनी है कि मोदी वोटों की गिनती के दिन दोहरी जीत के दावे कर सकें.

हाल के दिनों में सबसे विश्वसनीय साबित हुए इंडिया-टुडे-ऐक्सिस एक्जिट पोल के शुरुआती रुझानों ने कुछ संकेत दे दिए थे. हरियाणा के मामले में इसने दिखाया कि भाजपा ने कांग्रेस से कुल मिलाकर अच्छी ख़ासी (करीब 9 प्रतिशत-अंक की) बढ़त तो बना ली लेकिन ग्रामीण युवाओं, बेरोजगारों, किसानों, खेतिहर मजदूरों, आदि कई तबकों में वह पिछड़ गई. ऐसा लगता है कि ग्रामीण प्रधान राज्य हरियाणा में मध्यवर्ग, ऊंची जातियों और पंजाबी आबादी के बड़े हिस्से ने भाजपा को बड़ी शर्म से बचा लिया.

इसी तरह महाराष्ट्र में, जहां पार्टी ने एक साफ-सुथरी छवि वाले लोकप्रिय मुख्यमंत्री के नेतृत्व में एक अच्छी सरकार चलाई, उसे उम्मीद के मुताबिक बेहतर नतीजे नहीं हासिल हुए और नुकसान उठाना पड़ा जबकि विपक्ष कमजोर था और कांग्रेस तथा एनसीपी के बड़े नेता या तो पाला बदलकर भाजपा में चले गए थे या ‘एजेंसियों’ का कोप झेल रहे थे.

इतनी अनुकूलताओं के बावजूद अगर ऐसी कमजोर जीत हासिल हुई, तो यह देखना जरूरी हो जाता है कि पार्टी की जोरदार मुहिम को किसने कमजोर किया या वह क्यों कमजोर पड़ी. भाजपा के रास्ते में, खासकर पश्चिम महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्र में, अगर ज्यादा बड़ी कांग्रेस की जगह शरद पवार की एनसीपी आ गई तो साफ है कि किसानों और बेरोजगारों के बड़े हिस्से ने पाला बदल लिया है.

और याद रहे कि यह सब कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द करने के 11 सप्ताह; ‘हाउडी मोदी’, डोनाल्ड ट्रंप से वार्ता और संयुक्त राष्ट्र में भाषण देने के पांच सप्ताह के भीतर हुआ है. इस सूची में शी जिनपिंग के साथ ममल्लपुरम में टीवी शो; चिदंबरम और डी.के. शिवकुमार की गिरफ्तारी; एनसीपी नेता प्रफुल्ल पटेल से कथित ‘इकबाल मिर्ची के साथ आतंकवादी फंडिंग’ मामले में पूछताछ को भी जोड़ लीजिए. इसके अलावा, अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट में चल रही रोज-रोज की सुनवाई ने इस मसले को राष्ट्रीय चेतना में फिर से जगा दिया था.


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इन तमाम बातों के बावजूद मई से लेकर अब तक के महज पांच महीने में इतने ज्यादा मतदाताओं ने पाला बदल लिया तो यह इस बात का पर्याप्त संकेत है कि राष्ट्रवाद, पाकिस्तान विरोध और धार्मिक जोश की जिन हवाओं ने आर्थिक स्थिति और बेरोजगारी जैसे ‘मामूली’ सरोकारों को बेमानी बना दिया था, वे हवाएं अब उलटी दिशा में लौट रही हैं; कि ज्यादा से ज्यादा मतदाता अब बुनियादी मुद्दों की ओर लौट रहे है.

आम चुनाव के दौरान दौरा करते हुए हम अक्सर गरीबों, बेरोजगारों से टकरा जाते थे, जो शिकायत करते कि वे परेशान हैं, कि जिन अच्छे दिनों का वादा किया गया था वे तो आए नहीं; फिर भी वे ‘देश की खातिर’ मोदी को वोट देंगे. वह जज्बा अभी टूटा नहीं है. लेकिन उस मतदाता के नज़रिये से देखिए— अपने देश की सुरक्षा की खातिर मैंने अपनी परेशानियों की अनदेखी करके मोदी को वोट दिया. देश तो सुरक्षित है. अब ये बताइए कि हमारी घटती आमदनी, बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं, अनाज वसूली की स्थिर दरों जैसे मसले जो हमें तकलीफ दे रहे हैं उनका आप क्या कर रहे हैं.

