गत मंगलवार को उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने, कहते हैं कि एक पुराना राजनीतिक बदला चुकाने के लिए, लखनऊ में पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव को इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के बुलावे पर उसके कार्यक्रम में जाने से रोक दिया तो कई लोगों को यू ट्यूब पर गत 5 फरवरी को आया सर्वोच्च न्यायालय के अपने तरह के अनूठे भूतपूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू का वह वीडियो याद हो आया, जिसमें वे देश के संसदीय लोकतंत्र को लेकर कई बेहद खरी-खरी बातें कहते हैं. यह कहने तक जाकर अब उसने जो फर्जी स्वरूप धारण कर लिया है और जिसके नाते मतदाताओं की चुनने की आज़ादी इस या उस (जो भी उन्हें प्यारा लगे) ठग के बीच चुनाव तक सीमित हो गई है, उसमें उनका कतई विश्वास नहीं है.
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यकीनन, खुद को लोकतांत्रिक कहने वाली हमारी विभिन्न नाम व वेशधारी राजनीतिक जमातों द्वारा लोकतंत्र में जताया जाने वाला विश्वास उनकी औपचारिक शपथों तक सिमटा न होकर सच्चा होता तो न देश के हालात इतने उद्वेलित करने वाले होते और न ही उसकी राजनीति में इस तरह की दुश्मनियां निभाई जातीं. खासकर तब, जब स्वतंत्रता के बाद के 71 सालों में इन जमातों में से ज़्यादातर को कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप में सत्ता में साझीदारी भी मिल चुकी है.
बहरहाल, अखबारों में छपा है कि कोई तीन साल पहले जब प्रदेश में सपा की सरकार थी और अखिलेश मुख्यमंत्री थे, 20 नवम्बर, 2015 को उन्होंने योगी को, जो उन दिनों गोरखपुर के सांसद हुआ करते थे, इसी शैली में इसी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में जाने से रोक दिया था और अब योगी ने उनसे उसका बदला ले लिया है.
आसानी से समझा जा सकता है कि बदले की इस राजनीति में किसी लोकतांत्रिक परम्परा या आदर्श के लिए कितनी कम जगह होगी. लेकिन थोड़ी भी होती तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अखिलेश को इस तरह रोकने से पहले कम से कम इतनी लोकलाज ज़रूर सताती, जिससे वे समझ सकते कि इससे तो एकबारगी उन सारी तोहमतों का मुंह उनकी ओर हो जायेगा, जो उनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तक ने पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी पर उनके द्वारा गत 3 फरवरी को बालुरघाट में प्रस्तावित भाजपा की रैली के वक्त योगी के हेलीकाप्टर को उतरने की इजाज़त न देने पर लगाई थीं. याद कीजिए, तब अमित शाह ने कहा था कि लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक दल की गतिविधियां रोकने का अधिकार किसी को नहीं है और इस लिहाज से ममता का यह कृत्य कड़े से कड़े शब्दों में निंदा की मांग करता है.
चूंकि अब हमारे लोकतंत्र के ढेर सारे खुदाई खिदमतगारों में से ज़्यादातर उसे जीवन दर्शन की तरह नहीं, सत्ता की सुविधा की तरह बरतते हैं, योगी को ममता जितने ही निंदनीय कृत्य पर उतरना हुआ तो उन्होंने जानबूझकर अपनी ही पार्टी के अध्यक्ष की कही यह बात भुला दी कि ‘लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक दल की गतिविधियां रोकने का अधिकार किसी को नहीं है.’ करते भी क्या, उसे याद रखना उनकी राजनीतिक सुविधा के विरुद्ध आ खड़ा हुआ था.
गौर कीजिए, अखिलेश को रोकने के लिए योगी ने अशांति व अराजकता फैलने के अंदेशों समेत वही सारे तर्क (पढ़िये: कुतर्क) दोहराये हैं, जो उनका हेलीकाप्टर न उतरने देने के पक्ष में ममता बनर्जी ने दिये थे. इतना ही नहीं, समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उत्तर प्रदेश में योगी सरकार द्वारा अखिलेश को ‘उड़ने से’ रोकने का वैसा ही उग्र विरोध किया है, जैसा पश्चिम बंगाल में भाजपा के कार्यकर्ताओं ने योगी को ‘उतरने से’ रोकने का किया था.