इसलिए मेरा मुख्य तर्क यह है कि धर्म से बोझिल राष्ट्रवाद की हवा पर अब स्थिर अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी और व्यापक गड़बड़ी तथा असंतोष से जुड़े सरोकार हावी होने लगे हैं. पाकिस्तान, कश्मीर, और आतंकवाद पर अब और शोर मचाने से वह हवा वापस नहीं लौटने वाली है, सिवाय इसके कि कोई बड़ा युद्ध न शुरू हो जाए जिसकी संभावना नगण्य है.

क्या मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के अनुकूल फैसले से फर्क पड़ेगा? थोड़ा फर्क पड़ सकता है, वह भी हिन्दी पट्टी में ही. लेकिन बहुत ज्यादा नहीं. बड़ी तादाद में लोग बड़ी तकलीफ महसूस कर रहे हैं और वे आर्थिक मोर्चे पर उम्मीदों की वापसी चाहते हैं.

हम प्रायः यह शिकायत करते हैं कि भारत में हरदम चुनाव ही होते रहते हैं. भाजपा ‘एक देश, एक चुनाव’ की बढ़-चढ़कर वकालत कर रही है. लेकिन विडंबना यह है कि मोदी सरकार ही हरियाणा और महाराष्ट्र के साथ झारखंड का चुनाव करवाने से पीछे हट गई. शायद उसे परेशानी महसूस हुई होगी. ज्यादा संभावना यह है कि उन्हें लगा होगा कि उनके पास तो वोट बटोरने वाला एक ही नेता है, तो मोदी को तीनों राज्यों के लिए पर्याप्त समय देना ही बेहतर होगा.

इसका उलटा असर हुआ या नहीं, यह जल्दी ही पता चल जाएगा क्योंकि झारखंड में चुनाव करवाने की घोषणा जल्दी ही होगी. सुदूर उत्तर में हरियाणा और पश्चिम में महाराष्ट्र में उठी बदलाव की बयार क्या यहां भी पहुंचेगी? अभी तो हम केवल कयास ही लगा सकते हैं. लेकिन यह निश्चित लगता है कि विपक्ष अपनी धूल झाड़कर खड़ा होगा. लेकिन दुखद बात यह है कि सर्वव्यापी व्यक्तिपूजा के माहौल में, जहां हर जीत के लिए एक नेता को श्रेय दिया जाता है, उसे हार की ज़िम्मेदारी से अछूता नहीं रखा जा सकता- खासकर आज जबकि हार तो दूर, विरोधियों को धूल चटाने की जगह मामूली अंतर से जीत को निराशाजनक माना जाता है.


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भारत में चुनावों के अंतहीन सिलसिले की अच्छी बात यह है कि यहां राजनीति कभी बेजान नहीं होती. झारखंड के बाद दिल्ली की बारी होगी. तब भाजपा को इस बड़े सवाल का सामना करना पड़ेगा कि मोदी को फिर आगे खड़ा करें या नहीं, उस चुनाव को मोदी बनाम केजरीवाल बनाकर सब कुछ दांव पर लगाएं कि नहीं. क्या एक ऐसे आधे राज्य की खातिर यह खतरा मोल लेना ठीक होगा जिसमें सभी नगर निगमों, ज़मीन और पुलिस पर केंद्र का ही नियंत्रण है? मैं इतना ही कह सकता हूं कि पड़ोस के हरियाणा में कांग्रेस जितनी तैयार थी उसके मुक़ाबले अरविंद केजरीवाल कहीं ज्यादा तैयार नज़र आते हैं.

भारत में राजनीति को बदलने में वर्षों या कभी-कभी युगों लग जाते है. लेकिन सियासी मौसम बदलते रहते हैं. इसकी भनक आपको पतझड़ की सूखी हवाओं से जरूर लग रही होगी.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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