यहां गौर करने की एक और बड़ी बात यह है कि एक दूजे की रीति-नीति को नापसंद करने और साथ ही उनसे लड़ने का दावा करने वाले परस्पर विरोधी खेमों में खड़े इन दोनों मुख्यमंत्रियों के शब्दों के थोड़ा हेर-फेर भले ही हो, अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति अनादर व हिकारत की भावना और साथ ही उन्हें सबक सिखाने का बदइरादा एक जैसा ही है.
यह और बात है कि लगता नहीं कि वे अपने इस बदइरादे में सफल होंगे, क्योंकि देश की जनता इतनी मूर्ख नहीं है कि समझे ही नहीं कि सत्ताओं का अपने विरोधियों के खिलाफ ऐसे कदमों पर उतरना उनकी शक्ति का नहीं, अपनी इस कमज़ोरी के स्वीकार का प्रतीक होता है कि वे अपने विचारों, सिद्धांतों व कार्यक्रमों की बिना पर उनसे नहीं निपट पा रही हैं. ऐसी सत्ताएं कितनी भी तानाशाही बरत लें, जनता वक्त पाते ही बता देती है कि वह न सिर्फ सब कुछ जानती है, बल्कि ‘अन्दर क्या है, बाहर क्या है’ सब कुछ पहचानती भी है. इस जनता ने जब भी उसे मौका हाथ आया है, यह सिद्ध करने में कोई कोताही नहीं की है कि जो लोग भी उसके नीर-छीर विवेक में संदेह करते हैं, उनकी खुशी अंततः अल्पकालिक ही रह जाती है.
सोचिये जरा कि देश में लोकतांत्रिक मानदंडों का हाल इतना बुरा न होता, उसके आदर्श मज़बूत होते और राजनीतिक गोलबन्दियां परिस्थितियों के सामने हारकर नहीं, इन आदर्शों को और मज़बूत करने के लिए की जातीं, साथ ही गठबंधन नीतियों व कार्यक्रमों पर आधारित हुआ करते तो क्या ऐसा होता? सीधा जबाव है- नहीं. तब अखिलेश अपने दलीय स्वार्थों से पूरी तरह बेफिक्र रहकर पश्चिम बंगाल में योगी आदित्यनाथ का हेलीकाप्टर न उतरने देने के लिए ममता बनर्जी की लानत-मलामत कर रहे होते और भाजपा अपनी ओर से पहल कर ‘अपने’ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कैफियत तलब कर रही होती कि उन्होंने विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष के खिलाफ ऐसी अलोकतांत्रिक कार्रवाई क्यों की?
यहां याद किया जा सकता है कि समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने केरल में संविद सरकार के दौरान किसानों पर पुलिस फायरिंग के मामले में ‘अपनी ही’ सरकार से इस्तीफा मांग लिया था और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं का यह कुतर्क स्वीकार नहीं किया था कि सरकारों में तो गोलियां तो चलती ही रहती हैं. उनका यों अपनी ही सरकार से इस्तीफे की मांग करना बुनियादी राजनीतिक ईमानदारी का एक बड़ा साक्ष्य था, जो अब दुर्लभ हो चला है. तब डॉ. लोहिया ने यह भी कहा था कि देश में सच्चा लोकतंत्र तभी मज़बूत होगा, जब विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता स्वयं उनकी खामियां उजागर करने में लगेंगे.
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शायद उन्हें इल्म नहीं था कि देश में एक दिन ऐसा भी आयेगा जब आंतरिक लोकतंत्र से सर्वथा महरूम राजनीतिक पार्टियों में नेता ऊपर से थोपे जाने लगेंगे और कार्यकर्ताओं की हालत बंधुआ मज़दूरों जैसी हो जायेंगी. ‘ऊपर के लोग’ देश की जनता के साथ इन कार्यकर्ताओं को भी गुमराह और दूषित चेतनाओं के हवाले करके लाभ उठाने में ही खुद को कृतकृत्य मानेंगे. इतना ही नहीं, लोकतंत्र को पहले सत्ता की प्रतिद्वंद्विता की सुविधा बनायेंगे, फिर सब कुछ ऊपर ही ऊपर लोक लेने का पर्याय.
अलबत्ता, इन हालात में अखिलेश ने ठीक ही कहा है कि एक दिन, यानी सत्ता बदलने पर, योगी के साथ भी वैसा ही दुर्व्यवहार हो सकता है, जैसा अभी उन्होंने अखिलेश के साथ किया है. सवाल है कि ऐसे में लोकतंत्र के साथ रोज-रोज हो रहे दुर्व्यवहारों की फिक्र कौन करेगा?